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बिहारःस्वास्थ्य व्यवस्था का मैला होता आंचल

बिहारः स्वास्थ्य व्यवस्था का मैला होता आंचल

भोजपुरी में एक कहावत है लजाइल बिलइया खंभा नोचे। इन दिनों बिहार सरकार की भी यही हालत हो गई है। स्वास्थ्य के मसले पर विफल रही सरकार आंदोलन कर रहे लोगों पर एअफआईआर कर रही है। वैशाली जिले के हरिवंशपुर के 39 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज किया गया है। उनका कसूर बस इतना था कि वे पानी की किल्लत को लेकर प्रशासन के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे।

आशुतोष कुमार सिंह

हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु ने 1940 के दशक में बिहार के पुर्णिया जिला व आसपास के क्षेत्रों को ध्यान में रखकर ‘मैला आंचल’ नामक उपन्यास लिखा था। इस उपन्यास का नायक डॉ. प्रशांत गांव में रहकर ही कालाजार के कारणों पर रिसर्च करते हैं। अपने रिसर्च में बीमारी की वजहों को रेखांकित करते हुए डॉ. प्रशांत लिखते हैं कि,‘गरीबी और जहालत-इस रोग के दो कीटाणु हैं। एनोफिलिज से भी ज्यादा खतरनाक, सैंडफ्लाई से भी ज्यादा जहरीले…।’ 1940 के दशक में बीमारी के जो कारण डॉ. प्रशांत बताते हैं 80 साल बीत जाने के बाद भी न तो कारण बदला है और न ही स्थिति सुधरी है।

बिहार आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट-2018-19 के आंकड़ों की बात करी जाए तो 2017 में बिहार में 9 लाख ऐसे बुखार के मामले आए जिनके कारणों का पता न तो बिहार सरकार लगा पाई और न ही केन्द्र सरकार। ऐसे में यह कहना गलत न होगा कि बिहार के स्वास्थ्य व्यवस्था का पूरा आंचल ही मैला हो गया है। ऐसे में जबतक सूबे के लोग इस आंचल को साफ करने के लिए आगे नहीं आएंगे बिहार में स्वास्थ्य का हाल सुधरने वाला नहीं है।

चमकी पर शर्मिंदा हुए पीएम

हर छोटी-बड़ी घटनाओं पर ट्वीट करने वाले देश के प्रधान सेवक नरेन्द्र मोदी ने चमकी बुखार से बिहार में मर रहे नौनिहालों के मसले पर तीन सप्ताहों में एक भी ट्वीट करना मुनासिब नहीं समझा। जून के प्रथम सप्ताह में शुरू चमकी या इंसेफलाइटिस ने 175 से ज्यादा नौनिहालों को निगल लिया तब जाकर देश के चौकीदार के मुंह से दो शब्द निकले। उन्होंने कहा कि, ‘आधुनिक युग में ऐसी स्थिति हम सभी के लिए दु:खद और शर्मिंदगी की बात है। इस दु:खद स्थिति में हम राज्य के साथ मिलकर मदद पहुंचा रहे हैं। ऐसी संकट की घड़ी में हमें मिलकर लोगों को बचाना होगा।’

देर आए दुरुस्त आए

देर आए दुरुस्त आए की कहावत को चरितार्थ करते हुए पीएम ने राज्यसभा के मंच से चमकी बुखार से मर रहे बच्चों के मसले को देश के लिए शर्मिदगी से जोड़ा। उन्होंने यह बोलने का साहस किया इसके लिए उनके प्रति थोड़ी सहानुभूति हो सकती है, लेकिन इस तरह की बीमारी से बच्चों की मौत न हो यह सुनिश्चित करने की दिशा में केन्द्र सरकार व राज्य सरकारें कितनी गंभीर है, यह ज्वलंत प्रश्न है।

एक बार फिर से केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने कहा कि, मंत्रालय के रणनीतिक हस्‍तक्षेपों के सकारात्‍मक परिणाम मिल रहे हैं, क्‍योंकि मृत्‍यु दर में तेजी से कमी आई है। 27 जून को उन्होंने कहा कि पिछले 48 घंटों के दौरान एक्‍यूट इनसेफेलोपैथी सिंड्रोम (एईएस) से पीडि़त केवल 5 बच्‍चों को एसकेएमसीएच में भर्ती कराया गया है। उन्होंने कहा कि एसकेएमसीएच में 24 घंटे सेवा प्रदान करने वाली एक परीक्षण सुविधा की स्‍थापना की गई है, जो बच्‍चों में इलेक्‍ट्रोलाइट, लेक्‍टेट, रक्‍त आदि के स्‍तरों की निगरानी करेगा। इस सुविधा में दिल्‍ली के केन्‍द्र सरकार के अस्‍पतालों के बायोकेमिस्‍ट और तकनीशियनों को तैनात किया गया है।

न्यूरो केयर की सुविधा नहीं है

केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन की सक्रियता तो दिख रही है लेकिन सवाल यह उठता है यह सक्रियता सार्थक दिशा में कितनी है। क्या जिन जांचों एवं रिपोर्टों का हवाला डॉ. हर्षवर्धन जी दे रहे हैं वे चमकी बुखार के कारणों को जानने के लिए प्रयाप्त हैं? इस बावत मुजफ्फरपुर से लौटकर आए स्वस्थ भारत (न्यास) के पर्वेक्षक वरिष्ठ न्यूरो सर्जन डॉ. मनीष कुमार का कहना है कि वहां पर केन्द्र सरकार जो सुविधाएं उपलब्ध करा रही है वो पर्याप्त नहीं है।

उनका कहना है कि इस बीमारी का संबंध दिमाग से है। न्यूरो साइंस से है। लेकिन न तो वहां पर एम.आर.आई मशीन है और न ही सीटी स्कैन की सुविधा। ऐसे में कोई कितना ही योग्य चिकित्सक क्यों न हो वह सही अर्थों में इलाज नहीं कर सकता है। उनका कहना है कि इस बीमारी के इलाज में न्यूरो फिजिशियन का होना जरूरी है लेकिन न्यूरों के चिकित्सक को इस बीमारी के कारणों को समझने एवं इसकी गुत्थी सुलझाने में शामिल नहीं किया गया है। ऐसे में जो भी काम हो रहे हैं वह बहुत ही प्राथमिक स्तर पर हैं।

स्वास्थ्य इंडेक्स में नीचे से दूसरे स्थान पर बिहार

डॉ. मनीष बिहार के स्वास्थ्य व्यवस्था की जिस बदहाल तस्वीर की बात कर रहे हैं उसकी पोल नीति आयोग की रिपोर्ट से भी खुल रही है। हाल ही में नीति आयोग ने प्रत्येक राज्य का स्वास्थ्य इंडेक्स जारी किया है। अपनी दूसरी रिपोर्ट में नीति आयोग ने बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था को 21 बड़े राज्यों के स्वास्थ्य सेवा की व्यवस्था के मामले में नीचे से दूसरे स्थान पर रखा है। कहने का मतलब यह है कि बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था लालू-राबड़ी राज्य में जो बिगड़ी वह सुराज या सुशासन में भी नहीं सुधर पाई है। अभी भी बिहार डॉक्टरों की कमी से जूझ रहा है। अस्पतालों में मवेशी बांधे जा रहे हैं। बीमारों के लिए एंबुलेंस सेवा नदारद है। सूत्रों की माने तो 28-28 वर्षों से चिकित्सक अपनी पोस्टिंग की बाट जोह रहे हैं लेकिन बिहार सरकार की स्वास्थ्य महकमा की कुंभकर्णी नींद टूटने का नाम नहीं ले रही है।

लजाइल बिलइया खंभा नोचे

भोजपुरी में एक कहावत है लजाइल बिलइया खंभा नोचे। इन दिनों बिहार सरकार की भी यही हालत हो गई है। स्वास्थ्य के मसले पर विफल रही सरकार आंदोलन कर रहे लोगों पर एअफआईआर कर रही है। वैशाली जिले के हरिवंशपुर के 39 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज किया गया है। उनका कसूर बस इतना था कि वे पानी की किल्लत को लेकर प्रशासन के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे। वे चाह रहे थे कि उन्हें साफ पानी पीने को मिले। अगर सरकारें आम लोगों के सवालों का जवाब पुलिसिया भाषा में देंगी तो फिर लोगों के पास कोर्ट के अलावा दूसरा रास्ता भी नहीं बचता।

सुप्रीम कोर्ट की फटकार

भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती यही है कि जब सरकारे जनता के हितों की रक्षा करने में विफल होती हैं तब न्यायालय सामने आता है। इंसेफ्लाइटिस अथवा चमकी बुखार के मामले में भी नौनिहालों की हो रही मौतों का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है। बिहार में चमकी बुखार से हो रही बच्चों की मौत के मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जाहिर की है। बच्चों की मौत के मामले पर दाखिल एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र, बिहार और यूपी सरकार से जवाब मांगा है।

कोर्ट ने कहा कि बुखार से जिनकी मौत हुई है, वे सब बच्चे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जाहिर करते हुए कहा कि हमनें रिपोर्ट देखी है लोग गांव छोड़ रहे है। सुप्रीम कोर्ट ने जिन तीन बिंदूओं पर जवाब मांगा है, उनमें पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएं, पोषण और साफ-सफाई शामिल है। साथ ही कोर्ट ने कहा कि ये मूल अधिकारों का मामला है। सरकारों ने इससे निपटने के लिए क्या कदम उठाए हैं? बिहार सरकार द्वारा पेश किए गए हलफनामा में डॉक्टरों की कमी का रोना रोया गया है।

ऐसे में सवाल यह उठता है कि गर बिहार में चिकित्सकों की कमी है तो उसके लिए कौन जिम्मेदार है? इतने वर्षों में वहां की सरकार क्या करती रहीं? बच्चों की मौत का हिसाब सरकार को तो देना ही पड़ेगा।

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