देश में स्वास्थ्य का क्या हाल है यह किसी से छुपा नहीं है। इस बात को प्रत्येक हिन्दुस्तानी भली भांति समझता है। जब दवा-डॉक्टर की मार पड़ती है तो इसका असर बहुत समय तक दिखाई देता है। इसी संदर्भ में अपनी कथा-व्यथा को साझा कर रहे हैं सिद्धार्थ झा
भारत में स्वस्थ्य सेवाएं अभी भी शैशव काल से गुज़र रहा है या फिर अच्छा इलाज़ पैसे वाले तबके तक सीमित है। बीते शुक्रवार श्रीमतीजी की हालत खराब हुई तो एम्स के नेफ्रोलॉजिस्ट ने प्राइवेट वार्ड में अर्जेंट बेसिस पर भर्ती करने का मशवरा दिया। मगर जब वहा पर्ची लेकर पहुंचा तो तारीख मिली 13 अप्रैल की। परेशान होकर कुछ जुगाड़बाजी की तो तारीख मिली 3 हफ्ते बाद की। मानो मरीज़ के लिए नही हॉलिडे के लिए होटल बुक करवा रहा हूं।
खैर मैंने तुरंत अपने उसी प्राइवेट हॉस्पिटल में लौटने का निर्णय लिया जहां वो पिछले 8 माह में तीन बार भर्ती हुई हैं और हर बार में वहां न जाने की कसम खाता हूं। आज 5 दिन हो गए इसी कमरे में, इसी बिस्तर पर। अब स्वास्थ्य बेहतर है। देखें अभी कब तक अस्पताल का मीटर चलता है।
खैर मुद्दे पर आते हैं। आम बजट में इस बार जन साधारण की दृष्टि से अनेक प्रयास किये गए हैं। मसलन जनऔषधालय और एक लाख की बीमा योजना। मगर इन सब के बावजूद बहुत-सी समस्याएं वास्तविकता के धरातल पर विद्यमान है। मसलन भ्रष्टाचार और कामचोरी। हर बार बजट में भारी भरकम आंकड़ा स्वास्थ्य सेवाओ पर खर्च किया जाता है। लेकिन क्या वास्तव में वो पैसा हर जरूरतमंद तक पहुँचता है और दूसरी बात स्वास्थ्य और शिक्षा आधारभूत जरूरत है, किसी भी आदमी के लिए। स्वास्थ्य बीमा ने एक विकल्प दिया है मध्यम वर्ग को लेकिन वो भी कितना महंगा है और कितने नियम कानून है। हम सभी जानते हैं। सरकार का सारा बजटीय कोष खर्च होता है अस्पतालों की इमारतों,उनके रख-रखाव,वेतन और मशीनरी की खरीद फरोख्त पर। लेकिन क्या आपको लगता है उनका सही मायने में फायदा जनता को मिलता भी है। अगर मिलता तो यूपी, बिहार, झारखण्ड, बंगाल सहित पूरे राज्यों की भीड़ दिल्ली के अस्पतालो में नही मिलती। हाल में सफदरजंग में किडनी प्रत्यारोपण की अत्याधुनिक मशीन आयी है जिसमें मानवीय चूक की आशंका न के बराबर है और वो पहले जहां सिर्फ 75 हज़ार की मामूली कीमत में प्रत्यारोपण करते थे, अब मुफ़्त में करने को तैयार है लेकिन आपको अचरज होगा लोग करवाने को तैयार नहीं!
एम्स में 3 साल का इंतज़ार या निजी अस्पताल में 10 लाख ज़मीन बेचकर दे देंगे लेकिन ऐसे अस्पतालों में नही जाएंगे जहां भरोसा न के बराबर हो। कारण स्पष्ट है। कर्मचारियों या डॉक्टर्स का रवैय्या। क्योंकि अपनी ही जान से क्यों खेलना चाहेगा कोई। इसलये इस तरह से धन का दुरूपयोग इन मदो में बंद होना चाहिए, क्योंकि ऊँची ईमारत और अत्याधुनिक मशीन बेहतरीन सेवा देने की कसौटी नही है। देश के अन्य भागों का अंदाज़ा आप स्वयं लगा सकते हैं। स्वास्थ्य सेवाओं को अगर सुधारना है तो शुरूवात से शुरू करना होगा और बेहतर नीतिओ के आलोक में सरकार को कोई ठोस पहल करनी होगी। क्योंकि ये सरासर धन का दुरूपयोग है। मान लीजिये सरकार प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 10,000 रुपये खर्च करती है तो क्यों न उस व्यक्ति के खाते में ये धन जाए या निजी अस्पतालों को इलाज़ के लिए वो धन देकर प्रोत्साहित करे या स्वास्थ्य बीमा के जरिये लोगों के स्वास्थ्य का उचित प्रबंधन किया जाए।
अब इस सेवा का दूसरा पहलू भी देखें सरकार की नीतियों या गैरवाजिब नीतिओ की वजह से अस्पताल खोलने के लिए दर्जन भर एजेंसियों से स्वीकृति लेनी होती है और वाज़िब-सी बात है जो मैदान में बड़े खिलाडी हैं वहीं इन कागजी कार्रवाई को पूर्ण कर पाते हैं। सस्ती ज़मीन और तमाम मापदंडो पर वो खरा उतरते हैं और अस्पताल को किसी कारखाने या फायदेमंद बिज़नेस मॉडल पर चलाते हैं। गरीबों के लिए 10 -20बेड की खानापूर्ति करके। जबकि ज्यादातर गरीबो के बेड खाली ही रहते हैं। अगर कोई अच्छा डॉक्टर या कुछ लोग सहकारिता के आधार पर या कम लागत में अच्छा अस्पताल खोलना चाहे तो उनके लिए बेहद सीमित अवसर हैं। ट्रस्ट या एनजीओ बनाकर ही आप ये काम कर सकते हैं। देश में ज्यादातर बड़े अस्पताल ट्रस्ट की आड़ में ही ये धंधा कर रहे हैं। इन अस्पतालों में किसी बेड, कमरे या मरीज़ की होने वाली जांचों की अधिकतम कीमत क्या हो इस पर किसी का बस नही है। वो अस्पताल की मनमर्ज़ी पर है क्योंकि मरीज़ और मुर्गे में कोई ख़ास फर्क नही है इन निजी अस्पतालों के लिए। अस्पताल का कोई बेड खाली न हो इस मनो वैएज्ञानिक दबाव की वजह से बेवज़ह मरीज़ों को रखा जाता है। यहाँ तक की मरे हुए व्यक्ति को भी icu या वेंटीलेटर पर 3-4 दिन तक रखा जा सकता है। गौर कीजियेगा पिछले 10 सालों में कितने नामी-गिरामी अस्पतालों का लाइसेंस रद्द हुआ है। मुझे तो याद नहीं है कि एक भी अस्पताल का लाइसेंस रद्द हुआ होगा। ज्यादातर पूंजीपतियों का दखल सत्ता के गलियारों तक होता है और इसमें पिसता है आम आदमी।
निजी अस्पतालों का एक और चेहरा भी है। अगर कोई मरीज़ स्वास्थ्य बीमा लाभ का कार्ड लेकर आता है तो उसके लिए उसकी बिलिंग और ज्यादा लंबी चौड़ी होती है इस मानसिकता के साथ की पैसा तो कम्पनी देगी। इससे भी स्वास्थ्य बीमा कंपनिया काफी हतोत्साहित होती हैं। इसलिए जरूरी है की स्वास्थ्य के छेत्र में आम लोगों को आम गरीबों को इसका फायदा पहुँचाने के लिए किसी नए नीति पर काम किया जाए। जिससे अस्पताल के बाहर इलाज़ के अभाव में कोई गरीब इंसान दम न तोड़े। इतिहास गवाह है कि ज्यादातर लोग सही समय पर सही इलाज़ न मिलने के कारण अपनी जान गंवा बैठते हैं। अफ़सोस की बात यह है कि मौजूदा व्यवस्था खामियों का शिकार है और जनता के टैक्स का दुरूपयोग आंखमूंद कर हो रहा है।
अंत में मैं यहीं कहना चाहता हूं कि भारत सरकार कोई ऐसी एकीकृत योजना बनाएं जहां पर स्वास्थ्य संबंधी सभी समस्याओं के बारे में सुनवाई हो सके। वर्तमान में स्वास्थ्य के नाम पर न जाने कितने मंत्रालय, विभाग, कार्यालय काम कर रहे हैं जिसके कारण आम आदमी अपनी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को सही तरीके से सरकार के सामने रख नहीं पाता है।
1 comment
simple steps..
1.take volunteers youths ..pay them and train in paramedical …for village health centres.
2.compulsory 24 hrs doctors wth all facility and sound allowance. to attract them to villages..
3.basic first aid and health info…to be provided to villagers..