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कोरोना से लड़ते गांव-देहात को सलाम

कोरोना ने जब आक्रमण किया तब सबकी चिंता यहीं थी कि गांव-देहात  इससे कैसे लड़ेंगे? इसके उलट भारतीय गांव-देहातोंं ने अपने सामूहिक चेतना का परिचय देते हुए कोरोना से शानदार तरीके से जंग लड़ा है। उनकी लड़ाई को सलाम कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार उमेश चतुर्वेदी

 नई दिल्ली/ एसबीएम विशेष
 दुनिया को गिरफ्त में ले चुकी कोरोना को लेकर भारत में सबसे बड़ी चिंता यह थी कि अगर इसने देहाती इलाकों में पैर पसार लिए तो फिर भयावह नतीजों के लिए देश को तैयार रहना होगा। भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का जो हाल है, उसे लेकर ऐसी चिंता होना स्वाभाविक ही है। वैश्विक स्वास्थ्य मानकों पर दुनिया में दूसरे नंबर पर स्थित देश इटली एवं दुनिया की आर्थिक-सामरिक महाशक्ति अमेरिका की हालत देखकर अगर चिंता नहीं बढ़ती तो ही हैरत होती। वैश्विक स्वास्थ्य मानकों के हिसाब से दुनिया में भारत का 112 वां नंबर है। लेकिन करीब 135 करोड़ की आबादी वाले देश में कोरोना वैसी विभीषिका नहीं बन सका है तो इसके लिए लोगों की सामूहिक चेतना को श्रेय देना होगा।

गांव वालों की जागरुुकता बहुत कुछ कहती है

आज हालत यह है कि जिन सुदूर देहाती इलाकों के लोग भी कोरोना से बचाव के लिए जागरूक हो चुके हैं। कई गांवों में लोग या तो खुद पहरा दे रहे हैं या फिर वहां की महिलाओं ने मोर्चा संभाल रखा है। कुछ गांवों के लोगों ने भी खुद ही साफ-सफाई का इंतजाम अपने ही स्तर पर जारी रखा है।

कोविड-19 पर स्वास्थ्य मंत्री ने दी यह अच्छी खबर

जब 24 मार्च को महाबंदी की घोषणा के बाद दिल्ली, मुंबई या ऐसे ही महानगरों से मजदूरों का जो पलायन हुआ, उससे महामारी की आंशका और बढ़ गई थी। लेकिन गांव-गांव के लोगों की जागरूकता इस मामले में भारी पड़ी। उत्तर प्रदेश में बलिया जिले के हथौज गांव निवासी धनंजय राय बताते हैं कि सुविधाविहीन बलिया जैसे इलाके में भी जागरूकता का आलम यह रहा कि जैसे ही बाहर से कोई व्यक्ति गांव आया और उसने क्वारंटाइन होने के नियम का उल्लंघन किया, लोगों ने स्थानीय थाना या एसडीएम को फोन कर दिया। इसके बाद पुलिस ने भी देर नहीं लगाई और ऐसे लोगों को तुरंत क्वारंटाइन सेंटर में भेज दिया। यह कहानी सिर्फ बलिया की ही नहीं है। उत्तर प्रदेश और बिहार के तकरीबन हर उस जिले की है, जहां के लोग दिल्ली, मुंबई, हरियाणा या दूसरी जगहों पर पलायन के बाद मजदूरी करने को अभिशप्त हैं।

कोरोना से जंग में इसी सामूहिकता की है जरूरत

अव्वल तो दोनों राज्यों के गांवों में राज्य सरकार की ओर से स्कूलों या पंचायत भवनों में क्वारंटाइन केंद्र बनाए गए हैं। जब लोग अपने गांवों में पहुंचे तो लोगों ने उन्हें गांव की सीमा पर ही रोक लिया। कई जगहों से ऐसी भी खबरें आईं कि अगर कोई व्यक्ति अपने घर भी पहुंच गया तो लोगों ने उसे क्वारंटाइन केंद्र ही जाने को कह दिया और दरवाजा नहीं खोला। लोगों का तर्क है कि कोरोना रिश्ते-नाते नहीं देखता। इसलिए घर में आने के लिए व्यक्ति का रोगमुक्त होना जरूरी है।

सावधान! स्वास्थ्यकर्मियों के साथ हिंसा आपको जेल पहुंचा सकता है

भारत के बारे में एक अवधारणा है कि यहां के सामाजिक ताने-बाने में सामूहिकता की चेतना व्यापक है। जब भी देश पर विपत्ति आती है, समाज की सामूहिक चेतना जागृत हो जाती है। समाज और राष्ट् को बचाने की सोच वाली यह चेतना ही है कि जब भी अतीत में भारत पर विपत्ति आई है, वह उनसे पार पा जाता है।

जब प्लेग आया था

पिछली सदी के दूसरे दशक के प्लेग की कहानियां इन पंक्तियों के लेखक ने अपने दादा और दादी से सुनी है। उन दिनों भी लोग सामाजिक हित में खुद ही अपने प्यारे प्लेग के रोगी को घर से दूर बाहर बगीचे या खलिहान में रख देते थे। तब बेशक परिवार का एक सदस्य उसकी सेवा-सुश्रुषा के लिए वहां रहता था। लेकिन वह व्यक्ति तब तक समाज से कटा रहता था, जब तक कि वह पूर्ण रूप से स्वस्थ ना हो जाए। कोरोना के दौर में भी वही सामूहिक चेतना पूरे देश में दिख रही है।
विदेशों में अरसे पहले भारत की जो छवि सपेरों, गरीबों और अनपढ़ लोगों की बनाई गई थी, सॉफ्टवेयर की दुनिया में डंका बजाने, पेप्सी-कोक, गूगल और माइक्रोसॉफ्ट जैसी विश्वविख्यात कंपनियों की भारतीयों द्वारा कमान संभालने के बावजूद भारत की छवि कमोबेश वैसी ही है। यही वजह है कि दुनिया के अलावा खुद भारत भी डरा हुआ था कि कोरोना के चलते भारतीय देहाती समाज को ज्यादा नुकसान उठाना पड़ सकता है। लेकिन भारत की सामूहिक चेतना ने इस आशंका को निर्मूल भले ही नहीं साबित किया, लेकिन यह जरूर बताया कि वह इतनी सचेतन जरूर है कि वह अपने सीमित संसाधनों में ही अपना बचाव कर सकती है।

 किस्मत गुर्जर जैसों ने दिखाई राह

राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के शाहपुरा पंचायत समिति के देवरिया गांव की सरपंच किस्मत गुर्जर इसी सोच का प्रतिनिधित्व करती हैं। जिन्होंने खुद अपने गांव को सैनिटाइज करने और लोगों को जागरूक करने की ना सिर्फ बीड़ा उठाया, बल्कि उसे पूरा भी किया। उन्होंने ट्वीटर पर लिखा, ‘श्री नरेंद्र मोदी जी के साथ चिकित्सक और पुलिस के जवान कोरोना संक्रमण से देश बचाने में लगे हैं तो मैं क्यूं पीछे रहूं ? श्री राम के सेतु निर्माण में गिलहरी की मदद जैसी एक मदद की कोशिश की है।’ किस्मत गुर्जर तो सरपंच हैं। लेकिन हरियाणा के झज्जर जिले के ढराणा गांव की महिलाओं ने खुद ही आगे बढ़कर अपने गांव को कोरोना से बचाने का जिम्मा संभाल लिया। पांच-पांच के चार समूहों में गांव की महिलाओं ने ही अपने गांव को चारों तरफ से घेर लिया और पहरा देने लगीं। इन महिलाओं के चलते ढराणा गांव के बाहर से आने वाले लोगों को सैनिटाइज करने और मास्क लगाने के बाद ही गांव में घुसने की इजाजत है।

जहां महिलाओं ने संभाली कमान

ढराणा जैसी कहानियां झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल राज्यों से भी सामने आ रही हैं। अपने गांव, समाज और परिवार को कोरोना की महामारी से बचाने के लिए यहां की महिलाओं ने खुद ही मोर्चा संभाल लिया है। ऐसी ही कहानी गर्मियों में पर्यटकों से गुलजार रहने वाले हिमाचल प्रदेश के मनाली की भी है। यहां की महिलाओं ने कोरोना से अपने समाज को बचाने के लिए खुद सरकारी मशीनरी खासकर पुलिस के साथ मोर्चा संभाल लिया है। यहां की पंचायत प्रधान मोनिका भारती खुद ही पुलिस के साथ पहरा दे रही हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति झांसी के लहर गिर्द गांव की भी है। यहां महाबंदी को पालन कराने का जिम्मा यहां की महिलाओं ने अपने कंधों पर ले रखा है और खुद डंडा लेकर गांव की पहरेदारी कर रही हैं। इन महिलाओं ने अपने गांव में बाहरी व्यक्ति के प्रवेश पर रोक लगा दी है। इसके लिए महिलाओं ने 5 समूह बनाए हैं। जो तीन-तीन घंटे की पहरेदारी करती हैं। कोरोना की महामारी से जूझ रहे पंजाब में करीब 13 हजार 240 गांव हैं। जब यहां हालात बिगड़ने लगे तो अपने गांवों को बचाने के लिए खुद गांव वाले ही आगे आ गए। पंजाब सरकार के ही एक आंकड़े के मुताबिक राज्य के करीब 8 हजार गांव वालों ने अपने गांवों को बंद कर दिया और बाहरी लोगों के आने पर पाबंदी लगा दी है। इसके लिए वे कड़ाई से पालन भी कर रहे हैं।

देहात ने कोरोना जंग में नई राह दिखाई है

आजाद भारत के बारे में एक मान्यता रही है कि वह सीमाओं पर विवाद या हमले और क्रिकेट के मामले में ही एक होता रहा है। यह भी माना जाता रहा है कि यहां के लोगों का राष्ट्रवाद क्रिकेट और पाकिस्तान के खिलाफ ज्यादा जागता है। लेकिन देहाती इलाकों ने साबित किया है कि भारत में लोग हर संकट के समय जागरूक हो उठते हैं और खुद के दम पर भी संकट से जूझने लगते हैं। देहातों की कहानियां एक बार फिर भारतीयता की इसी सामूहिक सोच को उजागर कर रही हैं।
 
(युगवार्ता साप्ताहिक पत्रिका से साभार)

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