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बेटी है तो कल है

Save Girl Child In Indiaबेटियां समाज का आधार या अभिशाप
आज भी भारत के कई हिस्सों में बच्चियों को जन्म देने से पहले ही भ्रूण में मार दिया जाता है। भारतीय समाज में अब बच्चियों को सामाजिक और आर्थिक बोझ के रूप में माना जाने लगा है। इसलिये वो समझते हैं कि उन्हें जन्म से पहले ही मार देना बेहतर होगा। कोई भी भविष्य में इसके नकारात्मक पहलुओं को समझने को तैयार नहीं है जिसने वर्तमान में एक विकराल रूप धारण कर लिया है।
 
एक मां जो गर्भ में नौ महीनों तक एक नन्ही सी जान को अपने खून से सींचती है, जब वही उसकी हत्यारन बन जाएगी, तो कौन उसकी रक्षा के लिए आगे आएगा। हर कोई अपने घर में बहू तो सुंदर लाना चाहता, लेकिन बेटियों को पैदा नहीं करना चाहता। जब बेटियां ही नहीं होंगी तो बहू कहां से लाओगे। लड़के की चाहत में बार—बार लड़कियों का कत्लेआम गुनाह नहीं है तो क्या है? इसे देश का अभिशाप नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे।
 
सृष्टि का आधार और विस्तार हैं लड़कियां देश की आन बान और शान हैं लड़कियां फिर भी उन्हें कोख में मार दिया जाता है। आखिर उनकी खता तो बता दो।
 
हमने तकनीकी रूप से भले ही उन्नति कर ली हो,  मंगल पर पहुंच गए हो, लेकिन आज भी हमारे समाज की सोच जस की तस है। भारत जैसे देश की महिलाएं हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर चल रही हैं। खेल में, फैशन में, फिल्मों में, मीडिया में और अंतरिक्ष तक में उनका दबदबा कायम है। यहां तक की अब उन्होंने अपने कड़े परिश्रम के बल पर वायुसेना में भी एंट्री ले ली है और अब वह लड़ाकू विमानों की कमान संभालेंगी।
 
इन सबके बावजूद आखिर क्या कारण है जो कन्याओं की भ्रूण में ही हत्या कर दी जाती है। भारत में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का लिंग अनुपात बड़ी ही तेजी से गिरा है। हरियाणा में तो खासतौर पर लड़कियों की संख्या लड़कों के मुकाबले बहुत कम देखी गई है।
 
माता-पिता और समाज एक लड़की को अपने ऊपर एक बोझ मानते हैं और समझते हैं कि लड़कियां उपभोक्ता होती हैं और लड़के उत्पादक होते हैं जबकि यह केवल एक मिथक है। लड़कों से ज्यादा लड़कियां अपने मां—बाप की देखभाल करती है, वह भी बिना किसी लालच के।
 
प्राचीन समय से ही नारी पारिवारिक व सामाजिक जीवन में बहुत ही निचली श्रेणी पर रखी जाती रही है। लड़कियों के बारे में भारतीय समाज में ही यही सोच रही हैं कि लड़कियां हमेशा लेती हैं। वर्षों से समाज में कन्या भ्रूण हत्या की कई वजहें रहीं है। दहेज प्रथा,बलात्कार, लचीली कानून व्यवस्था, असुरक्षा, गरीबी और अशिक्षा। इसके लिए उसके मां—बाप से ज्यादा दोषी वह समाज है जो पल—पल इन्हें घुटने टेकने पर मजबूर कर देता है और जन्म लेने से पहले ही भ्रूण में इनका गला दबा देता है।
 
लेकिन ज्ञान-विज्ञान की उन्नति तथा सभ्यता-संस्कृति की प्रगति से परिस्थिति में कुछ सुधार अवश्य आया है, फिर भी अपमान, दुर्व्यवहार, अत्याचार और शोषण की कुछ नई व आधुनिक दुष्परंपराओं और कुप्रथाओं का प्रचलन हमारी संवेदनशीलता को खुलेआम चुनौती देने लगा है। साइंस व टेक्नॉलोजी ने कन्या-वध की सीमित समस्या को अल्ट्रासाउंड तकनीक द्वारा भ्रूण-लिंग की जानकारी देकर, समाज में कन्या भ्रूण-हत्या को व्यापक बना दिया है। दुख की बात तो यह है कि शिक्षित तथा आर्थिक स्तर पर सुखी-सम्पन्न वर्ग भी यह अतिनिन्दनीय काम करता है।
 
इस व्यापक समस्या को रोकने के लिए गत कुछ वर्षों से  कानून बनाने और इसके रोकथाम के उपाय किए जाते रहे हैं, लेकिन उनमें कोई भी गति नहीं देखी गई। अगले पाँच वर्षों में अगर हम पूरी तरह से भी कन्या भ्रूण हत्या पर रोक लगा दें तब भी इसकी क्षतिपूर्ति करना आसान नहीं होगा।
 
हालांकि, कुछ सकारात्मक कदमों द्वारा इसे हटाया जा सकता है। चिकित्सों के लिये मजबूत नीति संबंधी नियमावली बनाकर,
समाज में लड़कियों को शिक्षा देकर, दहेज प्रथा जैसी बुराईयों से निपटने के लिये महिलाओं को सशक्त बनाकर और आम लोगों के बीच कन्या भ्रूण हत्या जागरुकता कार्यक्रम चलाकर इस अभिशाप को रोका जा सकता है।
 
इसके साथ ही एक निश्चित अंतराल के बाद महिलाओं की मृत्यु, लिंग अनुपात, अशिक्षा और अर्थव्यवस्था में भागीदारी के संबंध में उनकी स्थिति का मूल्यांकन कर सकते हैं।’बेटियां हैं तो कल है’। कन्या भ्रूण हत्या जैसे महापाप को रोकना अतिआवश्यक है नहीं तो भविष्य में हमें इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।
 
 
सुनीता मिश्रा

सुनीता मिश्रा
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