नयी दिल्ली (स्वस्थ भारत मीडिया)। हर छोटी-बड़ी बीमारी पर डॉक्टर से एंटीबायोटिक मिलना तय है। लेकिन उसके सहारे रोग से निजात पा लेना उस वक्त भले अच्छा लगे, पर बाद में शरीर में एब्जार्व होने की आदत से पिछली बार से ज्यादा पॉवर वाली दवा की जरूरत पड़ती है। यानी शरीर एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी हो जाता है। इसके गंभीर दुष्परिणाम होते हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि भविष्य में यह खुद एक महामारी न बन जाये।
एंटीबायोटिक प्रतिरोधी संक्रमणों से मौत भी
लैंसेट जर्नल के मुताबिक हर साल एंटीबायोटिक प्रतिरोधी संक्रमणों के कारण लगभग 60,000 नवजात शिशुओं की मृत्यु हो जाती है। 2019 में दुनिया भर में 1.27 मिलियन मौत की खबर है। ये ऐसे संक्रमण हैं जहां बैक्टीरिया समय के साथ बदलते हैं और अंततः वे उन्हें मारने के लिए डिज़ाइन की गई दवाओं को हराने की क्षमता विकसित करते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत उन देशों में से एक है जहां भूंजा की तरह एंटीबायोटिक खिलाया जाता है।
एंटीबायोटिक का पावर बढ़ा
स्टडी में पाया गया कि कई दवाएं उन जीवाणु रोगजनकों के कारण होने वाली बीमारियों के इलाज में 15 प्रतिशत से भी कम प्रभावी थीं। उन्होंने एसिनेटोबैक्टर बाउमनी नामक मल्टीड्रग-प्रतिरोधी रोगजनकों का उदय भी पाया। Acinetobacter baumannii फेफड़ों पर हमला करता है। DEFOCOT-6 हर्ट को कमजोर करती है जो दमा में दिया जाता है। ICMR की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि एक साल में शक्तिशाली एंटीबायोटिक दवाओं के प्रतिरोध में 10 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2021 में केवल 43 प्रतिशत निमोनिया का इलाज एंटीबायोटिक से हुआ जो 2016 में बढ़कर 65 प्रतिशत हो गया।
डॉक्टरों को प्रशिक्षण की जरूरत
सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में हर संक्रमणों के लिए अंधाधुंध एंटीबायोटिक्स मिलती है। कोरोना काल में DOLO 650 और एजिथ्रोमाइसिन सबको खाना पड़ा। अध्ययन में कहा गया है कि दवा प्रतिरोधी संक्रमण प्राप्त करने वाले 17,534 कोरोना रोगियों में से आधे से अधिक की मृत्यु हो गई। ऐसे में भारत को डायग्नोस्टिक लैब में ज्यादा निवेश की जरूरत है और डॉक्टरों को एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग पर प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।