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अलग नजरिये से देखना होगा होमियोपैथी को

संत समीर

यह पोस्ट होम्योपैथी के डॉक्टरों को संबोधित है, पर वे भी पढ़ें और समझें, जिन्हें होम्योपैथी पर भरोसा नहीं है। एलोपैथी के वे डॉक्टर भी पढ़ सकते हैं, जिन्हें होम्योपैथी का कुछ मर्म पता है। कुछ बातें ‘स्वामी रामदेव बनाम इंडियन मेडिकल एसोसिएशन’ विवाद पर भी हैं।
शुरुआत एक ताज़ा मामले से कर रहा हूँ। बात यह है कि मेरे एक डिज़ाइनर मित्र हैं अभिषेक श्रीवास्तव। हमारा परिचय यही कोई साल भर पहले हुआ। अभिषेक जी की 8-9 साल की बेटी है। साल-डेढ़ साल से पेट दर्द की समस्या से काफ़ी परेशान थी। कई बार दर्द इतना तेज़ उठता कि स्कूल से बच्ची को घर वापस लाना पड़ता। हफ़्ते-दस दिन में एक-दो बार दर्द हो तो भी जैसे-तैसे कोई सहन कर ले, पर यहाँ तो हाल यह था कि दिन में तीन-चार बार तक दर्द उठ जाता था। एलोपैथी से काम नहीं बना। दुष्प्रभाव की सम्भावना अलग से। किसी की सलाह से अभिषेक जी एक नामी होम्योपैथ के पास पहुँचे। शुरू में लगा कि कुछ आराम हुआ। चार-पाँच महीने के लिए राहत की स्थिति रही, पर दर्द फिर शुरू हो गया। महीनों दवा चलती रही और कोई फ़ायदा नहीं।
अभिषेक जी चूँकि मेरे पुराने परिचित नहीं थे, इसलिए शुरू में मेरे होम्योपैथी ज्ञान के बारे में नहीं जानते थे। जब उन्हें पता चला तो एक दिन उन्होंने अपनी बच्ची की तबीयत के बारे में मुझसे सलाह ली और चल रहे इलाज के बारे में बताया। मैंने बीमारी के लक्षण पूछे और फिर डॉक्टर का पर्चा देखा। आश्चर्य कि बच्ची के कुछ लक्षण एकदम स्पष्ट थे, पर डॉक्टर ने जैसे होम्योपैथी के ‘मिनिमम डोज़’ और ‘सिंगल रेमेडी’ पर भरोसा करने के बजाय एलोपैथी अन्दाज़ में ढेर सारी दवाएँ एक साथ लिख दी थीं। इसे तुक्के वाला इलाज कहते हैं। जब बीमारी का निदान करना मुश्किल हो जाए तो डॉक्टर धैर्य नहीं रख पाते और एक साथ कई-कई दवाएँ लिख देते हैं, ताकि तुक्के से भी कोई एक दवा काम कर जाए और बात बन जाए। पैसा कमाने के चक्कर में डॉक्टर यह भी ध्यान नहीं रखते कि ऐसे इलाज से बीमारी क्रॉनिक हो तो उसका पूरी तरह ठीक हो पाना मुश्किल है।
ख़ैर, अब वे लक्षण बताता हूँ, जिससे किसी साधारण होम्योपैथ को भी दवा का अनुमान करने में परेशानी नहीं होगी। दवा का नाम सार्वजनिक करना इसलिए उचित नहीं है, क्योंकि होम्योपैथी से अनभिज्ञ व्यक्ति की आदत होती है कि वह बीमारी के नाम के आधार दवा का नाम रट लेता है और कई बार फ़ायदे की जगह नुक़सान उठाता है। यहीं पर एलोपैथी और होम्योपैथी के इलाज के तरीक़े में भी अन्तर समझिए। मैं अगर एलोपैथ होता तो बच्ची के पेट में उठने वाले तेज़ दर्द पर ध्यान देता। दवाओं से आराम न मिलता तो कुछ तरह की जाँचें करवाता। लेकिन, मैंने ध्यान इस बात पर दिया कि बच्ची को दिन में जब भी दर्द उठता तो उठता, पर 10-11 बजे के आसपास ज़रूर उठता। उसे खाने में नमकीन, चटपटी चीज़ें पसन्द थीं। होम्योपैथी डॉक्टरों को इतने से बात समझ में आ जाएगी, इसलिए बाक़ी के लक्षणों को लिखने की ज़रूरत नहीं समझ रहा हूँ।
बहरहाल, मैंने एलोपैथी, होम्योपैथी की दूसरे डॉक्टरों की दवाएँ बन्द करने को कहा और अपनी बनाई दवा की गोलियाँ दे दीं। तीन-तीन दिन के अन्तर से हफ़्ते में बस दो ख़ुराकें लेनी थीं। बता दिया था कि दवा लेने के बाद पहले दिन रात-बिरात एकाध बार दर्द उठे तो मुझे फ़ोन कीजिए, पर चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है। एक बार हल्का-सा दर्द उठा और फिर ग़ायब हुआ तो दुबारा अब तक वापस नहीं आया। बस एक ख़ुराक में जादू हुआ। सावधानी के तौर पर दो-तीन ख़ुराकें और कई-कई दिन के अन्तर पर दिलवाईं। अभिषेक जी के लिए ताज्जुब वाली बात थी कि इतने दिनों का कष्ट इतनी आसानी से भला कैसे ठीक हो सकता है!
होम्योपैथी ऐसे ही काम करती है। निदान सही हो, दवा का चुनाव ठीक हो तो समझिए कि दवा में प्रभु का वास है और कठिन बीमारियों में भी बात बनने लगती है; अन्यथा, दवा पर दवा बदलते रहिए और इन्तज़ार करते रहिए। कई बार बड़ों की तुलना में बच्चों की बीमारियाँ होम्योपैथी में आसानी से ठीक होती हैं, तो इसकी वजह यह है कि बच्चों को बड़ों की तरह एलोपैथी की दवाइयाँ लम्बे समय तक नहीं खिलाई गई होतीं और उनके शरीर में दवाओं के भाँति-भाँति के पार्श्वप्रभावों की जड़ नहीं जमा होती। पार्श्वप्रभावों की स्थिति में पहले उनका आवरण हटाना पड़ता है और फिर असली बीमारी के लक्षण सामने दिखने पर सही इलाज की ओर चलना पड़ता है। दुर्भाग्य से आपातकालीन चिकित्सा के हिसाब से काम करने वाली एलोपैथी के तरीक़े को ही हमने इलाज का सही तरीक़ा मान लिया है और हम समझ ही नहीं पा रहे हैं कि भाँति-भाँति के रसायन कैसे हमारे शरीरों को ख़राब कर रहे हैं और जेनेटिक बदलाव तक का कारण बन रहे हैं। एलोपैथी में बीमारी का प्रबन्धन ज्यादा है, इलाज कम, जबकि हमें बीमारी के प्रबन्धन के बजाय मरीज़ को सम्पूर्ण स्वास्थ्य देने के हिसाब से काम करना चाहिए।
ड्रग माफ़ियाओं का शातिरपना इसी से समझा जा सकता है कि इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन को एलोपैथी फ़ार्मा कम्पनियों के भाँति-भाँति के अनाप-शनाप प्रचार से कोई शिकायत नहीं होती, जबकि स्वामी रामदेव के आयुर्वेद के प्रचार के ख़िलाफ़ वह सुप्रीम कोर्ट पहुँच जाता है। मुझे कोई बताए कि 1954 में बने ‘ड्रग एण्ड मैजिक रेमेडीज़ एक्ट’ पर स्वामी रामदेव ने क्या ग़लत कहा। अगर कुछ बीमारियों का इलाज एलोपैथी में सम्भव नहीं हैं, तो इससे यह कैसे तय हो गया कि उन बीमारियों का इलाज दूसरी पैथियाँ भी नहीं कर सकतीं? एलोपैथी को क्या भगवान् ने सारी पैथियों के लिए मानक बनाकर आसमान से टपकाया है, जो उसे अन्तिम निर्णायक मान लिया जाए? अगर ऐसा होता तो एलोपैथी से थके-हारे तमाम लोगों का इलाज मेरे जैसे व्यक्ति के हाथों हो ही नहीं सकता था। तथाकथित महामारी का इलाज एलोपैथों के पास नहीं था तो उनकी वे जानें, पर मेरे जैसे लोगों ने तो हज़ारों मरीज़ों को बड़ी आसानी से मौत के मुँह से बाहर निकाला। मैं आज भी दावे से कह सकता हूँ कि महामारी के इलाज की ज़िम्मेदारी होम्योपैथी, नेचुरोपैथी और आयुर्वेद वालों को दे दिया गया होता तो इस देश में पाँच लाख नहीं, सिर्फ़ कुछ हज़ार ही मरते जैसे कि सर्दी-ज़ुकाम-बुख़ार से हर साल मरते रहे हैं। उन देशों का उदाहरण देना फ़िज़ूल है, जिन देशों में छोटी-मोटी बीमारी के लिए भी एलोपैथी की गोलियाँ गटकने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है।
ख़ैर, 1954 के उस पुराने क़ानून में जो भी बीमारियाँ दर्ज हैं, उनमें से ज्यादातर का इलाज होम्योपैथी, प्राकृतिक चिकित्सा और आयुर्वेद में बड़ी आसानी से सम्भव हैं। न्यायालयों को भरोसा करना हो तो कुछ मरीज़ों को हमें सौंपकर परीक्षा कर लें और तब सही फ़ैसला सुनाएँ। कोई क़ानून अप्रासंगिक हो चुका हो तो उसे बदलने में क्या परेशानी है? सवाल यह भी है कि कई मामलों में हमारे न्यायाधीश ज़रूरी समझते हैं तो मानवीय संवेदना का भी सहारा लेते हैं तो इस मामले में क्या संवेदना की कोई जगह नहीं बनती? तमाम किन्तु-परन्तु के बावजूद आखि़र स्वामी रामदेव ने लाखों लोगों को योग-आयुर्वेद से ठीक तो किया ही है। इस बहाने इस धारणा की परतें भी उघाड़कर देखने की ज़रूरत है, जिसके तहत सर्वमान्य सत्य की तरह अक्सर कह दिया जाता है कि ‘अदालत ने फ़ैसला दिया है’। अदालत का मानवीकरण कुछ सन्दर्भों में ठीक हो सकता है, पर सच यही है कि फ़ैसला अदालत नहीं, बल्कि कोई न्यायाधीश या बेञ्च के रूप में कुछ न्यायाधीशों का समूह देता है। उच्च न्यायालय हो या उच्चतम न्यायालय, बेंच बदल दीजिए और देखिए कि कैसे फ़ैसले बदल जाते हैं। ज़ाहिर है, न्यायाधीशों की मानसिकता, समझदारी, स्वार्थ-निःस्वार्थ की भावनाएँ काम करती हैं। स्वामी रामदेव के प्रति हर बार न्यायाधीशों की भाषा संवेदनहीन दिखी है। इससे शक पैदा होता है। अदालत की अवमानना का आरोप लगा देना आसान है, पर निष्पक्ष न्यायाधीश बनने के लिए भी साधना तो करनी पड़ती है। हर किसी का डीवाई चन्द्रचूड बन जाना आसान नहीं होता।
और अन्त में, होम्योपैथी के डॉक्टरों से यही निवेदन है कि कम-से-कम होम्योपैथी को एलोपैथी के तौर-तरीक़े पर न चलाएँ, अन्यथा एलोपैथी वाले अन्य पैथियों को समाप्त करने की मुहिम में लगे ही हुए हैं। होम्योपैथी की विश्वसनीयता उसके अपने तरीक़े से ही बनेगी।

(सन्त समीर. कॉम से साभार)

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