नयी दिल्ली। हाल ही स्वास्थ्य मंत्रालय ने 156 एफडीसी या कॉकटेल दवाओं पर प्रतिबंध लगाया था। कहा था कि इनमें चिकित्सीय औचित्य की कमी है, रोगियों के लिए जोखिम हैं और मेडिकली तर्कहीन भी। ऐसा क्रम 23 जुलाई 1983 से चला आ रहा है जब ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट, 1940 की धारा 26 ए के तहत इस तरह का पहला आदेश जारी किया गया था। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि ऐसी दवाएं बाजार में कैसे उतरती हैं जबकि उत्पादक कंपनी को मंत्रालय से परमिशन लेना पड़ता है?
दरअसल उपचार को सरल और दवा को प्रभावी बनाने के लिए फार्मा कंपनियां FDC दवा बनाती हैं। इसमें दो या दो से अधिक दवाओं का संयोजन होता है। मूल रूप से FDC को तपेदिक या एड्स जैसे रोग में चलाया जाता है।
यह भले ही चिकित्सीय तर्क लगे लेकिन यह व्यावसायिक हितों में बदल गया जिसमें रोगियों की परवाह बहुत कम थी। कई कंपनियों ने ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर (DPCO) को दरकिनार करने के लिए एक मूल्य-नियंत्रित दवा को एक ऐसी दवा के साथ जोड़कर एफडीसी बनाना शुरू कर दिया, जो DPCO के जाल से बच जाये। तीसरा कारण रहा प्रतिस्पर्धियों से भरे बाजार में अलग पहचान बनाने की ताकि पैसा वसूल हो। यदि दस दवा कंपनियां एक ही एंटीबायोटिक बेचें तो कीमत अनिवार्य रूप से कम हो जाएगी। दवाओं के संयोजन से कंपनियां एक नए उत्पाद लाकर उच्च कीमतों को उचित ठहरा सकती हैं, भले ही संयोजन के लिए कोई वैध चिकित्सा कारण मौजूद न हो।
लेकिन दवाओं को मिलाना भोजन को मिलाने जैसा नहीं है। दो दवाएं जो पृथक रूप से सुरक्षित हैं, संयुक्त होने पर एक-दूसरे के साथ प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती हैं। यही कारण है कि बिक्री के लिए अनुमोदित होने से पहले FDC का कड़ाई से परीक्षण किया जाना महत्वपूर्ण है।
1978 में एक सरकारी रिपोर्ट में भारत में FDC के बढ़ते संकट को आधिकारिक तौर पर स्वीकार किया गया था। सरकार ने दो प्रमुख उपायों के साथ इसका जवाब दिया। पहला था 1982 में औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम में संशोधन करके धारा 26ए सम्मिलित करना, जिससे स्वास्थ्य मंत्रालय को पर्याप्त चिकित्सीय औचित्य के अभाव वाली दवाओं पर प्रतिबंध लगाने की शक्ति मिल गई। दूसरा उपाय 1988 में विपणन अनुमोदन से पहले FDC सहित सभी दवाओं की सुरक्षा और प्रभावकारिता का परीक्षण करने के लिए नैदानिक परीक्षणों की आवश्यकता शुरू करना।
इन उपायों से समस्या का समाधान हो जाना चाहिए था, लेकिन राज्य दवा नियंत्रकों ने कानून की अनदेखी कर दी। इससे हजारों गैर-अनुमोदित FDC भारतीय बाजार में आ गये। जर्नल ऑफ फार्मास्युटिकल पॉलिसी एंड प्रैक्टिस में प्रकाशित 2023 के एक अध्ययन में बताया गया है कि भारतीय बाजार में एंटीबायोटिक युक्त 239 गैर-अनुमोदित एफडीसी बेचे जा रहे थे, जो भारत में बढ़ते रोगाणुरोधी प्रतिरोध के लिए गंभीर प्रभाव हो सकते हैं।
कानूनन राज्य दवा नियंत्रक केवल उन दवाओं के लिए निर्माण लाइसेंस जारी कर सकते हैं जिनकी सुरक्षा और प्रभावकारिता का मूल्यांकन और अनुमोदन ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (DCGI) द्वारा किया गया है। हालाँकि कई राज्य औषधि नियंत्रक लाइसेंस जारी करके इस आवश्यकता की अनदेखी कर रहे हैं जो अनुमोदित नहीं है।
एक दशक पहले सीबीआई ने यह जांच शुरू की थी कि पुडुचेरी में दवा नियंत्रक ने पांच दवा कंपनियों के लिए एफडीसी को कैसे मंजूरी दी। लेकिन केंद्रीय औषधि निरीक्षक ने कार्रवाई नहीं की। मंत्रालय धारा 26ए के तहत प्रतिबंध जारी करना पसंद करता है, जो मुकदमेबाजी में उलझ जाता है।
अनुमोदन प्रक्रिया में भी पारदर्शिता का अभाव है। पर भारत में दवा नियामकों के लिए पारदर्शिता कभी भी प्राथमिकता नहीं रही है। इसलिए सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति जवाबदेही का दिखावा करने के लिए एफडीसी पर प्रतिबंध लगाने का खेल चलता रहता है।
(दिनेश ठाकुर और प्रशांत रेड्डी के अंग्रेजी में प्रकाशित लेख का संपादित अंश)