कोविड-19 के बहाने विकास के विविध स्वरूपों पर चर्चा शुरू हो गई है। प्रकृति केन्द्रित विकास को अपनाने पर जोर दे रहे हैं भारतीय जीवन-दर्शन को जीने वाले वरिष्ठ चिंतक के.एन.गोविन्दाचार्य
नई दिल्ली/ एसबीएम विशेष
देश कोरोना संकट के दौर में है। देशवासियों ने कष्ट सहन किया है, धीरज का परिचय दिया है। समाज ने सरकार का साथ दिया है। ऐसे में कोविड-19 ने विकास के बारे में हमें सोचने पर मजबूर कर दिया है। कोविड ने हमें तमाम तरह की शिक्षाएं दी है। उन्हें इन बिन्दुओं में समझा जा सकता है।
- जीवन मूल्यवान है, धन-दौलत, ऐश्वर्य नहीं।
- भोजन, स्वास्थ्य, सुरक्षा विकेन्द्रित आधार पर ही ठीक होगा।
- विकेन्द्रित पीठिका पर विविधता पूर्ण प्रयोग आगे के लिए जरुरी है।
- कृषि, गोपालन, वाणिज्य त्रिसूत्री आधार ही स्वावलंबी विकेन्द्रित राज्य –व्यवस्था और आर्थिक व्यवस्था के लिये आवश्यक है।
कोविड-19 के इस दौर में देशवासियों ने बहुत कष्ट सहन किया है। इसके लिये सरकार, समाज दोनों बधाई के पात्र हैं। इस संकट में अर्थव्यवस्था भी घायल हुई है। वापस पटरी पर लाने मे कितना समय लगेगा यह देखना है।
कोरोना संकट से गुजरने में समाज को कुछ बातें फिर से याद आई है-
- धन-दौलत, सुविधा, ऐश्वर्य से ज्यादा महत्वपूर्ण है जीवन।
- एक विषाणु परमाणु पर भी भारी पड़ सकता है।
- मानव केन्द्रित विकास की संकल्पना और बाजारवाद अनिष्टकारी है।
- भारत के नजरिये से विश्व एक बाजार नही है, वह एक परिवार है।
- विकास को मानव केन्द्रित से उठकर प्रकृति केन्द्रित होना चाहिए।
- जमीन, जंगल, जानवर के अनुकूल जीवन और जीविका ही हितकारी है।
- पर्यावरण, पारिस्थितिकी अपने को सुधार सकती है बशर्ते कि मनुष्य गड़बड़ न करे।
इन बातों को ध्यान में रखकर ही भारतीय समाज जीवन की रचना हुई है। परिवार की चेतना विस्तार ही ग्राम, क्षेत्र, प्रदेश, देश-दुनिया, उसके परे भी सृष्टि का आधार चेतना का विस्तार है। उस पर परस्परानुकूल जीवन जीने का विज्ञान गठित हुआ। तदनुसार भारत शर्तों का नही संबंधों का समाज बना। सभी मे एक, और एक मे सभी का दर्शन प्रस्तुत हुआ।
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भारतीय जीवन व्यवस्था का महत्वपूर्ण आधार बना है – कृषि, गोपालन, वाणिज्य का समेकन तदनुकूल राज्य-व्यवस्था, अर्थव्यवस्था, तकनीकी, प्रबंधन विधि आदि उत्कांत (evolve) हुई। प्रकृति में परमेश्वर का दर्शन हुआ।
भारतीय समाज व्यवस्था संचालन में वाणिज्य की विशेष भूमिका रही है। भारतीय समाज, शर्तों पर नहीं संबंधों पर आधारित समाज है। केवल मनुष्य के बीच नहीं पशु-पक्षी,कीट-पतंग, वृक्ष, वनस्पति से भारतीय मन संबंध जोड़ता है। भगवान को भी बाल रूप में दर्शन कर लेता है। समदर्शी भाव का भारतीय चित्त पर संस्कार है। इन संबंधों का आधार है – स्वतिमैक्य एवं व्यापक अर्थों मे धर्म की अवधारणा। इसके कारण व्यापार पर कर्त्तव्य, दायित्व पक्ष निर्णायक रूप से हावी रहा है। येन-केन प्रकारेण सत्ता या धन प्राप्ति को समाज में आज भी अच्छा नही माना जाता। भारत के लोक मूल स्वभाव में ये विधि निषेध गहराई से अंकित है।
इस परंपरा पर हथियारवाद, सरकारवाद, बाजारवाद ने बहुत चोट पहुचाई है। पूंजी के प्राबल्य ने संवेदनशीलता, नैतिकता पर गंभीर चोट पहुंचाई है। बाजारवाद के विचार से तो पूंजी ही ब्रह्म है, मुनाफ़ा ही मूल्य है, जानवराना उपभोग ही मोक्ष है। पिछले लगभग 40 वर्षों से बाजारवाद का हमला तेज हुआ। संवेदनशीलता, नैतिकता को चकनाचूर करने की कोशिश हुई। पूतना के रूप मे विश्व व्यापार संगठन के नीति नियमों को, पेटेंट क़ानून को, सामाजिक एवं परिस्थिति की संकेतकों का उपयोग किया गया।
तकनीकी के द्वारा मानवीय संबंधों की संवेदनशीलता की उष्मा को बुझाया जा रहा है। तकनीकी के विधि निषेध की बिना विचार किये स्वीकृति ने बेरोजगारी बढ़ाया, पारीस्थितिकी, पर्यावरण के लिये विनाशकारी हुआ, शहरी-ग्रामीण, अमीर-गरीब, पुरुष-स्त्री, आदि अनेक स्तरों पर विषमता बढ़ी|
Post industrial society से knowledge based society बनने के चक्कर में हम तकनीकी का शिकार बन रहे है। विख्यात लेखक हेरारी ने भी पुस्तक Homosapianes में कहा कि आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस, रोबोटिक्स, बायोटेक, जेनेटिक इंजीनियरिंग के बेतहाशा और अनियंत्रित वैश्वीकरण से मानव के ही खारिज होने का ख़तरा बढ़ गया है। आखिर वैश्विक व्यवस्था को संचालित रखने के लिए कितने कूल मनुष्यों की जरुरत पड़ेगी सरीखे सवाल उठने लगे है। मानवता और प्रकृति दोनों संकट में है। भारत के खुदरा व्यापार को बेमेल प्रतियोगिता मार रही है। सबसे ताजा चुनौती तो फेसबुक और जिओमार्ट से मिल रही है। भारत में खुदरा व्यापार में 5 से 10 करोड़ तक की संख्या लगी हुई है। खुदरा व्यापारियों ने मेट्रोमैन, वालमार्ट, मानसेंटो का आधा-अधूरा सामना किया है। इस प्रारूप पर सवाल, सुधार, सुझाव अनुभव अपेक्षित है।
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यह सोच सही है। अपितु विश्व स्तरपर जो प्रश्न उभर रहे हैं; अनेक कारणोंसे आजकी यह स्थिती निर्माण हुयी है। अधिकतम धन, भौतिक सुविधाएँ प्राप्त करनेका अपूरणीय अट्टहास, “मैं”, “हम” पर हावी हो गया है, अधिकाधिक भूमिपर अपना अधिकार बनाये रखनेकी हवस, धार्मिक श्रेष्ठत्वका आत्यंतिक दुरभिमान, विषयलोलुपता औरभी अनेक अवांछित बातें है जो आज विश्वभरमें समाज मनका अटूट हिस्सा बन गयी हैं। कोविड-19 एक बडी सीख यह दी है कि दैनंदिन जीवन में हम कितनी अनावश्यक बातें/चीजें करते रहते थे; वे वस्तुतः आवश्यक नहीं थी। किंतु प्रकृति आधारित व्यवस्थाकी पुनर्स्थापना होना बिलकुलही सहजसाध्य नहीं है। विश्वभरके समाजमनमें यह भाव जगाना कि हम इस रास्तेपर चलें यह भाव जगाना होगा। समाजका लक्षणीय हिस्सा इसका अनुकरण कर रहा है, स्वस्थ जीवन जी रहा है; यह बात उर्वरित समाजने अनुभव करनी चाहिये। कोविड-19 की देन दुनियाको मिली है; इसके पीछे भी उपरोक्त कारण हैं। 1918 की महामारी से हम कुछ सीखें, परन्तु उस सीख का जीवन जीने के लिये कुछ उपयोग नहीं कर पायें।विश्व के 200 के करीब राष्ट्रोंमें अपनी अपनी संस्कृति (जो भी है) अनुसार जी रहे समाज को प्रकृति आधारित जीवन अपनाने को उद्युक्त करना “भगीरथ प्रयास” सेही हो पायेगा। विश्व व्यापार संघठन, शस्त्रास्त्र स्पर्धा, विभिन्न कारणोंसे बढ रहा “क्रूरता की सारी हदें” उल्लंघन करनेवाला आतंकवाद; और इन समस्याओंपरही जिनकी आजीविका है वे समाजघटक इस राह पर आनेवाली चुनौतियाँ हैं।