बी कृष्णा नारायण
त्रेता युग में जो लड़ाई दो प्रदेशों के बीच रही और द्वापर आते-आते वही लड़ाई प्रदेश से निकल कर परिवार में प्रवेश कर गई, उसी का कलयुग में परिवार से निकलकर व्यक्ति के भीतर ही प्रवेश हो चुका है। जहाँ त्रेता में अंधकार और प्रकाश को बड़ी सरलता से पृथक किया जा सकता है, वहीं द्वापर आते-आते इसका पृथक्करण जटिल होता गया। अब कलयुग में अंधकार और प्रकाश का पृथक्करण तो असंभव सा जान पड़ता है। त्रेता में सूर्यवंशी राम ने मार्ग दिखाया, द्वापर में चंद्रवंशी कृष्ण ने राह की पहचान कराई।
कलयुग में कौन ?
जरूरत है आत्मावलोकन की। ठहर कर सिंहावलोकन करने का। स्वर को पहचानने का। पहचानने का ही नहीं बल्कि स्वर को साधने का भी। अब स्वर साधना के रूप में सबके अपने अपने राम (सूर्य) और अपने-अपने कृष्ण (चंद्र) हैं सूर्य और चंद्र, इनका आसरा लेकर हम अपनी काया को निरोगी बना सकते हैं। कहते हैं देहान्तर के समय यदि प्राण दाईं नासिका से बाहर निकले तो व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त करता है और यदि बायीं नासिका से निकले तो व्यक्ति पुनः इस संसार में वापस आता है।
स्वर शास्त्र क्या?
क्या है यह स्वर शास्त्र जो जीवित अवस्था में आपको न सिर्फ गतिमान रखता है अपितु आरोग्य भी प्रदान करता है और जीवन के बाद की गति का भी नियंता होता है? इसको जान लेने से बहुत सारी शारीरिक व्याधियों से, अनेकानेक बीमारियों से हमें मुक्ति मिल जाती है। आइये इसको विस्तार दें-
जीवनप्रदायी प्रवाह-
‘यथ पिंडे प्राण तथ ब्रह्माण्डे वायु’
मनुष्य की नासिका में जो दो छिद्र हैं। उनमे से एक छिद्र से वायु का प्रवेश और दूसरी छिद्र से वायु का निकास होता है। सांसों के प्रवाह को लेकर ऋषियों ने कुछ महत्वपूर्ण बातों की पुनरावृत्ति पायी। जब एक छिद्र से वायु का प्रवेश और निकास हो रहा होता है, तब दूसरा छिद्र स्वतः ही बंद हो जाता है। वायु के इस आवन और निष्कासन की क्रिया स्वर क्रिया कहलाती है। हम जिसे सांस कहते हैं, वही स्वर है। हर दिन सूरज के उगने के साथ-साथ ही स्वर का उदय भी होता है जो लगभग एक घंटे चालीस मिनट में बदलता रहता है। एक स्वस्थ व्यक्ति एक मिनट में पंद्रह बार साँस लेता है अर्थात एक घंटे में 900 बार और 24 घंटे अर्थात एक दिन में 21600 बार। इससे अधिक सांस लेना या इससे कम सांस लेना जब होता है तो यह रोग का लक्षण है। एक नासिका से स्वास का बदलकर लगभग एक घंटे चालीस मिनट में दूसरी नासिका से प्रवाहित होना कई बातों पर निर्भर करता है। वर्तमान समय में बढ़ते प्रदूषण के बीच यह समय दो घंटे का हो सकता है। इससे ज्यादा समयावधि निश्चित तौर पर शरीर में रोग की उपस्थिति का द्योतक है।
स्वर के मुख्यतः तीन प्रकार
पिंगला स्वर-दाहिनी नासिका से जब वायु का प्रवाह होता है तब इसे सूर्य स्वर या पिंगला नाड़ी स्वर कहते हैं। इसे सूर्य नाड़ी भी कहते हैं। इस स्वर की तासीर गर्म होती है। ‘आदित्यो ह वै प्राणो’। इसमें जीवनप्रदायिनी चेतना शक्ति की प्रधानता है। चेतना शक्ति की उपस्थिति की वजह से जीवन में नवीन स्फूर्ति आ जाती है। जठराग्नि प्रज्ज्वलित हो जाती है जिसके परिणाम स्वरूप अन्न का शरीर में पाचन सुव्यवस्थित तरीके से होता है। अन्न का पाचन सही तरीके से होने की वजह से नींद अच्छी आती है। किसी भी कार्य को करने का उत्साह बना रहता है। सूर्य स्वर, शरीर में पञ्च प्राणों (प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान) को स्पंदित करने का कार्य करती है। इन प्राणों का सही प्रवाह व्यक्ति को तेजोमयी और मेधावान बनाता है।
सूर्य स्वर
जिस समय सूर्य स्वर चल रहा हो उस समय प्रशासनिक कार्य, न्यायिक कार्य, राजनैतिक कार्य अदि करने से उसमें मनोवांछित सफलता प्राप्त होती है। दाहिनी नासिका से प्रवाहमान सूर्य स्वर को ब्रेन का बायां भाग नियंत्रित करता है अर्थात जब यह स्वर चल रहा होता है तब ब्रेन का बायां भाग क्रियाशील हो जाता है। यह व्यक्ति को तार्किक और बहिर्मुखी बनाता है। चीजों को संश्लेषित और विश्लेषित करने की क्षमता प्रदान करता है। ब्रेन का बायां भाग अहम् का भाव होता है। सूर्य स्वर के प्रवाह में अनियमितता आने के कारण शरीर में गर्मी का प्रकोप बढ़ जाता है। व्यक्ति का अहम् विचलित हो जाता है जिससे व्यक्ति में मानसिक रुग्णता का प्रकोप होता है। मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाता है। मैं कौन हूँ, इसका भान उसे नहीं रहता।
इड़ा स्वर
बायीं नासिका से जब वायु का प्रवाह होता है तब इसे चंद्र स्वर या इड़ा स्वर कहते हैं। इसे चंद्र नाड़ी भी कहते हैं। इस स्वर की तासीर ठंढी होती है। ‘रयिरेव चन्द्रमा’। शरीर को पुष्ट करनेवाली भूतों की इसमें प्रधानता है। स्थूल शरीर का पोषण करने का कार्य चंद्र स्वर द्वारा होता है। शरीर में मांस, मेद आदि स्थूल तत्वों की समुचित देखरेख इस स्वर के अधिकार क्षेत्र में आता है। इस स्वर के प्रभाव से व्यक्ति की मांसपेशियों की तनाव समाप्त हो जाती है। बायीं नासिका से प्रवाहमान चंद्र स्वर को ब्रेन का दाहिना भाग नियंत्रित करता है अर्थात जब यह स्वर चल रहा होता है तब ब्रेन का दाहिना हिस्सा क्रियाशील हो जाता है। दाहिने हिस्से के अधिकार क्षेत्र में सत्य, प्रेम और करुणा है। परिणामस्वरूप व्यक्ति भावनत्मक रूप से मजबूत तो होता ही है साथ ही साथ सत्यनिष्ठ होता है और प्रकृति में हर एक के प्रति करुणा और प्रेम का भाव रखता है। चंद्र स्वर की जब प्रधानता हो तब वह समय रचनात्मक कार्यों को करने के लिए सर्वश्रेष्ठ समय होता है। प्रकृति से जुड़ने का बेहतरीन क्षण होता है। यह स्वर व्यक्ति को अंतर्मुखी बनाता है। साथ ही साथ उन्हें शुभ परिस्थिति या अशुभ परिस्थिति का समय से पूर्व ही अंदेशा हो जाता है। इस स्वर के विचलन से व्यक्ति के शरीर में ठंढ का प्रकोप व्याप्त हो जाता है। शरीर की चयापचय की प्रक्रिया बाधित हो जाती है। परिणामस्वरूप व्यक्ति आलस और थकन महसूस करता है। व्यक्ति अपच, अनिद्रा, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, भय आदि तमाम रोगों से ग्रसित हो जाता है।
सुषुम्ना नाड़ी
कभी कभी दोनों छिद्रों से एक साथ सांसों का प्रवाह शुरू हो जाता है। जब दोनों नासिका से वायु का प्रवाह होता है तब इसे उभय स्वर या सुषुम्ना नाड़ी, सुषुम्ना स्वर कहा जाता है। इस समय प्राणवायु का संचार स्वछंद गति से सम्पूर्ण शरीर में होता है।
जब सुषुम्ना स्वर चल रहा हो तब का समय ध्यान करने के लिए सर्वश्रेष्ठ समय होता है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से चैत्र शुक्ल तृतीया तक सांसों के आवागमन अर्थात संचार की गति से पूरा वर्ष कैसा बीतेगा, इसका अनुमान लगा लिया जाता है। इन तीन दिनों में सूर्योदय के समय या कहें कि बिछावन छोड़ने के समय चंद्र स्वर, इड़ा नाड़ी का चलना अनुकूल वर्ष का द्योतक है। स्वर की गति में अनियमितता व्यक्ति के रोग ग्रस्त होना दर्शाता है। यहाँ एक सवाल जो स्वतः ही मन में आता है कि हम जो सांस लेते हैं, सूर्य स्वर या चंद्र स्वर के रूप में इसका प्रवाह शरीर के भीतर कहाँ तक होना चाहिए ?? इन साँसों के निकास की प्रक्रिया क्या होनी चाहिए ??
शरीर के केंद्र तक हो प्रवाह
शास्त्र कहता है कि साँसों का प्रवाह शरीर के केंद्र तक होना चाहिए। शरीर के केंद्र का मतलब दिमाग या ह्रदय नहीं बल्कि नाभि से है।
‘यथोर्णनाभि सृजते गृहवते च
यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति
यथा सतः पुरुषातकेशलोमानि
यथाक्षरः सम्भवतीह विश्वम।’
इस मंत्र में मकड़ी के दृष्टान्त द्वारा माता के गर्भ नाल से शिशु का जुड़ना और क्रमिक विकास की चर्चा की गयी है। नाभि को केंद्र बताया गया है। हमारे और परमात्मा से जुड़ाव का पूरा चित्रण है यह औपनिषदीय मन्त्र। सांसों का सहज प्रवाह नाभि तक होना चाहिए। चलते, उठते, बैठते हर वक्त आपकी साँसे नाभि से चले। अगर अभी आप अपनी सांसों पर गौर करें तो पाएंगे कि इसका प्रवाह सीने तक ही है और सीने से ही है।
आपको पहला काम क्या करना है?
श्वास को नाभि से चलाना है। इसके बाद क्या करना होगा? सांसों को उलीचना है। सांस जब छोड़ा जाये तो पूरे वेग से छोड़ना है। कहा जाता है को कोई छह हजार छिद्र हैं हमारे श्वसन यन्त्र में। हम ज्यादा से ज्यादा एक से डेढ़ हजार छिद्रों तक सांस ले पाते हैं। बाकि छिद्र कार्बन-डाईऑक्साइड से ही भरे रहते हैं। हम उन्हें खाली ही नहीं करते। जितना साँस लेना जरूरी है उतना ही उलीचना भी जरूरी है।
सबसे महत्वपूर्ण बात
साँस को लेने और उलीचने के क्रम में केंद्र नाभि है, यह हमेशा याद रखें। सांसों को लेना और छोड़ना-बिना गुरु के घातक हो सकता है क्योंकि उसमे एक व्यवस्था है, अनुशासन है। लेकिन नाभि को केंद्र बनाकर सांसों का आवागमन की जो साधना है इसमें किसी गुरु की दरकार नहीं। अगर आपने इन तीन सूत्रों को समझ लिया, सांसों के नैसर्गिक व्यवस्था को पा लिया, सांसों के माध्यम से स्वयं को संयमित और नियमित कर लिया तो आपने आरोग्यता का मूल मन्त्र पा लिया। फिर चाहे कैसी भी बीमारी हो, आप देखेंगे कि आप उससे प्रभावित नहीं होंगे, न ही आप मानसिक अवसाद से घिरेंगे और न ही आपको क्रोध आएगा। तो आइये हम सब साथ मिलकर प्राणसाधना करें। अपनी-अपनी सांसों को जानें। कलयुग में अपना-अपना राम (सूर्य) और अपना-अपना कृष्ण (चंद्र) पाएं। शरीर के भीतर गहरे पैठे अंधकार से मुक्ति पाएं। अपनी लड़ाई खुद ही लड़ें। तम पर विजय पाएं, स्वस्थ रहें और परम आनंद में रहें। परम के साथ लय स्थापित करें।