नई दिल्ली। भारतीय शोधकर्ताओं की एक ताजा खोज से जैव विविधता संरक्षण के वैश्विक प्रयासों को बढ़ावा मिल सकता है। अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों समेत बंगलूरू स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान (प्प्ैब) के शोधकर्ताओं के संयुक्त अध्ययन में पता चला है कि भारत के पूर्वी घाट, और पश्चिमी घाट के पूर्वी किनारों पर स्थित घास के मैदान पौधों की नई प्रजातियों की खोज के लिए समृद्ध स्रोत हो सकते हैं।
घास के मैदान बने शोध के केंद्र
पौधों की नई प्रजातियों की खोज के लिए वैज्ञानिक अब तक उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में वनों पर ही मुख्य रूप से अपना ध्यान केंद्रित करते रहे हैं। घास के मैदानों को इस धारणा के आधार पर नजरअंदाज कर दिया जाता है कि वे जंगलों के कृत्रिम क्षरण से बने हैं। अक्सर मान लिया जाता है कि घास के मैदानों में केवल पहले से ही ज्ञात कुछ प्रजातियाँ हो सकती हैं, और वहाँ कुछ भी नया मिलने की उम्मीद नहीं है। हाल के अध्ययनों ने इस धारणा को गलत पाया है। विशेष रूप से, भारत में हाल के वर्षों में घास के मैदानों से कई नई प्रजातियों की खोज की गई है। लेकिन, डेटा बिखरा हुआ था, और अध्ययन की दृष्टि से घास के मैदानों की काफी हद तक अनदेखी हो रही थी।
फूलों के आंकड़ों की जांच
इस अध्ययन में, राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय पौधों के वर्गीकरण (ज्ंगवदवउपब) और पादप वितरण (थ्सवतपेजपब) संबंधी आंकड़े एकत्र कर विश्लेषण किया गया है। शोधकर्ताओं ने भारतीय सवाना तक सीमित या स्थानिक पौधों की तलाश के लिए फूलों के आंकड़ों की जाँच शुरू की। उन्होंने यह जानने का प्रयास किया कि क्या किसी समय और स्थान विशेष में प्रजातियों की खोज के पीछे कोई विशिष्ट पैटर्न होता है, और क्या कोई प्रमुख कारक यह अनुमान लगाने में मददगार हो सकता है कि नई प्रजातियों की खोज कहाँ की जा सकती है।
206 प्रजातियों की खोज
शोधकर्ताओं ने बताया कि भारतीय सवाना से अब तक 206 स्थानिक पौधों की प्रजातियों की खोज की गई है, और इनमें से 43 प्रजातियों का वर्णन पिछले दो दशकों के दौरान ही किया गया है। इस अध्ययन में यह भी पता चला है कि पूर्वी घाट का पर्वतीय क्षेत्र और पश्चिमी घाट के पर्वतीय क्षेत्र का पूर्वी किनारा नई प्रजातियों की खोज के लिए एक समृद्ध स्रोत हो सकता है। इसके अलावा, अध्ययन से संकेत मिलता है कि नई प्रजातियों के छोटे कद के होने, और उनके ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पाये जाने की अधिक संभावना है।
जांच में ये भी रहे शामिल
इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ताओं में, टेक्सास ए.-ऐंड-एम. विश्वविद्यालय, अमेरिका के पारिस्थितिकी और संरक्षण जीवविज्ञान विभाग के आशीष नेर्लेकर, राजीव गाँधी क्षेत्रीय प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय, सवाई माधोपुर के शोधकर्ता आलोक आर. चोरघे, शिवाजी विश्वविद्यालय, कोल्हापुर के जगदीश वी. दलवी, इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ साइंस के राजा कुल्लेस्वामी कुसोम, मदुरा काॅलेज, मदुरै के सुब्बिया करुप्पुसामी, गुब्बी लैब्स, कर्नाटक के विग्नेश कामथ, महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी आॅफ बड़ौदा के रितेश पोकर, अशोका ट्रस्ट फाॅर रिसर्च इन इकोलाॅजी ऐंड द एन्वायरनमेंट के गणेशन रेंगियन, और सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के मिलिंद एम. सरदेसाई और एमवीपी समाज कला, वाणिज्य और विज्ञान काॅलेज, त्र्यंबकेश्वर, महाराष्ट्र के शरद एस. कांबले शामिल हैं।यह अध्ययन एसोसिएशन फाॅर ट्राॅपिकल बायोलाॅजी ऐंड कंजर्वेशन की शोध पत्रिका बायोट्रोपिका में प्रकाशित किया गया है।
इंडिया साइंस वायर से साभार