स्वस्थ भारत मीडिया
स्वास्थ्य संसद-2023 नीचे की कहानी / BOTTOM STORY

कला एवं साहित्य में स्वास्थ्य चेतना

विवेक रंजन श्रीवास्तव

कहा गया है कि धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ गया और चरित्र गया तो सब कुछ गया। यद्यपि यह उक्ति चरित्र के महत्व को प्रतिपादित करते हुये कही गई है किन्तु ‘स्वास्थ्य गया तो कुछ गया’ रेखांकित करने योग्य है। हमारा शरीर ही जीवन का उद्देश्य निष्पादित करने का माध्यम है। स्वस्थ्य तन में ही स्वस्थ्य मन का निवास होता है और निश्चिंत मन से ही हम जीवन में कुछ कर सकते हैं। कला और साहित्य मन की अभिव्यक्ति के परिणाम ही हैं। स्वास्थ्य और साहित्य का आपस में गहरा संबंध होता है। स्वस्थ साहित्य समाज को स्वस्थ रखने में अहम भूमिका अदा करता है। साहित्य में समाज का व्यापक हित सन्नहित होना वांछित है और समाज में स्वास्थ्य चेतना जागृत बनी रहे, इसके लिये निरंतर सद्साहित्य का सृजन, पठन-पाठन, संगीत, नाटक, फिल्म, मूर्ति कला, पेंटिंग आदि कलाओं में हमें स्वास्थ्य विषयक कृतियां देखने-सुनने को मिलती हैं। यही नहीं, नवीनतम विज्ञान के अनुसार मनोरोगों के निदान में कला चिकित्सा का उपयोग बहुतायत से किया जा रहा है। व्यक्ति की कलात्मक अभिव्यक्ति के जरिये मनोचिकित्सक द्वारा विश्लेषण किये जाते हैं और उससे उसके मनोभाव समझे जाते हैं। बच्चों के विकास में कागज के विभिन्न आर्ट ओरोगामी, पेंटिग, मूर्ति कला आदि का बहुत योगदान होता है। स्वास्थ्य दर्पण, आरोग्य, आयुष, निरोगधाम आदि अनेकानेक पत्रिकायें बुक स्टॉल्स पर सहज ही मिल जाती हैं। फिल्में, टी वी और रेडियो ऐसे कला माध्यम हैं जिनकी बदौलत साहित्य और कला का व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा है। जाने कितनी ही उल्लेखनीय हिन्दी फिल्में हैं जिनमें रोग विशेष को कथानक बनाया गया है। अपेक्षाकृत उपेक्षित अनेक बीमारियों के विषय में जनमानस की स्वास्थ्य चेतना जगाने में फिल्मों का योगदान अप्रतिम है।

फिल्म आनंद में कैंसर के विषय में, फिल्म पा में औरो नाम के एक बच्चे की कहानी है जिसकी उम्र 13 साल है और जिसे प्रोजेरिया नाम की बीमारी हो जाती है। इस बीमारी में व्यक्ति बहुत तेजी से बूढ़ा होने लगता है। फिल्म गुप्त रोग में स्त्री-पुरुष संबंधों के बारे में, फिल्म तारे जमीन पर में ईशान अपने बोर्डिंग स्कूल में कुछ भी ठीक से नहीं कर पाता है। सौभाग्य से एक नया कला शिक्षक उसे यह पता लगाने में मदद करता है कि उसे डिस्लेक्सिया है और वह उसकी क्षमता को पहचानने में मदद करता है। फिल्म हिचकी में रानी मुखर्जी ने एक ऐसी टीचर का किरदार निभाया जिसे टॉरेट सिंड्रोम हैं। इसमें महिलाओं को बार-बार हिचकी आने के चलते बोलने और समझने में दिक्कत होती है। इसी तरह पिकू में कांस्टीपेशन, गजनी में एमनेसिया,‘माई नेम इज खान में एस्परगर सिंड्रोम को लोगों के सामने पेश किया गया। एस्परगर सिंड्रोम एक तरह का परवेसिव डेवलपमेंट डिसऑर्डर है। इसका मरीज गुमनामी में रहना पसंद करता है। शुभ मंगल सावधान में नपुंसकता पर, ए दिल है मुश्किल में टर्मिनल कैंसर पर जनजागृति पैदा करने में कलात्मक सफलता देखने मिलती है। ढेरों फिल्में स्वास्थ्य के विभिन्न  पहलुओं पर केंद्रित हैं।

साहित्य में हम देखते हैं कि अनेक उपन्यास, कहानियां समय-समय पर नायक या नायिका की टी बी, कैंसर या किसी अन्य बीमारी पर केंद्रित होने के कारण मर्मांतक, हृदय स्पर्शी और कालजयी बन गयी। स्वास्थ्य संबंधी साहित्य अत्यंत लोकप्रिय है। हर अखबार कोई न कोई स्वास्थ्य परिशिष्ट या स्तंभ अवश्य चलाता है। इस पृष्ठभूमि में मेरा अभिमत है कि कला एवं साहित्य में स्वास्थ्य चेतना हमेशा से बनी रही है किन्तु समय के साथ यह और जरूरी हो गया है कि कला एवं साहित्य में स्वास्थ्य पर और काम किये जायें।

कोरोना आपदा एक आकस्मिक वैश्विक स्वास्थ्य समस्या का विस्फोट था। रचनाकारों ने इसका सकारात्मक उपयोग किया। लॉकडाउन में लोगों को खूब समय मिला। मैंने कोरोना काल के व्यंग्य लेखों का संग्रह लॉकडाउन नाम से संपादित किया। कोरोना काल की कविताओं के कई संग्रह अनेक प्रकाशनों से छपे हैं। पिछले दिनों योग, इम्युनिटी बढ़ाने के नुस्खों पर भी बहुत सारा लिखा गया है।

मैं अपने पहले कविता संग्रह आक्रोश से यह कविता उदृत करना चाहता हूं….

अस्पताल

जिंदगी कैद है यहाँ आक्सीजन के सिलेंडर में

उल्टी लटकी है सिलाइन ग्लूकोज या खून की बोतल में

शुगर कोटेड हैं टेबलेट्स और कैप्सूल,

पर जिंदगी बड़ी कड़वी है.

माँस के लोथड़े में इंजेक्शन की चुभन

जाने कैसी तो होती है अस्पताल की गंध.

सफेद नर्स, डाक्टर ज्यादा बगुले, कुछ हंस

गले में झूलता स्टेथेस्कोप,

क्या सचमुच सुन पाता है

कितना किसका जिंदगी से नाता है

अनेक व्यंग्य लेखों में भी सहज ही मेरा स्वास्थ्य संबंधी लिखना होता रहा है। उदाहरण के तौर पर मेरा एक व्यंग्य छपा था मेरे परिवार का स्वास्थ्य अभियान, जिसमें स्वास्थ्य उपकरणों के बाजारवाद पर कटाक्ष किया गया है। एक अन्य व्यंग्य है ब्रांडेड वर वधू जिसमें कल्पना की गई है कि मेडिकल रिपोर्ट मिलाकर कम्प्यूटर जी शादियां तय करेंगे जिससे आर एच पाजिटिव निगेटिव लड़के- लड़कियों की शादी से थैलेसिमा जैसी समस्या का निदान हो सकेगा। ब्लड टेस्ट, प्रदूषण और स्वास्थ्य पर उसके दुष्प्रभाव आदि लेख भी लिखे गये।

जनसंख्या नियंत्रण, कुपोषण के विरुद्ध अभियान, शिशु स्वास्थ्य, शिशु मृत्यु दर को कम करने, चेचक नियंत्रण, पोलियो नियंत्रण आदि मुद्दों पर नुक्कड़ नाटक हमने देखे हैं। गिरिराज शरण अग्रवाल की प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित किताब स्वास्थ्य व्यवस्था पर व्यंग्य में वे लिखते हैं…अस्पताल हो और वह भी सरकारी तो उसका अलग आनंद है। बस आपमें इस अद्भुत पर्यटन स्थल का आनंद लेने की क्षमता होनी चाहिये।

परसाई जी के व्यंग्य निंदा रस से अंश पाठ उद्धृत करना चाहता हूं….

‘निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं। निंदा खून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से मांसपेशियाँ पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है। संतों को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं। मो सम कौन कुटिल खल कामी, यह संत की विनय और आत्मग्लानि नहीं, टॉनिक है। संत बड़ा कांइयाँ होता है। हम समझते हैं वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है।

स्वास्थ्य विज्ञान की एक मूल स्थापना तो मैंने कर दी। अब डॉक्टरों का कुल इतना काम बचा कि वे शोध करें कि किस तरह की निंदा में कौन से और कितने विटामिन होते हैं, कितना प्रोटीन होता है। मेरा अंदाज है, स्त्री संबंधी निंदा में प्रोटीन बड़ी मात्रा में और शराब संबंधी निंदा में विटामिन बहुतायत में होते हैं। परसाई जी ने अपने अनेक व्यंग्य लेखों में स्वास्थ्य विषयक विसंगतियां उठाई है। उदाहरण के तौर पर बम और बीमारी, बुखार आ गया, चीनी डाक्टर भागा, रामभरोसे का इलाज, निठल्ले की डायरी में अनेक प्रसंगों में परसाई जी के स्वास्थ्य चेतना संदर्भ मिलते हैं। शरद जोशी जी के प्रतिदिन में अनेक मौकों पर, रवीन्द्र नाथ त्यागी जी के  व्यंग्यों में, मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में सहज रूप से अनेक प्रसंगों में हमें नायक या नायिका या किरदारों की बीमारियों के वर्णन मिलते हैं। तत्कालीन स्वास्थ्य व्यवस्थाओं, अंधविश्वास, रूढ़ियों पर प्रहार, पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों के स्वास्थ्य-खानपान में भेदभाव को हमेशा  रचनाकारों ने इंगित किया है और समाज को समय से आगे लाने में अपनी लेखनी से प्रयासरत रहे हैं।

दिल्ली में स्वस्थ्य भारत ने ही वर्ष 2019 में एक राष्ट्रीय लघुकथा संगोष्ठी का आयोजन किया था जिसमें स्वास्थ्य विषयक लघुकथायें ही पढ़ी गई थी और यह गोष्ठी बहुचर्चित रही।

कला चिकित्सा के सिद्धांतों में मानवतावाद, रचनात्मकता, भावनात्मक संघर्षों को सुलझाना, आत्म-जागरूकता को बढ़ावा देना और व्यक्तित्व विकास शामिल है। एक पेशे के रूप में कला चिकित्सा का उदय स्वतंत्र रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप में हुआ। शब्द आर्ट थेरेपी का प्रयोग 1942 में ब्रिटिश कलाकार एड्रियन हिल द्वारा किया गया था। उन्होंने तपेदिक से उबरने के दौरान पेंटिंग और ड्राइंग से स्वास्थ्य लाभों की खोज की थी।

साहित्य कला और स्वास्थ्य चेतना परस्पर गुंथे हुये विषय हैं यद्यपि अब तक इस तरह किसी समालोचक ने स्वास्थ्य साहित्य को विभक्त करके कोई रेखांकन नहीं किया है। यह आयोजन साहित्य में नितांत नई समीक्षा दृष्टि है। मेरा अभिमत है कि इस दृष्टि को और विस्तार दिया जाये। स्वास्थ्य संबंधी कहानियां, कवितायें, व्यंग्य, नाटकों के संग्रह प्रकाशित किये जा सकते हैं। युवा शोधार्थी इन धारणाओं में पीएच डी कर सकते हैं। जन स्वास्थ्य संसद जैसे और भी परिचर्चायें तथा आयोजन और होने चाहिये जिससे लोगों में निरोगी काया के प्रति जागरूकता का वातावरण सृजित हो।

(स्वास्थ्य संसद-2023 के एक सत्र में दिये गये उद्बोधन का अंश)

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