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मानव-अंगों की कालाबाजारी का भयावह संसार

पूरी दुनिया में हर साल करीब डेढ़ लाख से अधिक मानव-अंगों का प्रत्यारोपण होता है, जबकि इस बरक्स अपने बेकार हो चुके अंगों को कारगार अंगों से बदलने की चाहत रखने वाले लोगों की गिनती 15 लाख से कहीं ज्यादा है।

देवाशीष प्रसून

1994 में मानव-अंग प्रत्यारोपण पर कानून भारत में लागू हुआ। इसके बाद से मानव-अंगों के व्यापारिक लेनदेन पर कानूनन रोक लगी और इसे दंडनीय अपराध घोषित किया गया। अलबत्ता अमल में 30 साल बीत जाने के बाद भी, मानव-अंग के कारोबार में संलिप्त गिरोह बहुत ही सुनियोजित तरीके से गरीब और असहाय लोगों को बडी आसानी से विवश कर लेते हैं कि वे जीते-जी अपने अंगों को, बहुत ही मामूली रकम के एवज में बेचने को तैयार हो जाएं। हालांकि कई बार पीड़ितों को कही गई धनराशि भी नहीं मिलती और उन्हें वादाखिलाफी व ठगी का दंश भी झेलना पडता है। हालिया ऐसे ही एक गिरोह का पता चला, जिसके तार बांग्लादेश से लेकर झारखंड होते हुए गुरुग्राम और जयपुर से जुडे़ थे। इस गिरोह के द्वारा बांग्लादेश के गरीब मजलूमों को जीते-जी अपनी किडनी को दूसरों को बेचने के लिए तैयार किया जाता। फिर उन्हें गुरुग्राम लाया जाता, कुछ दिन वहां एक गेस्ट-हाउस में उन्हें ठहराकर उन पर तमाम तरह के मेडिकल जांच होते और जब किडनी प्रत्यारोपण की बारी आती तो उन्हें जयपुर ले जाया जाता, जहां कथित तौर पर दो बडे़ अस्पतालों में उनके स्वस्थ अंगों को निकाल कर किसी अमीर व्यक्ति के बीमार शरीर में लगा दिया जाता।
कुछ मरीज, जिनकी आत्मा पहले ही मर चुकी होती है, जीने की हवस में काननू तोड़ने और अंग प्रत्यारोपण के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं, भले ही इस प्रकिया में कमजोर और गरीब लोगों का भीषण शोषण होता हो। ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रीटी द्वारा ‘वैश्विक अपराध और विकासशील विश्व’ विषय पर मार्च 2017 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में मानव-अंगों के इस अवैध व्यापार को करीब 84 करोड़ से 1.7 अरब अमेरिकी डॉलर का आंका गया, जिसमें हर साल करीब 12 हजार अंग-प्रत्यारोपणों को अवैध ढंग से अंजाम दिया जाता है।

अंग बेचकर भी गरीबी पीछा नहीं छोड़ती

WHO द्वारा 2007 में प्रकाशित एक शोध-प्रबंध के अनुसार भारत में 305 लोगों पर हुए एक अध्ययन में यह पाया गया कि अपनी किडनी बेचनेमें 29 फीसद स्त्रियां और 71  पुरुष शामिल थे। इनमें 60 फीसद स्त्रियां और 95 फीसद पुरुष दिहाडी मजदूरी या रेहड़ी-पटरी पर श्रम आधारित व्यापार करते और कुल मिलाकर 71 फीसद लोग गरीबी-रेखा से बेहद नीचे रहने वाले थे। अंगदान के बाद 86 फीसद लोगों ने अपनी सेहत में होने वाली लगातार गिरावट को महसूस किया था। 96 फीसद अंग-विक्रेताओं ने कर्ज चुकाने के लिए अपनी किडनी बेची थी। बावजूद इसके इस सर्वेक्षण के दौरान भी उनमें से तीन-चौथाई लोग कर्जमुक्त नहीं हो पाये, क्योंकि मेहनतकशी की उनकी क्षमता लगातार कम होती जा रही थी और वे पहले की तरह मजदूरी कर कमाने के काबिल नहीं बचे थे।
प्रत्यारोपण सर्जरी के दौरान मेडिकल व हाइजिन की घटिया इंतजामात की वजह से हेपेटाइटिस बी, हेपेटाइदटस सी और एचआईवी जैसी बीमारियों के फैलने का खतरा भी अंगदाताओं के सेहत पर मंडराता रहता है। अंग बेचने से होनेवाली मानसिक व शारीरिक पीड़ा और सर्जरी के बाद देखभाल के घोर अभाव के कारण होने वाले अवसाद और अन्य मानसिक बीमारियों के कारण अंगदाताओं का स्वास्थ्य निरंतरता में और भी खराब होता चला जाता है। जाहिर है कि जिनके देह से अंग निकाला जाता है, उनकी सेहत और माली हैसियत में आनेवाली कमी की भरपाई किसी भी तरह से कभी भी नहीं हो पाती है।

सबसे अधिक होती है किडनी की कालाबाजारी

विविध रिपोटों के विष्लेषण से पता चलता है कि मानव-अंगों में सबसे अधिक बिकने वाला अंग किडनी है, जिसकी कीमत 13 सौ से डेढ़ लाख अमेरिकी डॉलर है। यह अंगों की कालाबाजारी का तीन-चौथाई हिस्सा है। इसके बाद औसतन 4 हजार से लेकर 1.57 लाख तक अमेरिकी डॉलर की कीमत पर उपलब्ध लीवर दूसरा सबसे अधिक बिकने वाला अंग है। इनके अलावा नेत्रपटल, अनिषेचित मानव अंडे, रक्त, त्वचा, अस्थियों और अस्थि-बंधनों की भी मांग इस कालाबाजार में बनी रहती है। हृदय और फेफड़ों जैसे महत्वपूर्ण अंगों की तो बहुत अधिक मांग है और इसलिए इनकी कीमतें भी बहुत अधिक हैं, पर प्रत्यारोपण सर्जरी की परिष्कृत प्रकृति और तकनीकी जटिलता के कारण इनकी सौदागरी बहुत विरले ही होती है।

इंसानी भेदभाव का जालिम बाजार

गैर-कानूनी अंग-प्रत्यारोपणों में भेदभाव से जुड़ा एक और चिंताजनक आयाम यह है कि अमूमन स्वस्थ अंगों की बिक्री सामाजिक व आर्थिक रूप से कमजोर लोग करते हैं और इसके लाभार्थी अक्सरहां सामाजिक व आर्थिक रूप से ताकतवर हालात में होते हैं। इस प्रवृत्ति का अंदाजा कई पैरामीटर्स पर उजागर होता है गो कि विकासशील देशों के लोग अंगदाता रहते हैं और विकसित देशों के लोग प्राप्तकर्ता। जैसे कि महिलाएं अंग देनेवाली होती हैं और लेने वाले होते हैं पुरुष। मसलन, अष्वेत लोगों से किडनी, जीवित उत्तक या लीवर आदि लेकर गोरे लोगों की देहों में लगाया जाता है। मानव-अंगों की भी नस्ल होती है। बडे़ शर्म की बात है कि अफ्रीकी, दक्षिण एशियाई या फिलिपिनी लोगों की किडनी के मुकाबले तुर्की या पेरू मूल के लोगों की किडनी कई गुना अधिक महंगी है, गो कि मानव-अंग न हुआ, अलग-अलग नस्लों की भेड-बकरियां हुईं।
वर्ल्ड किडनी फोरम के दिसंबर 2009 अंक में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार 5.4 अरब लोगों का प्रतिनिधत्व करने वाले 98 देश, जो दुनिया की तत्कालीन आबादी का 82 फीसद हिस्सा थी, पर एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 2004 में किडनी प्रत्यारोपण के 10 फीसद मामलों में विकसित देशों के मरीजों ने आर्थिक रूप से विपन्न देषों के अंगदाताओं से स्वस्थ किडनी की खरीदारी की थी। उपरोक्त अध्ययन के ही अनुसार, पाकिस्तान, भारत और तुर्की जैसे आर्थिक रूप से पिछडे़ देशों ने दुनिया भर में सबसे लोकप्रिय ‘किडनी बाजार’ होने की अप्रिय प्रतिष्ठा हासिल कर ली थी, जहां महज 15 हजार से लेकर डेढ़ लाख अमेरिकी डॉलर तक के पैकेज में किडनी प्रत्यारोपण का धंधा जोरों पर चल रहा था। कीमतें मांग और आपूर्त के बाजारू नियम से संचालित होती हैं, जिसकी बोलियां ग्लोबल स्तर पर लगती हैं। 2007 में पाकिस्तान से 2500 किडनी बिकी जिनके दो-तिहाई खरीदार विदेशी थे। भारत में भी 2008 में अरबों रुपये का किडनी घोटाला सामने आया था, जिसमें पष्चिमी उत्तर प्रदेश के गरीबों से किडनी लेकर यूएस, यूके, कनाडा, सऊदी अरब और ग्रीस के ग्राहकों के शरीर में प्रत्यारोपित किया गया था।
अंगों की कालाबाजारी में मनुष्यता का यों पतन कर उसे ऐसे जानवरों की तरह बना देना, जिनके अंगों की खरीद-बिक्री खुलेआम बाजार में होती हो, मानवाधिकारों का घोर अपमान है। अंगों की कालाबाजारी की आपराधिक पृष्ठभूमि से उपजी गोपनीयता के कारण वर्तमान हालात के बारे में कोई सटीक ताजा आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, फिर भी उपलब्ध आंकड़ों से हम इस धंधे की भयावहता का अंदाजा लगा सकते हैं। लिहाजा, अंगदाताओं की ऐसी करुण-व्यथा के मद्देनजर आज आवष्यक हो गया है कि इस तरह के मामले में निज स्वार्थाें से ऊपर उठकर इंसानियत के मूल्यों की रक्षा की जाए और अपने जीवन की ही तरह लोग दूसरों के जीवन के प्रति भी संवेदनशील बनें। विचारणीय है कि स्वार्थ में अंधे होकर और किसी बेबस मजलूम की मजबूरियों का फायदा उठाकर अगर कोई व्यक्ति अपनी संपन्नता की बदौलत दूसरों के अंग छीनकर दो-चार साल की उम्र बढ़ा भी ले तो ऐसी जिंदगी किसी लानत से कम न नहीं होगी।

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