जनसत्ता लगातार स्वास्थ्य संबंधी विषयों को उठाता रहा है। आज संपादकीय में जनसत्ता ने जोरदार तरीके से स्वास्थ्य के मसले को उठाया है। आप पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत कर रहे हैं….संपादक
जनसत्ता/संपादकीय/2.01.15
स्वास्थ्य सेवाओं को नागरिकों के मूल अधिकारों में शामिल करने और इन्हें उपलब्ध न कराए जाने पर दंडात्मक प्रावधान का केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का प्रस्ताव निस्संदेह सराहनीय कहा जा सकता है। मगर इस पर प्रति व्यक्ति आने वाले खर्च का निर्धारण इसकी कामयाबी पर स्वाभाविक ही प्रश्नचिह्न लगाता है। देश की लचर स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर लंबे समय से अंगुलियां उठती रही हैं। यह मांग भी की जाती रही है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च सकल घरेलू उत्पाद के चार से पांच फीसद तक किया जाना चाहिए। फिर अंतरराष्ट्रीय दबाव रहा है कि गरीब तबके की महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य को किसी भी हाल में नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
इसी के मद्देनजर लंबे विचार-विमर्श के बाद स्वास्थ्य को भी शिक्षा की तरह मौलिक अधिकारों की श्रेणी में शामिल करने के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का प्रस्ताव तैयार किया गया है। इसके तहत सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को सर्वसुलभ बनाने, बच्चों और महिलाओं की मृत्यु दर पर काबू पाने, मुफ्त दवाओं और निदान संबंधी सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित कराने और स्वास्थ्य संबंधी कानूनों में बदलाव को लेकर लोगों से राय मांगी गई है। दुनिया के अनेक देशों में स्वास्थ्य को मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रखा गया है। यहां तक कि ब्राजील और थाइलैंड जैसे विकासशील देशों ने भी स्वास्थ्य सुविधाओं को सर्वसुलभ बनाने के मामले में भारत से बेहतर उपाय किए हैं। जबकि भारत एक अंतरराष्ट्रीय संधि पर सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं को नागरिक अधिकारों में शामिल करने के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने के बावजूद इस दिशा में अपेक्षित गति हासिल नहीं कर पाया है। इसलिए इस पर लगातार दबाव बना हुआ था। अदालतें भी लगातार इसकी सलाह देती रही हैं।
ताजा प्रस्ताव पिछले दस सालों तक चले विचार-विमर्श के बाद सामने आया है। स्पष्ट है कि यूपीए सरकार के समय लागू स्वास्थ्य योजनाओं को ध्यान में रखते हुए इसमें बदलाव के बिंदु तय किए गए हैं। फिर स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार का दर्जा दिए जाने के मामले में भी वही हड़बड़ी दिखाई दे रही है, जो शिक्षा को लेकर हुई थी। इस पर आने वाले खर्च का प्रावधान सकल घरेलू उत्पाद का ढाई प्रतिशत तक रखा गया है। यानी प्रति व्यक्ति तीन हजार आठ सौ रुपए सालाना। इतने में लक्ष्य तक पहुंचना कितना मुश्किल होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की बिगड़ती दशा के तथ्य छिपे नहीं हैं। तमाम निजी और सरकारी संस्थाएं समय-समय पर इसके विभिन्न पक्षों को लेकर अध्ययन पेश करती रही हैं, पर राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, स्वास्थ्य बीमा, जननी सुरक्षा आदि कार्यक्रमों के बावजूद लोगों को स्वास्थ्य संबंधी अपेक्षित सुविधाएं उपलब्ध नहीं कराई जा सकी हैं। नरेंद्र मोदी सरकार यूपीए सरकार की नीतियों और योजनाओं के नाम बदल-बदल कर उनके पुराने स्वरूप में लागू कर रही है। मसलन, योजना आयोग की जगह नीति आयोग बना दिया गया है। पर इन आयोगों, कार्यक्रमों, नीतियों को किस तरह प्रभावी बनाया जाए, इस पर कोई व्यावहारिक उपाय नहीं सुझाए गए हैं।
भ्रष्टाचार के दलदल में नाक तक डूब चुके स्वास्थ्य महकमे को बाहर निकालने के मामले में भी ऐसा ही है। सवाल है कि इसके बगैर कैसे सभी तक समान रूप से स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाई जा सकती हैं। शिक्षा को लेकर हड़बड़ी में उठाए गए कदम और धन का उचित आबंटन न हो पाने का नतीजा यह है कि निर्धारित समय सीमा पार हो जाने के बावजूद उसकी दशा में कोई बदलाव नहीं आया है। स्वास्थ्य के मामले में ऐसा न हो, इसके लिए तर्कसंगत नीतियों की जरूरत है।
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