स्वस्थ भारत मीडिया
काम की बातें / Things of Work चिंतन नीचे की कहानी / BOTTOM STORY

साहब! एड्स नहीं आंकड़ों का खेल कहिए…

भोग-बाजार के विस्तार ने पारिवारिक ढांचे को तहस-नहस कर दिया, संबंध और रिश्तों के अनुशासन को बाजार के हवाले कर दिया और जरूरतों को वस्तुवादी बना दिया। फिर हम खुद भी बाजार के लिए एक वस्तु बन गए! वर्तमान में बीमारियों में सबसे बड़े ब्रांड के रूप में एड्स की पहचान है! पहले भोगी बना कर बाजार ने कमाई की और अब उसके दुष्परिणाम को बेच कर बाजार अपना विस्तार पा रहा है। बाजार-विस्तार को सूक्ष्मता से निरीक्षण करने पर मालूम चलता है कि बाजार ने हमें बीमारू किस तरह से बना दिया है।

एड्स के अर्थशास्त्र को समझने की जरूरत है...
एड्स के अर्थशास्त्र को समझने की जरूरत है…

भारतीय सांस्कृतिक चेतना का विस्तार सुखानुभूति पर आधारित रही है। सुख की खोज भारतीयों को अध्यात्म से जोड़ता है। जब मन-मस्तिष्क अध्यात्म की सीमा में प्रवेश करता है, तब आप मानवतावादी हो जाते हैं, बल्कि सही मायने में धार्मिक हो जाते हैं। क्या करें और क्या न करें की सीमा को समझने लगते हैं। भारतीयों के इस स्वभाव को आधुनिक बाजार ने बहुत ही सूक्ष्मता से समझा है। हमारे शब्दों के माध्यम से ही वह हमें मात देने की जुगत में है। सुख-खोजी भारतीयों को सुख-भोगी बनाने के लिए बड़े पैमाने पर बाजार ने जाल फैलाया है। ये दोनों शब्द प्रथमदृष्ट्या एक-से ही लगते हैं। इसी भ्रम का फायदा उठा कर बाजार ने सुख को बाजारू बना दिया, एक वस्तु में तब्दील कर दिया, एक आकार दे दिया। जब भाव को कोई आकार मिल जाता है तो स्वाभाविक रूप से हमारी इंद्रियां उस आकार के साथ खुद को जोड़ने के लिए चुंबक की तरह दौड़ी चली जाती हैं। इसी स्वाभाविकता को बाजार ने अपने विस्तार का सबसे सुगम हथियार बनाया और हम अपने भावों को वस्तुपरक स्वरूप देते गए।
आज चारों ओर बाजार का दबदबा है। उसने हमारे मनोभाव को इस कदर गुलाम बना लिया है कि हम उसके कहे को नकार नहीं पाते। वह जो कहता है, वही जीवन-आधार और सुख का मानक हो जाता है! इसी बाजार ने एक बीमारी दी, जिसको वर्तमान में एड्स के नाम से जाना जाता है। इसके लिए बाजार ने बहुत ही शातिर तरीके से सुख-खोजी प्रवृत्ति को सुख-भोगी बना दिया है! भोग-बाजार के विस्तार ने पारिवारिक ढांचे को तहस-नहस कर दिया, संबंध और रिश्तों के अनुशासन को बाजार के हवाले कर दिया और जरूरतों को वस्तुवादी बना दिया। फिर हम खुद भी बाजार के लिए एक वस्तु बन गए! वर्तमान में बीमारियों में सबसे बड़े ब्रांड के रूप में एड्स की पहचान है! पहले भोगी बना कर बाजार ने कमाई की और अब उसके दुष्परिणाम को बेच कर बाजार अपना विस्तार पा रहा है। बाजार-विस्तार को सूक्ष्मता से निरीक्षण करने पर मालूम चलता है कि बाजार ने हमें बीमारू किस तरह से बना दिया है।
भारत में एड्स का पहला मामला सन 1986 में पाया गया था। यह वह दौर था, जब भारत के दरवाजे बाजार के लिए खुलने वाले थे। वैश्विक शक्ति एकध्रुव्रीय होने की कगार पर पहुंच चुकी थी। हुआ भी यही। अगले पांच सालों में सोवियत संघ का पतन हुआ और बाजार-विस्तार की गति और तीव्र हुई। भारत में उदारीकरण के वायरस का तेजी से विस्तार हुआ और सुख-खोजी भारतीयों को सुख-भोगी बनाने का एक बड़ा प्लेटफार्म मिल गया। एड्स नियंत्रण विभाग, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जारी 2013-14 की वार्षिक रिपोर्ट में कहा गया है कि 20.89 लाख लोग एड्स से प्रभावित हैं।
सवा अरब से ज्यादा की आबादी वाले देश में जिस बीमारी से तकरीबन इक्कीस लाख लोग प्रभावित है, उसे रोकने के लिए राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम के तृतीय चरण (2007-12) के दौरान विभिन्न बजटीय स्रोतों के माध्यम से 6,237.48 करोड़ रुपए खर्च किए गए थे और अब चौथे चरण के लिए 13,415 करोड़ रुपए का बजट अनुमोदित हुआ है। इसमें सरकारी बजटीय सहयोग, विश्व बैंक बाह्य सहायता प्राप्त सहयोग और वैश्विक निधि और अन्य विकास साझेदारों के अतिरिक्त बजटीय सहयोग शामिल है। सच्चाई यह है कि विगत अट्ठाईस वर्षों में बाजार ने पहले भोगी बनाया फिर रोगी बनाया और दोनों ही स्थिति में खुद को विस्तारित करने में सफल रहा!
संबंधित खबरें…
…तो हमारे अधिकारी चाहते हैं कि आंकड़ों में एड्स बना रहे !
एड्स का समाजशास्त्र
स्वस्थ सम्बन्धी ख़बरों से अपडेट रहने के लिए आप हमें फेसबुक पर फॉलो कर सकते हैं !!

Related posts

विराट कोहली की सफलता के राज खोलेंगे ब्रेन बिहैवियर एनालिस्ट डॉ.आलोक मिश्रा

Ashutosh Kumar Singh

कोविड-19 संक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील किडनी रोगी

Ashutosh Kumar Singh

चिकित्सकों और स्वास्थ्यकर्मियों के लिए  एकेटीयू ने बनाया सुरक्षा कवच

Ashutosh Kumar Singh

Leave a Comment