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दक्षिण भारत की ज्ञान-परंपरा को उत्तर-भारत में बिखेर रहे हैं न्यूरो सर्जन डॉ.मनीष कुमार

एक चिकित्सक  की भूमिका को  सार्थकता प्रदान कर रहे डॉ. मनीष  का जीवन आम लोगों के  साथ-साथ उन तमाम विद्यार्थियों के लिए प्रेरक है जो  चिकित्सक बनना चाहते हैं।

आशुतोष कुमार सिंह
मानव तन में जन्म लेना और इस जन्म को सार्थकता प्रदान करना दो अलग-अलग बात है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनको खुद से और सिर्फ खुद से ही मतलब रहता है। अपने लिए जीना और अपने लिए ही मर जाना। इस तरह की जिंदगी एकरेखीय होती है। वही दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो जीवन को सार्थकता प्रदान करने के लिए संघर्ष करते हैं। समाज के लिए जीते हैं। समष्टिगत हित ही उनके लिए सर्वोपरी होता है। जीवन के तमाम झंझावतों को खुशी-पूर्वक सहते हैं। ऐसे ही एक चिकित्सक हैं डॉ. मनीष कुमार।

बिहार के समस्तीपुर जिला के रामपुर विषुन (छोटी गोही) गांव में एक किसान परिवार के घर जन्में डॉ. मनीष कुमार की  हाइ स्कूल तक की पढ़ाई गांव के ही प्राथमिक एवं उच्च विद्यालय में हुई। उनके पिता श्री हरेकृष्ण ठाकुर खेती-किसानी करते थे। उनकी माँ सुशीला देवी जी सरकारी स्कूल में हिन्दी की शिक्षक हैं। इसका असर भी उनके जीवन पर पड़ा। पिता की सामाजिकता एवं माता जी का अकादमिक बैकग्राउंड ने बालक मनीष को गांव की मिट्टी से परिचय कराया। लोगों के दुःख दर्द को महसूसने का माहौल दिया। बालक मनीष ने अपनी इंटरमीडिएट की परीक्षा लंगट सिंह कॉलेज मुजफ्फरपुर से पूरी की। इस कॉलेज का भी अपना साहित्यिक एवं ऐतिहासिक महत्व रहा है। लंगट सिंह एक व्यवसायी होने के संग-संग खुद स्वतंत्रता सेनानी भी थे। अंग्रेजियत की मानसिकता को दूर करने के लिए ही उन्होंने इस कॉलेज की नींव रखी थी। इस कॉलेज में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सहित तमाम नामचीन लोग शिक्षक रह चुके हैं। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ने मनीष कुमार के जीवन को राष्ट्र के प्रति अनुरागी बनाया। सामाजिक सरोकारों से जुड़े रहने  के कारण आइएसी की परीक्षा में मनीष कुमार को महज 57 फीसद अंक प्राप्त हुए। कम अंक आने का नुक्सान यह हुआ कि मनीष का एएफएमसी (आर्मी कॉलेज) पुणे में प्रवेश नहीं हो सका। 60 फीसद आता तो उनका दाखिला आर्मी कॉलेज में हो गया होता और आज के डॉ. मनीष संभवतः कैप्टन मनीष या कर्नल मनीष के नाम से जाने जा रहे होते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। शायद ठीक भी हुआ।

उसके बाद बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) बनारस में बीएससी में दाखिला मिल गया। अभी साल भी नहीं पूरा हुआ कि मनीष का सेलेक्शन ऑल इंडिया प्री मेडिकल टेस्ट (एआईपीएमटी) में हो गया। पूरे भारत में 1200 रैंक आया। अच्छा रैंक आने के कारण एमबीबीएस पाठ्यक्रम हेतु उनका दाखिला मदुरई मेडिकल कॉलेज में हो गया। उत्तरभारत के लड़के दक्षिण भारत जाना पड़ा। यह जगह भी कम ऐतिहासिक नहीं है। आज भी मदुरई की पहचान यहां के मिनाक्षी मंदिर के कारण होती है। साथ ही मदुरई में स्वामी विवेकानंद का भाषण भी हुआ था। देश के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना भी यही घटी। यानी महात्मा गांधी ने मदुरई की सभा में ही एक ही धोती पहनने और ओढ़ने का संकल्प लिया था। इस ऐतिहासिक तथ्यों के साथ मनीष की एमबीबीएस की पढ़ाई शुरू हुई। पांच वर्ष में 19 लिखीत एवं 13 प्रैक्टिकल पीरक्षा उतीर्ण करने के बाद एमबीबीएस की डिग्री प्राप्त हो सकी।

डॉ. मनीष के पिताजी की हार्दिक इच्छा थी कि उनका बेटा डॉक्टर बनकर सबसे पहले गांव की सेवा करे। उसके बाद कही और जाए। समाजसेवी पिता की बात की इच्छा के अनुरूप डॉ. मनीष एमबीबीएस की पढ़ाई के बाद सबसे पहले अपने गांव आए। यहां पर दो सालों तक गांव के लोगों की सेवा की। इसी बीच पीजी इंट्रेंस की तैयारी करते भी करते रहे। पीजी का एंट्रेंस पास करने के बाद अपोलो चेन्नई में रख लिया गया। पांच वर्ष का यह भी कोर्स था। 2015 तक चेन्नई के अपोलो एवं एसआरएम जैसे अस्पतालों में काम करने के बाद देश की राजधानी दिल्ली की ओर प्रस्थान किए।

वैसे भी दिल्ली की पुरानी आदत है, वह आसानी से किसी को नहीं अपनाती है। उसके धैर्य एवं हूनर का पूरा परीक्षण करती है। ऐसा ही डॉ. मनीष के साथ भी हुआ। शुरु के दिनों में उन्हें सोनीपत, रेवाड़ी, फरीदाबाद, रोहतक, पानीपत, गन्नौर, भिवाड़ी स्थित विभिन्न अस्पतालों में ब्रेन एवं स्पाइन की सर्जरी किए। वर्तमान समय में वे दिल्ली-एनसीआर के गुड़गांव एवं द्वारका स्थित अस्पतालों में अपनी सेवाए दे रहे हैं।

इस बीच स्वस्थ भारत अभियान के साथ जुड़कर वे देश के लोगों को न्यूरों एवं स्पाइन की समस्याओं पर एडवोकेसी का काम भी कर रहे हैं। स्वस्थ भारत अभियान के कहने पर डॉ. मनीष ने अपने जुरीडिक्शन से बियॉड जाकर गरीब मरीजों की मदद की है। वर्तमान में स्वस्थ भारत (न्यास)  द्वारा चलाए जा रहे स्वस्थ भारत अभियान के मार्गदर्शक के रुप में अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वहन भी कर रहे हैं।
एमबीबीएस की पढ़ाई में हुए खर्च के बारे में डॉ. मनीष कहते हैं कि, उन दिनों सरकारी कॉलेजों में पढ़ने में बहुत ज्यादा खर्च तो नहीं होता था। 1000 रुपये से भी कम परीक्षा शुल्क होता था। लेकिन रहने में जरूर 3 हजार रुपये महीने का खर्च था। यह खर्च भेज पाना भी मेरे पिताजी के लिए आसान काम नहीं था। सामजिक सरोकारों पर भी पिताजी खुलकर खर्च करते रहे हैं। इसलिए उनपर जिम्मेदारियां भी बहुत रही है।
न्यूरो सर्जरी के अनुभवों को साझा करते हुए डॉ. मनीष कहते हैं कि सिर्फ डिग्री ले लेना पर्याप्त नहीं होता है। हमें खुद को उस स्तर तक तैयार करना होता है,  जब हम खुद ब्रेन को खोलकर उसे ठीक से हैंडल कर सकें।  एमबीबीएस के शुरु के डेढ़ साल मुर्दे पर प्रैक्टिकल करना होता है। इससे कंफीडेंस बढ़ता है। किसी भी सर्जन के लिए हिलते-डूलते मरीज की सर्जरी करना आसान नहीं होता है या यू कहें  कि आउट ऑफ कोर्स हो जाता है। हालांकि कई बार सिर्फ विशेष अंग को सून कर भी सर्जरी की जाती है। ऐसा मैंने भी कई बार किया है। लेकिन इसके लिए मरीज एवं चिकित्सक के बीच हेल्दी संवाद जरूरी है। वैसे भी आजकल एनेस्थिसिया की बेहतर व्यवस्था होने के कारण कठीन से कठीन सर्जरी करने में भी सहुलियत हुई है। डॉ. मनीष कहते हैं कि मेरा प्रमुख ध्येय यह होता है कि मरीज का ईलाज सही तरीके से हो। साथ ही उस पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ भी न पड़े, इस बात का विशेष ध्यान रखता हूं।
शायद यही कारण है कि बिहार की गलियो से निकलने वाले डॉ. मनीष कुमार दक्षिण भारत में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के बाद उत्तर-भारत के मरीजों के बीच लोकप्रिय होते जा रहे हैं। दिल्ली-एनसीआर ने भी उन्हें अपना लिया है। यह सब इसलिए संभव हो पाया है कि वे अपने मरीज के साथ ईमानदार हैं। उसकी जरूरत एवं आर्थिक स्थिति का भरपुर ख्याल रखते हैं। मौजूदा व्यवसायिक चिकित्सा तंत्र में मरीजों को मरीज की तरह महसूस करने वाले चिकित्सको आभाव होता जाता रहा है। इस अभाव को डॉ. मनीष कम करने में और बेहतर तरीके से अपनी भूमिका निभाएं एवं स्वस्थ भारत के सपने  को साकार करने में अपने हिस्से की आहूति प्रदान करें, यहीं कामना करता हूं।
 

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