स्वस्थ भारत मीडिया
नीचे की कहानी / BOTTOM STORY विविध / Diverse

फॉर्मा सेक्टर के भ्रष्टाचार पर कब लगेगी लगाम

तमाम आर्थिक विकास के दावों के बावजूद जिस भारत में अब भी चार लाख परिवारों के गुजारे का आधार कचरा बीनना हो, करीब 6 लाख 68 हजार परिवारों की जिंदगी का आधार भीख मांगना हो, वहां निश्चित तौर पर सस्ती और सही दवाएं सहज ही उपलब्ध किया जाना मानवीय जरूरत है। इसे सामाजिक प्रतिबद्धता के तौर पर भी लिया जाना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश इस देश में अब भी जेनरिक की बजाय ब्रांडेड दवाओं पर ही जोर बढ़ रहा है।

फार्मा सेक्टर में भ्रष्टाचार नहीं चलेगा...राजस्थान में प्रदर्शन करते फार्मासिस्ट
फार्मा सेक्टर में भ्रष्टाचार नहीं चलेगा…राजस्थान में प्रदर्शन करते फार्मासिस्ट

फार्मा सेक्टर इन दिनों उबाल पर है…फार्मासिस्ट लगातार आंदोलन कर रहे हैं..बीते 29 सितंबर को लखनऊ, रायपुर और छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में फार्मासिस्टों ने सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन किया..लखनऊ में तो शिक्षामित्रों के आंदोलन की तरह फॉर्मासिस्टों को पीटने की तैयारी थी..लेकिन फॉर्मासिस्टों ने संयम दिखाया..इसके पहले गुवाहाटी, रांची, जमशेदपुर और हैदराबाद में फार्मासिस्ट आंदोलन कर चुके हैं..लेकिन उनसे जुड़ी खबरें तक नहीं दिख रही हैं..दरअसल फार्मासिस्टों की मांग है कि जहां-जहां दवा है, वहां-वहां फॉर्मासिस्ट  तैनात होने चाहिए। पश्चिमी देशों में एक कहावत है कि डॉक्टर मरीज को जिंदा करता है और फॉर्मासिस्ट दवाई को। पश्चिमी यूरोप के विकसित देशों, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में डॉक्टर मरीज को देखकर दवा तो लिखता है, लेकिन उसकी मात्रा यानी डोज रोग और रोगी के मुताबिक फार्मासिस्ट ही तय करता है। इसी तर्क के आधार पर केमिस्ट शॉप जिन्हें दवा की दुकानें कहते हैं, वहां भी फॉर्मासिस्ट की तैनाती होने चाहिए। लेकिन जबर्दस्त कमाई वाले दवा बिक्री के धंधे की चाबी जिन केमिस्टों के हाथ है, दरअसल वे ऐसा करने के लिए तैयार ही नहीं है। इसके खिलाफ वे लामबंद हो गए हैं। रही बात सरकारों की तो अब वह भी फॉर्मासिस्टों को तैनात करने को तैयार नहीं है। ऐसे में सवाल यह है कि आखिर लगातार फॉर्मेसी कॉलेजों की फेहरिस्त लंबी क्यों की जा रही है। सरकारी क्षेत्र की बजाय निजी क्षेत्र में लगातार फॉर्मेसी के कॉलेज क्यों खोले जा रहे हैं।
तमाम आर्थिक विकास के दावों के बावजूद जिस भारत में अब भी चार लाख परिवारों के गुजारे का आधार कचरा बीनना हो, करीब 6 लाख 68 हजार परिवारों की जिंदगी का आधार भीख मांगना हो, वहां निश्चित तौर पर सस्ती और सही दवाएं सहज ही उपलब्ध किया जाना मानवीय जरूरत है। इसे सामाजिक प्रतिबद्धता के तौर पर भी लिया जाना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश इस देश में अब भी जेनरिक की बजाय ब्रांडेड दवाओं पर ही जोर बढ़ रहा है। जिस हिसाब से चिकित्सा व्यवस्था लगातार महंगी होती जा रही है, उसी तरह चिकित्सा इंतजाम भी लगातार आम आदमी की परिधि से दूर जा रहे हैं। ऐसे में अव्वल तो होना यह चाहिए कि चिकित्सा व्यवस्था को रेग्युलेट करने वाले प्राधिकरण और सरकारी मशीनरी अपनी स्वायत्तता और अधिकारों का इस्तेमाल व्यवस्था को बेहतर बनाने में करते। लेकिन वह भारतीय संस्था ही क्या होगी, जिसका कामकाज का आधार मानवीय विकास और ईमानदारी हो। कहना न होगा कि फॉर्मेसी कौंसिल ऑफ इंडिया भी उसी राह पर चल पड़ी है, शायद यही वजह है कि देशभर के फॉर्मेसिस्ट इन दिनों आंदोलन पर हैं। अगस्त महीने में तो दिल्ली में जुटकर ठीक कौंसिल के दफ्तर के सामने फॉर्मासिस्टों ने कौंसिल की नीतियों और वहां मचे भ्रष्टाचार का विरोध तो किया ही, फॉर्मेसी के क्षेत्र में जारी सरकारी अनियमितताओं की भी पोल खोली।
जिन लोगों ने यूरोप और अमेरिका के विकसित देशों या ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड की यात्रा की है, उन्हें पता है कि मामूली बुखार की भी दवा बगैर डॉक्टरी पर्ची के वहां नहीं मिलती। इससे दवाओं की जहां बिला वजह खपत और उसके जरिए लूट पर लगाम लगती है, वहीं यह व्यवस्था जरूरतमंद व्यक्ति को ही सही दवाएं दिया जाना सुनिश्चित करती है। लेकिन देश में आत्महत्या और हत्या करने तक की दवाएं हाल के दिनों तक सहजता से उपलब्ध थीं। अब थोड़ी-बहुत कड़ाई हुई है तो इस प्रवृत्ति पर रोक लगी है। लेकिन अब भी इस पर माकूल रोक नहीं लग पाई है..दूसरी बात यह है कि दवाएं देने या बांटने की पढ़ाई जिन फॉर्मेसिस्ट तबके ने की है, चिकित्सा व्यवस्था में उनकी अहमियत को अब तक स्वीकार नहीं किया जा सका है। देश में इस क्षेत्र में किस तरह की बदइंतजामी है और उसे लेकर फॉर्मेसी कौंसिल और राज्यों के ड्रग कंट्रोलर दफ्तर किस कदर बेलगाम हैं, इसका अंदाजा कुछ आंकड़ों से हो जाता है। जनसंख्या के लिहाज से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में कुल रजिस्टर्ड फॉर्मेसिस्ट की संख्या 60 हजार है। अव्वल तो अधिकतम दवाओं की इतनी ही दुकानें पूरे सूबे में होनी चाहिए थीं, क्योंकि कई फॉर्मेसिस्ट अस्पतालों या दवा बनाने वाली कंपनियों में भी नौकरी करते हैं। यानी रजिस्टर्ड लोगों का जरूरी नहीं कि केमिस्ट वाली दुकान हो ही। लेकिन उत्तर प्रदेश से हैरतनाक आंकड़े सामने आए हैं। पूरे सूबे में दवाओं की करीब ढाई लाख दुकानें हैं। इसी तरह झारखंड में जहां सिर्फ 2100 फॉर्मेसिस्ट रजिस्टर्ड हैं, लेकिन यहां दवाओं की दुकानों की संख्या 8 हजार से भी ज्यादा है। असम में रजिस्टर्ड फॉर्मेसिस्ट की संख्या 6 हजार है। लेकिन पूरे राज्य में दवाओं की दुकानें 25 हजार से भी ज्यादा हैं। उत्तर प्रदेश में तो एक रजिस्टर्ड फार्मेसिस्ट के नाम पर चार से लेकर छह तक दुकानें चल रही हैं। स्वास्थ्य क्षेत्र की उलटबांसियों को शिद्दत से सामने लाने का काम करने वाले स्वस्थ भारत अभियान के आशुतोष सिंह के मुताबिक यूपी में एक मामला ऐसा भी है, जहां एक ही लाइसेंस पर दवाओं की चालीस दुकानें चल रही हैं और लाखों ही नहीं, करोड़ों का कारोबार कर रही है। हालांकि भ्रष्टाचार की इन कहानियों के बीच राजस्थान अकेला राज्य है, जहां जितने रजिस्टर्ड फॉर्मेसिस्ट हैं, उतनी ही दुकानें भी चल रही हैं। भ्रष्टाचार का आलम महाराष्ट्र से लेकर सुदूर तमिलनाडु तक में इसी तरह फैला है। इतना ही नहीं, दवाओं की दुकानों को स्थापित किए जाने को लेकर फॉर्मेसी कौंसिल ऑफ इंडिया ने जो मानक तय किए हैं, उनका भी उल्लंघन हो रहा है। इन मानकों के मुताबिक एक दुकान से लेकर दूसरी दुकान के बीच तीन सौ मीटर की दूरी होनी चाहिए। लेकिन आपको पूरे देश में एक ही साथ तीन से लेकर दस दुकानें मिल जाएंगी। इस नियम और मानक का उल्लंघन तो दिल्ली में भी देखा जा सकता है। इसी तरह एक थोक विक्रेता के पीछे कम से कम छह खुदरा दवा दुकानें होनी चाहिए, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है।
फार्मेसी शिक्षा के क्षेत्र में भी ऐसा मानक नहीं स्थापित किया जा रहा है, जिससे गुणवत्ता युक्त शिक्षा हासिल हो सके। फिर फार्मेसिस्टों की नियुक्ति के लिए कोई कारगर और एक रूप नीति तक नहीं है। इसीलिए फार्मेसिस्ट जहां दवा, वहां फार्मेसिस्ट – के नारे के साथ अपनी मांग को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। एक रूप नीति ना होने के चलते जहां उत्तराखंड सरकार फार्मेसिस्ट को नियुक्ति के बाद 4600 का ग्रेड पे दे रही है तो मध्य प्रदेश में वह सिर्फ 1900 ही है। इसी तरह अस्पतालों में डॉक्टरों और दूसरे स्टाफ की नियुक्ति तो कर दी जाती है। लेकिन फार्मेसिस्ट का पद बरसों तक खाली रखा जाता है। इसके लिए लगातार विरोध हो रहा है। ऐसे सवाल यह है कि क्या मौजूदा सरकार इन उलटबासियों की तरफ ध्यान देगी… दूसरी बात यह है कि इन दिनों फॉर्मेसी कॉलेजों से निकले करीब साढ़े चार लाख फॉर्मेसिस्ट देशभर में हैं। इनमें डिग्री और डिप्लोमाधारक दोनों हैं। देशभर में दवाओं की (रिटेल-होलसेल) करीब आठ लाख दुकानें हैं। लेकिन शायद ही कोई दुकान होगी, जहां फॉर्मासिस्ट की तैनाती होगी। अगर हर जगह एक फॉर्मासिस्ट तैनात कर दिया जाय तो आधी समस्या दूर हो जाएगी। फिर आए दिन लोगों को गलत दवाएं मिलने से होने वाले स्वास्थ्य समेत तमाम नुकसान को रोका जा सकेगा।
 

Related posts

कोविड-19 की पहचान के लिए इन लक्षणों पर गौर करें

Ashutosh Kumar Singh

डॉक्टरों के साथ हिंसा सभ्य समाज की निशानी नहीं

मानवता को बनाए रखने के लिए बेटियों को बचाना होगा…

Ashutosh Kumar Singh

1 comment

vijay shivlani October 24, 2015 at 9:46 am

sirf Dawai pr hi itna Zor kyun….
kya Mehnage hote Hositpal & Dr ki Feez jo ab Hazaro mein hai…General ward ka rozana ka kharcha jo ab Hazaro mein hai….
sarakri hospitals ka kharab infrastrucute , Ghooskhori & limited Staff….
kya yeh Zimmedar nhi…
an bhi Nakali dawai hamare desh mein bahut kam % mein hai….
dawai aj bhi Viksit desho se sasti hai…( Medical toursim ka badhta hua bazaar Gawah hai..iska )
Sarkaar ki udasinta ka thikra Dawai Co. & Vikratao per fhodna…Bikul bhi uchit & Sahi nhi hai….
bus Apni TRP badane ka tarika hai…

Reply

Leave a Comment