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जेनेरिक बनाम ब्रांडेड दवा पर बहस की जरूरत

डॉ. संजय नगराल

मुंबई। मेडिकल बिरादरी में कुछ दिन पहले तक NMC की तरफ से डॉक्टरों के लिए नई आचार संहिता पर बहस चल रही थी। मसला ब्रांडेड दवा को छोड़ जेनेरिक दवाएं लिखने को लेकर था। उधर डॉक्टर इसके खिलाफ हैं। IMA का दावा है कि इससे खराब गुणवत्ता वाली दवाओं को बढ़ावा मिलेगा। यह बहस सिर्फ तकनीकी या आंतरिक नहीं है। इसका असर सभी पर पड़ता है।

अचानक यह मुद्दा क्यों बन गया?

2002 में MCI कोड में उल्लेख किया गया है कि डॉक्टरों को जहां तक संभव हो जेनेरिक दवाएं लिखनी चाहिए। 2016 में इस वाक्यांश को एक निर्देश के जरिये बदल दिया गया था। हकीकत में कुछ भी नहीं बदला। इसे बड़े पैमाने पर नजरअंदाज किया गया। अब यह अचानक एक विवादास्पद मुद्दा क्यों बन गया है? क्या यह उन रिपोर्टों के कारण है कि NMC इस विशेष खंड के आधार पर डॉक्टरों के खिलाफ कार्रवाई करेगा? या इसलिए कि संहिता ने दंडों को सूचीबद्ध किया है। साथ ही शिकायतों के लिए एक तंत्र बनाया है? या फिर ऐसा लग रहा है कि प्रधानमंत्री समेत मौजूदा सरकार इस मुद्दे पर उत्सुक है?
फैक्ट यह है कि जेनेरिक दवाएं वे होती हैं जिनका उत्पादन तब होता है जब कोई नई दवा (इनोवेटर) अपना पेटेंट खो देता है। इस प्रकार उसका एकाधिकार खत्म हो जाता है। इनोवेटर्स की तुलना में जेनेरिक दवाएं काफी सस्ती हैं। भारत में दो प्रकार की जेनेरिक दवाएं हैं। प्राइवेट डॉक्टर जो दवा लिखते हैं, उसका बड़ा हिस्सा बड़ी कंपनियों की तरफ से निर्मित ब्रांडेड जेनेरिक दवाओं का होता है। छोटी कंपनियां जो गैर-ब्रांडेड जेनेरिक दवाएं बनाती हैं, उन्हें सार्वजनिक अस्पतालों, सार्वजनिक क्षेत्र की योजनाओं और सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों के जरिये थोक में खरीदा जाता है। ये जन औषधि स्टोर्स के माध्यम से भी उपलब्ध हैं।

ब्रांडेड और गैर ब्रांडेड के लिए समान टेस्ट

ब्रांडेड और गैर-ब्रांडेड दोनों जेनरिक दवाओं को लाइसेंस के लिए एक ही प्रकार के टेस्ट से गुजरना पड़ता है। बायोइक्विवलेंस नाम का एक टेस्ट है। यह केवल ओरल डोज के प्रकार पर लागू होता है। इसमें सामान्य ह्यूमन वॉलिंटीयर्स पर स्टडी शामिल होती है। इसमें यह आकलन किया जाता है कि दवा अच्छी तरह से अवशोषित हो गई है या नहीं। इसे सभी नए जेनेरिक फॉर्मूलेशन के लिए 2017 से अनिवार्य कर दिया गया है। फॉर्मूलेशन बनाने के लिए आवश्यक साल्ट अक्सर थोक निर्माताओं के जरिये उत्पादित किया जाता है। इनमें से अब मुख्य रूप से चीन की कंपनियां हैं। कंपनियां इसे खरीदकर टैबलेट में बदलती हैं। फिर इसकी ब्रांडिंग करती हैं। कभी-कभी पूरा उत्पादन बड़ी कंपनियों की तरफ से छोटी कंपनियों को आउटसोर्स कर दिया जाता है। कंपनी ही इसे बाजार में उतारती है। ऐसे उदाहरण हैं कि प्रतिष्ठित कंपनियां एक ही दवा को दो अलग-अलग ब्रांड नामों के तहत अलग-अलग कीमतों पर बेचती हैं। एक खुदरा ब्रांडेड बाजार के लिए और दूसरा जेनेरिक के लिए।

प्रेस्क्रिप्शन पर अनैतिक मार्केटिंग का प्रभाव

भारतीय बाजार अतार्किक दवा कॉम्बिनेशन से भरा पड़ा है। इनका टेस्ट करना और भी कठिन है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों सहित छोटे जेनेरिक और बड़े फार्मा दोनों ही गुणवत्ता के मुद्दों पर फंस गए हैं। पूरे भारत में दुकानों से एकत्र किए गए हजारों नमूनों पर तीन राष्ट्रीय औषधि सर्वेक्षणों से पता चला है कि नॉट स्टैंडर्ड वाली दवाओं का अनुपात 2004-05 में 7.5 फीसद से घटकर 2014-16 में 3 फीसद हो गया है। एक सर्वेक्षण में फाइजर और एलेम्बिक, दोनों प्रतिष्ठित कंपनियों के क्रमशः 10 और 3.7 फीसद नमूने घटिया थे। प्रेस्क्रिप्शन में सामान्य नाम के उपयोग की सिफारिश नैतिक संहिता में क्यों होनी चाहिए? ऊंची लागत, घटिया और अतार्किक दवाएं मरीजों को नुकसान पहुंचाती हैं। दुनिया भर में प्रेस्क्रिप्शन अनैतिक फार्मा मार्केटिंग से प्रभावित हैं। लागत कम करके पहुंच में सुधार करना भी एक नैतिक प्रतिबद्धता है।

डॉक्टरों को आपत्ति का कारण

तो फिर डॉक्टरों को इस पर आपत्ति क्यों है? एक तर्क यह है कि यदि कोई मरीज सामान्य नुस्खे के साथ केमिस्ट के पास जाता है तो केमिस्ट ब्रांड तय करता है। डॉक्टर गुणवत्ता पर नियंत्रण खो देता है। यह तर्क कई धारणाएं बनाता है कि ब्रांडों के बीच गुणवत्ता में बहुत बड़ा अंतर है। डॉक्टर अपने लिखे गए ब्रांडों की गुणवत्ता के प्रति आश्वस्त हैं। केमिस्ट प्रोत्साहन के कारण या रोगी से सस्ते ब्रांड की मांग करने पर घटिया ब्रांड दे देगा। क्या लागत गुणवत्ता से संबंधित है? क्या जेनेरिक दवाएं घटिया हैं क्योंकि वे सस्ती हैं? इससे जुड़े कई सवाल है।

कम महंगी दवाओं का असर

2018 में प्रकाशित कर्नाटक की स्टडी में पब्लिक हेल्थ रिसर्चर्स ने चार सामान्य डायबिटिज और हाइ ब्लड प्रेशर दवाओं के ब्रांडेड और जेनेरिक वेरिएंट के बीच कई गुणवत्ता मानकों की तुलना की। परिणामों से स्पष्ट रूप से गुणवत्ता में कोई अंतर नहीं दिखा। भारत में लिवर प्रत्यारोपण के शुरुआती दिनों में इनोवेटर इम्यूनोस्प्रेसिव दवाओं ने इसे रोगियों के लिए बेहद महंगा बना दिया था। जब भारतीय कंपनियों ने अपने उत्पाद लॉन्च किए तो गुणवत्ता का मुद्दा उठाया गया। हालांकि, डॉक्टर्स ब्लड लेवल को लेकर स्टडी अध्ययन कर रहे थे, इसलिए वे आश्वस्त हो गए। ऐसे में प्रोडक्ट्स का जल्द ही व्यापक रूप से उपयोग किया जाने लगा। लिवर प्रत्यारोपण अधिक किफायती हो गया है। कैंसर थेरेपी में बायोसिमिलर, जिसे कुछ परीक्षण चरणों को छोड़ने की अनुमति है, ने पहुंच में काफी सुधार हुआ है। कैंसर, HIV या हेपेटाइटिस सी के लिए काफी कम महंगी दवाओं ने बहुत बड़ा प्रभाव डाला है।

प्रेस्क्रिप्शन के लिए डॉक्टर जवाबदेह

हेल्थकेयर में क्वालिटी और लागत दोनों महत्वपूर्ण हैं। मुनाफाखोरी से बचाने के लिए गुणवत्ता का सहारा लिया जा सकता है। अस्पतालों को केवल महंगी दवाओं का स्टॉक रखने के लिए जाना जाता है क्योंकि वे अधिकतम मार्जिन देते हैं। यदि जेनेरिक दवाएं खराब गुणवत्ता की हैं तो उन्हें सार्वजनिक अस्पतालों और फार्मेसियों के माध्यम से हमारे लाखों नागरिकों पर थोपना अनुचित है। यदि ऐसा नहीं है, तो क्या हमें मरीजों को सस्ती दवाएं खरीदने के विकल्प से वंचित कर देना चाहिए? जब हम सामान्य प्रेस्क्रिप्शन पर सवाल उठाते हैं, तो क्या हम अतार्किक दवाओं और कॉम्बिनेशंस को लिखना बंद करने का भी निर्णय ले सकते हैं? एंटीबायोटिक दवाओं के बड़े पैमाने पर उपयोग को कम करें जो भारत में प्रतिरोध की जानलेवा महामारी को बढ़ावा दे रहा है? दवा की गुणवत्ता का विनियमन मुख्य रूप से सरकार की जिम्मेदारी है। बेशक, मरीजों के प्रति हमारा दायित्व है। लेकिन हम तथ्यों को दुष्प्रचार से अलग करके बेहतर न्याय कर सकते हैं। यह स्वीकार करें कि विश्व स्तर पर डॉक्टर दवा के प्रेस्क्रिप्शन के लिए जवाबदेह हैं। इसीलिए हमारे मरीज हम पर भरोसा करते हैं।

(मुंबई के सर्जन के लेख का संपादित अंश)

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