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विकास के नव-रसायन से बचना होगा

Abhilasha Dwivedi International Life Coach

रसायनकिक खादों का अंधाधुंध प्रयोग से बढ़ती उपज हमारी भौतिक विकास का मानक हो सकता है लेकिन इसे मानवीय विकास का मानक नहीं माना जा सकता है। जहर को अमृत न समझने की सीख देते हुए इस संदर्भ को विस्तार से रेखांकित कर रही हैं अंतरराष्ट्रीय लाइफ कोच अभिलाषा द्विवेदी

 
नई दिल्ली/एसबीएम
 
दो दिन में दो अभिनेताओं को हमने खो दिया है
कल फिल्म अभिनेता इरफान खान की मौत कैंसर के कारण हुए थी। आज ऋषि कपूर की मौत भी कैंसर के कारण हो गई है। ऐसे मेंं हमें यह विचार करना होगा कि इस तरह की बीमारियों की जड़ में क्या है? इस भौतिकतावाद के आधुनिक युग में वैज्ञानिक तकनीकों से मानव द्वारा प्रकृति के दोहन की सीमा कहां तक होनी चाहिए? जहां हम विज्ञान की नज़र में लगातार सफलता की नयी ऊंचाइयां छू रहे हैं वही इन तकनीकियों के अत्यधिक प्रयोग से हमें गंभीर दुष्परिणाम भी झेलने पड़ रहे हैं।
जहर को अमृत समझने की भूल न करें
फ़िलहाल हम विश्व के तमाम सन्दर्भों की बात किनारे रख सबसे पहले भारत की बात करते हैं। भारत कृषि प्रधान देश है। कृषि उत्पादन बढ़ने के लिए कृषि रोगों, खरपतवार को कीटनाशकों से ख़त्म किया जा रहा है। अनाज, सब्जियों, फल-फूल, वनस्पति की सुरक्षा की बात कह कर विभिन्न रसायनों का उत्पादन और प्रयोग हो रहा है। इन रसायनों की शक्ति और मात्रा धीरे-धीरे बहुत अधिक बढ़ाई जा रही है।
ऐसे कीटनाशक रसायनविज्ञान की उपलब्धी हैं। साथ ही अर्थव्यवस्था के लिए बाज़ार भी। परन्तु इन रसायनों के लगातार प्रयोग से मिट्टी, हवा, पानी की मौलिकता तो खत्म हो ही रही है साथ ही इनका कु-प्रभाव हमारे भोजन पर भी देखने को मिल रहा है।
इन कीटनाशकों पर छोटे अक्षरों में चेतावनी लिखी होती है। क्यों? क्योंकि यह ज़हर है। यह कैसा तथ्य है, जो इस बात की चेतावनी दे रहे हैं की यह रसायन त्वचा के संपर्क में न आये वो ज़हर हवा, पानी, भोजन के माध्यम से हमारे शरीर में पहुंच रहा है। ये खतरनाक रसायन हमारे शरीर के उत्सर्जन तंत्र से बाहर नहीं निकलता बल्कि शरीर की कोशिकाओं में फ़ैल कर कई गंभीर बिमारियों को जन्म देता है।
कैंसर से होने वाली मौतों में भारत का स्थान दूसरा
हम आंकड़ों की बात करें तो इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर के अनुसार #कैंसर से होने वाली मौतों में #भारत विश्व में #दूसरे स्थान पर है। अमेरिका के कैंसर पैनल की ताज़ा रिपोर्ट को माने तो कैंसर के पर्यावरणीय कारक कीटनाशक, हानिकारक रसायन और रेडिएशन हैं। ये रसायन मनुष्य के प्रतिरक्षा (#immune_system) और अन्तः –स्रावी (#endochrine) तंत्र को प्रभावित करता है, जिससे कैंसर का खतरा कई गुना बढ़ जाता है। बच्चों में कैंसर की आशंका का सम्बन्ध गर्भ धारण के पहले माता-पिता के कीटनाशक एक्सपोज़र से माना गया है। जो अनुवांशिक है। हमने रसायन के बल पर पैदावार तो बढ़ा ली, पर क्या वास्तव में इसे मानव जीवन का विकास समझा जा सकता है?
कैंसर का यह स्वरूप है भयावह
किसानो में कीटनाशक के संपर्क में आने वाले पुरुषों में प्रोस्टेट कैंसर तथा महिलाओं में मलोनोमा तथा ओवेरियन कैंसर की आशंका अधिक पायी गयी। दक्षिण पंजाब के इलाको में सन 2020 के बाद कैंसर रोगियों की एक साथ बढ़ी संख्या ने हैरान कर दिया। सी ई ए 2005 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार भटिंडा के एक गाँव में तो 85% कैंसर के मामले आये थे। फरीदकोट के कैंसर अस्पताल में आज भी कपास बेल्ट से प्रतिदिन 30-35 नए मामले दर्ज होते हैं। इसी क्षेत्र के संगरूर के पास कुछ गाँव में लोगों ने कीटनाशक की भयावहता को समझ कर जैविक खेती शुरू की तो कैंसर के नए मामलों में बहुत कमी आई। ये आंकड़े यह बताने के लिए पर्याप्त हैं की विज्ञान ने यदि पैदावार बढ़ाने के लिए रसायन का सुझाव दिया तो उसक प्रयोग मात्र आर्थिक लाभ के एकांगी विचार के साथ करना ठीक नहीं।
इन गांवों के पानी का रंग बदल रहा है
गाज़ियाबाद के गाँवों में कुछ वर्षों से भूमिगत पानी का रंग बदलने लगा है। जो कारखानों के केमिकल के पानी में मिलने की वजह से है। वहां हेपेटाईटिस और अन्य लीवर सम्बंधित बिमारियों से कई लोगों की जान भी गई है। अभी कुछ ही महीनों पहले दिल्ली में वायु प्रदूषण के अभी तक के अपने सबसे खतरनाक स्तर पर पहुंचने की ख़बर हम सबने देखी। अब सभी को एयर क्लीनर, रूम एयर फ़िल्टर लगाने की सलाह दी जाती है। मामला अति गंभीर होने पर ग्रीन ट्रिब्यूनल की आपात कालीन बैठक बुलाई जाती है। पर उसके निर्देशों का पालन फिर भी नहीं किया जाता है।

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हमारी जीवन शैली का दुष्परिणाम
ये सब आज की सामान्य जीवन शैली की भयावहता है। जब हम किसी भोपाल गैस त्रासदी की बात नहीं कर रहे। केरल और आसपास के राज्यों में कीटनाशक के भारी प्रयोग से हुए स्वास्थ्य हानि की बात भी नहीं कर रहे। हम तो सिर्फ राजधानी क्षेत्र के आसपास नियमित रूप से चल रहे कल-कारखाने और यहाँ 70 लाख के करीब गाड़ियों से होने वाले प्रदूषण की समस्या की बात कर रहे हैं। हमने भौतिक प्रगति तो की पर क्या यह मानव जीवन का विकास है?

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प्रकृति को समझना होगा
क्यों न प्रकृति हमारे साथ ऐसा व्यवहार करे? उसने हमें बार-बार चेतावनी दी। तमाम बीमारियों ने लोगों को अपनी गिरफ्त में जकड़ भी लिया है। फिर भी भौतिकतावाद का नशा ऐसा चढ़ा है कि उतरने का नाम ही नहीं ले रहा है। क्या सच में यह सभी मनुष्यों का विचार था? या हमें बाज़ारवाद के युग में ऑब्जेक्ट मात्र समझ कर हम पर प्रयोग होते रहे हैं? क्या दुनिया बिल्कुल वैसी ही चल रही है जैसा समान्य मनुष्य देख, समझ पाता है? नहीं साधारण मनुष्य जीवन की मूल भूत आवश्यकताओं को पूरा कर के, प्रकृति के साहचर्य में जीवन राग गुनगुनाना चाहता था। उसके लिए अपनों की जो परिभाषा थी उस दायरे में जीवन के पीछे भागना नहीं बल्कि जीवन जीना चाहता है/था।
दशकों बाद हम स्वविवेक से काम कर पा रहे हैं
आज इस एक महीने के lockdown में बहुत सारे लोगों को यह एहसास होने लगा है। क्योंकि सिर्फ एक महीने से ये बाज़ार का संजाल जिसे मायाजाल कह सकते हैं वो मनुष्यों के मष्तिष्क से खेल नहीं रहा है। और मनुष्य अपने मौलिक विवेक, अपनी मूल प्रकृति के अनुरूप अपनी आवश्यकताओं और जीवन की गुणवत्ता को समझने में स्वयं को समर्थ पा रहा है।
 

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