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गांधी,आदर्श लोकतंत्र एवं व्यक्तिगत आज़ादी

Gandhi supported kerala when flood came there

एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए महात्मा गांधी के आदर्श लोकतंत्र को समझना जरूरी है। इसी संदर्भ के कारण इस स्टोरी को हम अपने पाठकों को समर्पित कर रहे हैं। उम्मीद है आपको यह प्रयोग अच्छा लगेगा। संपादक 

रॉक्शन यादव

देश-दुनिया के लोग महात्मा गांधी के 150 वीं जयंती वर्ष में उनके विचारों को अपने-अपने तरीके से फैलाने में जुटे हैं। जीवन से जुड़ी तमाम विषयों पर महात्मा गांधी के दृष्टिकोण को दुनिया अपने-अपने ढंग से जांच-परख रही है। इसी कड़ी में हम गांधी के लोकतंत्र की अवधारणा एवं व्यक्तिगत आजादी के मायने को समझने का प्रयास इस लेख में करने जा रहे हैं। सर्वविदित है कि जब से जगत एवं जीव अस्तित्व में आए हैं, तब से मानव अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए निरंतर संघर्षरत रहा है और आज भी सही अर्थों में स्वतंत्र नहीं हो पाया है। स्वतंत्रता, मानव जीवन का मुख्य केन्द्र बन चुका है। ऐसे में यक्ष प्रश्न यह है कि स्वतंत्रता है क्या? किन-किन चीजों से हम स्वतंत्र होना चाहते हैं।
कहा जाता है कि मानव के उद्भव काल से ही उसमें क्रोध, मोह, माया एवं अपने-पराए आदि का भाव है। यही कारण है कि उसने खुद को शक्तिशाली बनाने के लिए तरह-तरह के जतन किए। सबसे पहले शारीरिक बल के आधार पर अपने से कमजोर को डराने एवं दबाने का दौर शुरू हुआ। यही से जिसकी लाठी उसकी भैंस की कहावत चरितार्थ होनी शुरू हुई। शोषण का दौर शुरू हुआ। इस शोषण से कबीले के सरदार का उदय हुआ। कबीले के सरदार के रूप में शक्ति प्राप्त करने का जो अंध-दौर शुरू हुआ कालांतर में उसका विस्तार राजतंत्र के उदय के रूप में देखा जा सकता है।
भारत के संदर्भ में बात करें तो भारत हमेशा से दुनिया को ज्ञान देता रहा है। इसी कड़ी में शासन तंत्र की बात की जाए तो भारत में ही सबसे पहले लोकतंत्र का उदय हुआ। इतिहास के जानकार अच्छी तरह जानते हैं कि लिच्छवी में विश्व के पहले लोकतंत्र का जन्म हुआ। हालांकि कि पश्चिम के दार्शनिक इसे स्वीकारने में हिचकते हैं, उनके अनुसार लोकतंत्र का उदय इंग्लैण्ड में हुआ था। लेकिन वहां के लोकतंत्र में भी समग्रत का अभाव ही है।

आदर्शवादी लोकतंत्र की परिकल्पना

19 वी सदी के उतरार्ध में भारत के गुजारात राज्य के पोरबंदर ग्राम में करम चंद गांधी के घर एक बालक का जन्म हुआ। जिसका नाम मोहन दास करम चंद गांधी रखा गया। नैतिक मापदंडों को आत्मसात करने वाले मोहन दास करमचंद गांधी ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को एक नई पहचान दी। एक नई राह दी। सत्य एवं अहिंसा के रास्ते एक आदर्श को स्थापित किया। उन्होंने लोकतंत्र में आदर्श व्यवस्था स्थापित करने की वकालत की। गांधी के लोकतंत्र में संपूर्णता है। एक-दूसरे के प्रति सद-भाव, समर्पण एवं सदाचार है। वहीं अगर हम पश्चिम के विचारकों की बात करें तो उनके लिए आजादी का मतलब व्यष्टिगत ज्यादा है समष्टिगत कम।
डेनियल डेफो ने अपने उपन्यास के किरदार राबिन्सन क्रुसो के माध्यम से व्यक्ति आजादी एवं कर्तव्य पालन की बात बताई है तो वहीं अमेरिका के राष्ट्रपति रहे अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र की परिभाषा देते हुए कहा कि, लोकतंत्र जनता का जनता के द्वारा जनता के लिए शासन है। इस तरह के तमाम उदाहरण है जो लोकतंत्र को सीमित अर्थों में समेटते हैं।
वहीं जब हम गांधी के लोकतंत्र एवं स्वतंत्रता के विचार को पढ़ते हैं तो उनकी दूर दृष्टि नज़र आती है। महात्मा गाँधी समान अधिकार, स्वतः जागरूकता, पूर्ण स्वतंत्रता, अहिंसा, कर्तव्य और ट्रष्टीशिप का वर्णन करते हैं। हालांकि कुछ पश्चिम और पूरब के दार्शनिकों ने उनके आदर्शवादी विचार की आलोचना की है लेकिन गाँधी उन सभी आलोचनाओं से आगे बढ़कर अपनी विचार यात्रा को एक नया मुकाम देते हैं। गाँधी लोकतंत्र का सही अर्थ बताते हैं- स्वतः, स्वअधिकार, स्वतःशासन यानी खुद से अपने उपर शासन करना। गांधी स्वराज की बात करते हैं।

लोकतंत्र में स्वराज की भूमिका

महात्मा गाँधी जी ने स्वतःशासन, स्वतःसहयोग से लोकतंत्र की स्थापना की बात करते हैं और स्वराज्य का सही अर्थ बताते हैं। लेकिन यह लागू कैसे होगा? इसके लिए उन्होंने खुद से या जनता के द्वारा एक आदर्श व्यक्ति, शिक्षित व्यक्ति का चुनाव करने की बात बताते हैं, वैसा व्यक्ति जो मोह-माया, तृष्णा, लालच से मुक्त हो, उसमें निःस्वार्थ भाव से जन सेवा का लक्षण नीहित हो और वह सबके लिए एक समान कार्य करे, सबकी भलाई के बारे में सोचे। जब स्वतः से, स्वराज्य से लोकतंत्र की स्थापना करने की बात करते हैं तो उसमें सभी वर्ग के लोग आ जाते हैं। लेकिन अगर हम चोर-बदमाश और अपराधी को शामिल कर लिए तो फिर आदर्श लोकतंत्र कैसे रहा?
गाँधी जी ने उन सभी वर्गों को समान अधिकार देते हुए बतलाते हैं, उनलोगों को भी मत देने का अधिकार हैं। लेकिन उससे पहले उनलोगों में सही शिक्षा और सही नीति एवं कर्तव्य पालन की बात बताते हैं। और व्यक्तिगत अधिकार, व्यक्तिगत आजादी की बात करते हैं, पर जब हम व्यक्तिगत अधिकार की बात करते हैं तो यहां पर व्यक्तिगत संपत्ति की भी बात सामने आती है। और जब मानव व्यक्तिगत सम्पत्ति अर्जित कर बड़ा बनता है तो फिर वहां पर सत्ता उसके हाथ में आने की बात आ जाती है क्योंकि जिसके पास अधिक पूंजी होता है, वह पूंजी के नशा में अंधा होकर लोगों को गुलाम बनाने लगता है। गाँधी यहीं नहीं रूकते और वैसे धनवान-धनाढ्य व्यक्तियों के लिए ‘ट्रस्टीशीप’ का मार्ग सुझाया और ट्रस्टीशिप से कमजोर वर्ग के लोगों को मदद करने की बात बताए।

ट्रस्टीशीप का सहयोग

गांधी ने ट्रस्टीशीप के माध्यम से लोकतंत्र में होने वाली असमानता को समान करने की बात बतायें। वह यह बताते हैं कि ट्रस्टीशीप से हम लोकतंत्र की खाइयों को हमेशा भरते रहेंगे और जब गरीब सुदृढ़ और शिक्षत होगा तो समाज में शांति और समानता आएगा और तब जाकर हम हर वर्ग को समान रखते हुए आदर्श जीवन, आदर्श लोकतंत्र की कल्पना कर सकते हैं। अगर समाज में समानता नहीं होगा तो फिर वहां पर हिंसा का उदय होना लाजिमी हो जाता है और जहां हिंसा के लिए जगह हो, जहां हिंसा जन्म लेता हो, वहां कभी आदर्श जीवन, आदर्श लोकतंत्र का उदय हो ही नहीं सकता है। इसलिए उन्होंने अहिंसा पर भी बल दिया है।

अहिंसा युक्त लोकतंत्र

महात्मा गांधी कहते हैं कि सिर्फ स्वतःशासन, एवं जागरूक होने से, या समान अधिकार पा लेने या अपना कर्तव्य निभा लेने से ही हमें आदर्श जीवन, आदर्श लोकतंत्र की प्रप्ति नहीं हो सकती है, उसके लिए उन्होंने अहिंसा का भी मार्गदर्शन किया है। वह कहते हैं कि जिस समाज में या जिसके विचार में हिंसा का उदय होता हो या हिंसा का स्थान दिखता हो, वहां कभी शांति, कभी स्वतंत्रता का वास नहीं हो सकता है। वहां कभी आदर्श स्थिति पनप नहीं सकती। अगर हमें आदर्श या सम्पूर्ण स्वतंत्रता चाहिए तो सभी तरह से, हिंसा मुक्त होना चाहिए, तब जाकर कहीं हम आदर्श लोकतंत्र को प्राप्त कर सकेंगे।
दरअसल अहिंसा एक ऐसा शस्त्र है, जो मानव कल्याण का सबसे बड़ा साथी है और यहीं पर गांधी जी का लोकतंत्र, पश्चिमी सभ्यता के लोकतंत्र से भिन्न होता है, पश्चिमी दार्शनिकों ने सामान-अधिकार-समान व्यापार और समानता की बात तो की है लेकिन उन सभी के अंश में हिंसा का अस्तित्व दिखाई देता है जो लोकतंत्र को सुदृढ़ होने में बाधा उत्पन्न करता है। गाँधी जी इन सभी बिन्दुओंपर जोर देते हुए शहर से लेकर गाँव तक में, आदर्श का ढाचा इसी आधार पर निर्माण करने की बात करते हैं।
ग्रम पंचायती राज्य से लेकर शहर के भूमण्डलीकरण तक की व्यवस्था में यही दर्शन का समावेश देखना चाहते हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि जब से आजादी मिली है तब से लेकर आज तक हम वैसे लोकतंत्र का निर्माण नहीं कर पाए। लेकिन आज हम महात्मा गाँधी के सुझाये गए बहुत सारे विचार, दर्शन पर अमल करने लगे हैं। समान अधिकार, समान भाव, सामान जीवन पर विचार करने लगे हैं। बहुत हद तक अहिंसा का मार्ग भी अपनाए हैं। लेकिन अभी भी हम सब अपना-अपना कर्तव्य भूल रहे हैं। जिस दिन मानव चेतना में अपना कर्तव्य का सही मूल, सही अर्थ समझ में आ जाएगा, उस दिन हमारे बीच जगत में एक आदर्श लोकतंत्र दिखाई पड़ेगा।

निष्कर्ष

महात्मा गांधी एक समाज सुधारक, विचारक एवं दूर मनिषी थे। अपने विचारों के माध्यम से भारतीय समाज बहुत परिवर्तन किए, जीवन दर्शन के मार्ग दिखाए और मानवता का  नए  अलंकारिक रूप के बारे में बताए- समझाए। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि जिस तरह से, उन्नीसवी शताब्दी में देश-दुनिया हिंसा की आग में झूलस रहा था, उस स्थिति में अपनी बौद्धिक दृष्टि से स्थिरता लाने में बहुत हद तक कामयाब हुए। । हालांकि गांधी जी ने जो भी बताए वह अपने अखबार यंग इण्डिया और हरिजन के माध्यम से बताये हैं और दोनों अखबारों का अपने आप में बड़ा ही सार्थक अर्थ भी है। यंग इण्डिया (जवान भारत) और हरिजन यानी कि भगवान के संतान। यह दोनों मार्ग आज भी अतुल्य है।
मानवीय स्वतंत्रता को ध्यान में रखकर बात करें तो यह कह सकते हैं कि अभी भी मानवीय जीवन तमाम तरह के नकारात्मकता का गुलाम बना हुआ है। जब तक इन नकारात्मक विचारों से, स्थितियों से आजाद नहीं हो जाते सही अर्थों में आजादी नहीं मिल सकती है। सच्चाई तो यह है कि मानव जगत के अभी भी बहुत से पहलू हैं जिस पर विचार विमर्श करने की जरूरत है। जैसे लोकतंत्र के निर्माण की चेतना में जो विचार उभरा है वह सत्य ही है इसकी पुष्टि हम कैसे करेंगे। आदर्श लोकतंत्र के लिए समान दृष्टि का होना जरूरी है। लेकिन समान दृष्टि की स्थापना कैसे करें? चेतना का स्तर भिन्न होने के कारण सभी के विचार अलग-अलग होते हैं तो अलग-अलग विचारों में समानता किस प्रकार लाया जाए? इन सभी बिन्दुओं पर अभी भी दार्शनिक दृष्टि से बौद्धिक स्तर पर विचार करने की आवश्यकता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि गाँधी के विचार उपयोगी और जन-मानस के लिए लाभकारी नहीं हैं। उन्होंने जो भी विचार और दर्शन, समाजिक-सुधार, आत्म-सुधार-व्यक्तिगत आजादी, अधिकार, ज्ञान, मान-सम्मान के बारे में कहे हैं वे आज भी तर्कसंगत, उपयोगी, मानव कल्याण और जगत के लिए सत्य मालूम पड़ता है।
 
(लेखक परिचयः रॉक्शन यादव, मुंबई विश्वविद्यालय से दर्शनशात्र में स्नात्कोत्तर कर रहे हैं।) इनको आप अपना फीडबैक इनके मोबाइल न.9322116480 पर दे सकते हैं।
 
 

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1 comment

Shashi Bhushan kumar October 10, 2018 at 1:46 am

Nice

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