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बैंड-एड जैसी पट्टियों से भी कैंसर का खतरा

तेजेंद्र शर्मा
tejendra sharma
तेजेंद्र शर्मा

जिस अध्ययन की हम बात कर रहे हैं उसमें ये रिसर्च 40 अलग-अलग पट्टियों के 18 ब्रांडों पर की गई है और पाया गया कि पट्टियों में कैंसर पैदा करने वाला रसायन लगा होता है। बैंडेज में विषाक्त मात्रा में ‘पॉलीफ्लोरिनेटेड’ पदार्थ या पी.एफ.ए.एस. होते हैं. जिन्हें आमतौर पर ऐसे रसायनों के रूप में जाना जाता है जिन पर गर्मी, ग्रीज़, तेल या पानी का कोई असर नहीं होता। इन्हें नष्ट नहीं किया जा सकता। इस मामले में ये प्लास्टिक से भी अधिक घातक हैं। इन्हें अंग्रेज़ी में फ़ॉर एवर केमिकल्स (For Ever Chemicals) कहा जाता है। रिसर्च टीम के अनुसार, 40 टेस्ट किये गये ब्राण्ड पट्टियों में से 26 ब्रांड्स में यह केमिकल पाए गये।
मैं अपना एक वाक्य बार-बार दोहराता हूं… “मनुष्य द्वारा निर्मित कोई भी वस्तु उसके लिये और प्रकृति के लिये घातक है!” उसकी बनाई चीज़ें पर्यावरण का भी नुकसान करती हैं और इन्सान के लिये हानिकारक भी सिद्ध होती हैं। हमने पेड़ काट-काट कर शहर बना डाले और ओज़ोन लेयर का इतना नुकसान कर दिया कि अब साँस लेना दूभर हो रहा है। विध्वंस के लिये बनाए गये हथियार अब इतना प्रदूषण फैला चुके हैं कि जीना मुहाल हो रहा है।
इन्सान किसी दवा का भी निर्माण करता है तो साथ ही उससे होने वाले प्रतिकूल प्रभावों की एक लंबी सूची टंगी रहती है। जो दवा एक बीमारी का इलाज करने के लिये बनाई जाती है वो शरीर के किसी महत्वपूर्ण अंग पर प्रतिकूल असर कर सकती है।
अप्रैल 2024 में एक अध्ययन किया गया था जिसमें निष्कर्ष यह निकला कि छोटे घाव पर लगाई जाने वाली बैंडेज पट्टी से कैंसर होने का डर है। उन पट्टियों में कुछ ऐसे केमिकलों का उपयोग किया जाता है जो शरीर में कैंसर पैदा कर सकते हैं।

अब बैंड-एड जैसी पट्टियों से भी कैंसर का खतरा
earl dixon

बैंडेज का आविष्कार लगभग सौ वर्ष पूर्व 1921 में अर्ल डिक्सन ने अमेरिका में किया था। इन सूती पट्टियों पर क्रिनोलिन लगी होती थी और एक चिपकने वाला पदार्थ लगाया होता था जिससे ये पट्टी आसानी से घाव पर लपेटी जा सके। अर्ल डिक्सन जॉन्सन एण्ड जॉन्सन में कार्यरत थे। उनका यह आविष्कार बहुत जल्दी ही पूरे विश्व में लोकप्रिय हो गया। ऐसी पहली पट्टियां करीब 18 इंच लंबी और ढाई इंच चौड़ी हुआ करती थीं।
फिर तो इस बैंडेज में निरंतर बदलाव आते गये और एक ऐसा समय भी आ गया कि उंगली के लिये अलग साइज़ तो अंगूठे के लिये दूसरा। यानी कि तरह-तरह के साइज़ और शेप में ये पट्टियां बाज़ार में दिखाई देने लगीं। पहले तो प्लास्टर का कपड़ा इस्तेमाल किया जाता था, फिर उसकी जगह भी केमिकल प्लास्टर ने ले ली।
दरअसल बैंड-एड का इस्तेमाल छोटे कट या घावों के लिये किया जाता है ताकि घाव खुला ना रहे और उसमें इंफ़ेक्शन होने का डर ना हो। आनंद बख़्शी का वो गीत है ना– “पतझड़ जो बाग़ उजाड़े, वो बाग़ बहार खिलाए/जो बाग़ बहार में उजड़े उसे कौन खिलाए?” उसी तरह सवाल यह उठता है कि जो दवा की पट्टी घाव को इंफ़ेक्शन से बचाने के लिये बनाई गई हो, यदि वही कैंसर पैदा करने का कारण बनने लगे तो क्या किया जाए?
जिस अध्ययन की हम बात कर रहे हैं उसमें ये रिसर्च 40 अलग-अलग पट्टियों के 18 ब्रांडों पर की गई है और पाया गया कि पट्टियों में कैंसर पैदा करने वाला रसायन लगा होता है। बैंडेज में विषाक्त मात्रा में ‘पॉलीफ्लोरिनेटेड’ पदार्थ या पी.एफ.ए.एस. होते हैं. जिन्हें आमतौर पर ऐसे रसायनों के रूप में जाना जाता है जिन पर गर्मी, ग्रीज़, तेल या पानी का कोई असर नहीं होता। इन्हें नष्ट नहीं किया जा सकता। इस मामले में ये प्लास्टिक से भी अधिक घातक हैं। इन्हें अंग्रेज़ी में फ़ॉर एवर केमिकल्स (For Ever Chemicals) कहा जाता है। रिसर्च टीम के अनुसार, 40 टेस्ट किये गये ब्राण्ड पट्टियों में से 26 ब्रांड्स में यह केमिकल पाए गये।
कहा जाता है, शरीर के संपर्क में आने पर ये केमिकल शरीर में मौजूद टिश्यू में स्टोर होते रहते हैं क्योंकि हमारा शरीर इन्हें तोड़ नहीं पाता। इस वजह से ये लंबे समय तक शरीर में मौजूद रहते हैं। यही वजह है कि इन रासायनिक पदार्थों को ‘फॉर-एवर केमिकल्स’ कहा जाता है।
ये रसायन कई तरह की स्वास्थ्य समस्याओं जैसे ग्रोथ, बच्चा पैदा करने की शक्ति, मोटापा और कई तरह के कैंसर से जुड़े हैं। PFAS केमिकल से दूषित पानी पीने या खाना खाने से ये केमिकल आसानी से हमारे खून में प्रवेश कर सकते हैं। एक बार जब वे स्वस्थ टिश्यू में मिल जाते हैं तो हमारे रक्षा कवच (इम्यून सिस्टम), लिवर, किडनी और दूसरे अंगों को ये काफ़ी नुकसान पहुंचा सकते हैं।
वरिष्ठ विशेषज्ञ डॉ. लिंडा बर्नबॉम के अनुसार ये नतीजे काफ़ी चिंता पैदा करने वाले हैं। सच तो यह है कि ये ख़तरनाक पदार्थ एक लंबे समय तक हमारे घावों के साथ संपर्क में रहते हैं। इस प्रकार के रसायनों का 1940 के दशक में इंडस्ट्रियल मैन्युफैक्चरिंग में काफी इस्तेमाल किया जाता था। हमारे रोज़मर्रा के जीवन की बहुत से उपकरणों जैसे कुक-वेयर, इलेक्ट्रॉनिक्स, फर्नीचर, फूड-पैकेजिंग और फायर फाइटिंग फोम जैसी कई चीजों में मौजूद रहते हैं।
ये रसायन दरअसल घाव के लिये दवा का काम नहीं कर रहे होते। इनका इस्तेमाल मूल रूप से केवल बैंडेज को वाटरप्रूफ़ बनाने के लिये किया जाता है। बाबू ईश्वर शरण हॉस्पिटल के सीनियर फिज़ीशियन डॉ. समीर का कहना है कि, “अभी यह कहना कि बैंडेज के इस्तेमाल से सीधे तौर पर कैंसर फैल सकता है, ग़लत होगा। कुछ शोध और अध्ययनों में यह बात कही गई है, लेकिन इसको विस्तार से समझने के लिए शोध और अध्ययन किए जाने चाहिए।” उन्होंने कहा कि अगर बैंडेज बनाने में PFAS का इस्तेमाल हो रहा है, तो इससे सिर्फ कैंसर ही नहीं इन समस्याओं का भी खतरा रहता है जैसे थायराइड, हाई कोलेस्ट्रॉल और प्रतिरक्षा तंत्र कमजोर होना।
जब यह पट्टी इतनी ख़तरनाक है तो इस पर अभी तक प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया गया? यह अध्ययन तो भारत के बाहर हुआ है। फिर भला भारत सरकार इस बारे में क्या कर रही है? क्या भारतीय नागरिकों की जान का कोई मूल्य नहीं है? स्वस्थ भारत नाम की संस्था ने हाल ही में डॉ. मीना पर आशुतोष कुमार सिंह की पुस्तक का लोकार्पण दिल्ली में किया। उस दिन स्वास्थ्य सेवा में क्वालिटी कंट्रोल पर बातचीत की जा रही थी। क्या यह उसी क्वालिटी कंट्रोल के तहत नहीं आता कि यदि विदेश में एक अध्ययन किया गया है तो भारत सरकार के संबद्ध विभाग इस का संज्ञान लें और अपने यहां भी अवश्य अध्ययन करवाए जाएं और यदि आवश्यकता हो तो इन पट्टियों पर बैन लगाया जाए।
मगर हम सरकार के भरोसे तो नहीं बैठ सकते। यदि हमें अपने आप को इस ख़तरे से बचाना है तो कुछ उपाय तो स्वयं ही करने होंगे। सबसे पहले तो हमें लेटेक्स-मुक्त बैंडेज (पट्टी) का उपयोग करना शुरू करना होगा। कुछ अध्ययनों में लेटेक्स के संपर्क को भी PFAS के संपर्क से जोड़ा गया है। लेटेक्स-फ्री बैंडेज का इस्तेमाल करने से इसके ख़तरे को कम किया जा सकता है।
हमारा प्रयास रहना चाहिये कि हम आसानी से उपलब्धता के चक्कर में ना पड़ कर प्राकृतिक सामग्री से बने बैंडेज जैसे कॉटन या बांस जैसी प्राकृतिक सामग्री से बनी पट्टियों की तलाश करें। इनका हमारे शरीर पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा
हमें पट्टी के उपयोग के समय को भी कम करना होगा। यदि संभव हो, तो घाव को साफ़ रखें और हवा लगने दें। इससे पट्टी के उपयोग की आवश्यकता कम हो सकती है। कई बार देखा है कि बैंड-एड में दबा घाव गीला रहता है और घाव सूखने की प्रक्रिया शुरू नहीं हो पाती।
मगर इस मुद्दे को लेकर एक सवाल पत्रकारों से भी करना चाहूंगा। इस ब्रेकिंग न्यूज़ के ज़माने में हम एक बार समाचार प्रकाशित करके अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं हो जाना चाहिये। हमें चाहिये कि समय-समय पर पता करने का प्रयास करें कि जो समाचार आम आदमी के जीवन से जुड़ा है और उसके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव के बारे में है, तो कम से कम पता करते रहें कि उस अध्ययन से आगे कुछ हुआ कि नहीं। जैसे हमारे पास आज कोई अपडेट नहीं है कि अप्रैल 2024 में जारी की गई अध्ययन की रिपोर्ट के बाद कुछ हुआ या नहीं। क्या आज भी बैंड-एड जैसी पट्टियां पुराने रसायनों के साथ ही बाज़ार में बेची जा रही हैं या उस पर कोई एक्शन लिया गया है।

(साभार—पुरवाई डॉट कॉम)

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