इस लेख में हम आज उन ऋषियों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिन्होंने दुनिया को आयुर्वेद जीवन शैली से परिचय कराया और इसकी शक्ति से हमें अवगत कराया… आयुर्वेद में बृहदत्रयी नाम से प्रसिद्ध जिन महान पुरुषों के जीवन-काल एवं रचना-संसार से हमारा पुनः परिचय करा रही हैं वरिष्ठ पत्रकार महिमा सिंह
(Special Report on Ayurveda)
अंग्रेज यहाँ भारत में आकर आयुर्वेद पद्धति से इलाज कराते हैं और हम भारतीय अपनी पद्धति और ज्ञान को अनदेखा करते हैं। अक्षय कुमार, जो बॉलीवुड में अभिनेता हैं और एक अनुभवी और सम्पन्न भारतीय पुरुष हैं, जिसके पास वो सब कुछ है जो आधुनिक दुनिया में किसी के पास होने पर उसके अति आनंदमय और सुखी समृद्ध जीवन की परिभाषा पूर्ण होती है। फिर ऐसा क्या नहीं था? अभिनेता अक्षय कुमार के पास, जिसके लिए वो केरल के आयुर्वेद आश्रम में 15 दिन बिताने गए और सुकून और शांति ले आए। वो भी बिल्कुल साधारण आम मनुष्य सी जीवन शैली में और उन्हें ऐसा करके आनंद और सकारात्मक ऊर्जा की अनुभूति हुई। यह स्वयं अक्षय कुमार ने बताया एक मंच से, जहां उन्होंने यह भी साफ तौर पर कहा कि वो यह बातें आयुर्वेद जीवन शैली की ब्रांडिंग के लिए नहीं कह रहे बल्कि वो केवल अपने मन के भाव बता रहे, जो उन्हें अनुभव हुआ है।
हमने नहीं पहचाना महत्व
कुछ तो है हमारी देश की मिट्टी में जो अन्य कहीं नहीं है। बस हम उसके महत्व को पहचान नहीं रहे हैं। अक्षय कुमार आयुर्वेद और एलोपैथ का अंतर बातकर आयुर्वेद पद्धति की ब्रांडिंग नहीं कर रहे हैं। वो बस यह कहना चाह रहे हैं हम सभी भारतीय जनों को कि जीवन का लक्ष्य शांति और सुकून में है जो मजबूत और स्वस्थ शरीर, मन और आत्मा के मध्य संतुलन से मिलता है। मानव को जीवन जीने के लिए वायु, जल, भोजन, वस्त्र की और शयन के लिए सर के ऊपर एक छत की आवश्यकता होती है। यह बुनियादी चीजे हमें प्रकृति से मिलती है। वही प्रकृति जिसने हमें जीवन दिया, जिसने हमें भोजन दिया, जिसने हमें प्राकृतिक सहभागिता सिखाई और जिसने अनन्य जीव और जीवन और वनस्पति से भरपूर इतना बड़़ा संसार दिया।
मनुष्य को कर्म का ज्ञान भी इसी प्रकृति से मिला है। निष्काम कर्म फल की इच्छा किए बिना सुंदर और सरल जीवन के लिए जिसमें आप सबसे अच्छे हैं, वो करो वही आपकी सफलता और उपलब्धि है। जैसे सूरज रोशनी देने का काम कर रहा सतत भाव से ठीक वैसे ही। प्रकृति ने शारीरिक श्रम और मानसिक दक्षता से जुड़े बहुत से कार्य भी हमें सिखाया। मानव सामाजिक प्राणी है यह भी प्रकृति से ही लिया गया विचार है। परंतु हम इस पंचभूतों के रूप में हमारा पालन करने वाली माँ प्रकृति और इस मानव शरीर को क्या देते हैं, क्या हमने कभी सोचा है?
विज्ञान हमारी धरती की उपज
भारतीय धरा पर अभिमान करने के लिए केवल योग और अध्यात्म जैसे आयाम ही नहीं है। यहाँ इसी भारत से विज्ञान का आरंभ भी हुआ है। आयुर्वेद उसी ज्ञान और विज्ञान का संगम है। केवल विज्ञान पर आधारित जीवन आपको मशीन बना सकती है। लेकिन उसमें कला के लालित्य का संगम हो तो जीवन नियम और यम और शरीर विज्ञान और प्रकृति के ज्ञान से अमर हो जाता है। जरा और मृत्यु से पीड़ि़त मानव समाज को अमृतरूपी जीवन और आनंद देने के लिए ही ईश्वर ने आयुर्वेद नामक जीवन शैली की रचना की थी। फिर उन्होंने विचार किया कि अगर इसे वेदरूप में प्रस्तुत कर दिया गया तो कालांतर में यह जनसाधारण तक पहुँच नहीं पाएगा। इसलिए अथर्ववेद में इसको जोड़कर इसके होने का आभास भर कराया। फिर इसे आठ भागों में बाँटकर मनुष्य के संधान के लिए छोड़ दिया कि जो भी विवेकयुक्त जीव होगा वो इसका संकलन करेगा और मानव समाज के कल्याण के लिए इसे खोजेगा और इसको समय और काल के अनुरूप रचेगा।
मॉडर्न चिकित्सा पद्धति में जिस ‘सामाजिक चिकित्सा पद्धति’ से उपचार विधा को आजकल अपनाया जा रहा है वो सनातन धर्म की परंपरा है जो 2500 साल पहले से आयुर्वेद का अंग है। आज जब हम आयुर्वेद के रहस्य की बात सुनते और पढ़ते या देखते हैं तो हमें लगता है कि कोई नाड़ी पकड़कर रोग और उसका निदान कैसे कर सकता है। बिना 75 टेस्ट किये कोई आपको यह कैसे बता सकता है कि आपके किस अंग में समस्या है और किस शारीरिक कष्ट से आप पीड़ित हैं। कोई शास्त्र और संहिता जो 3000-5000 साल पहले लिखी गई है, वो आपको कैसे यह बता सकती है कि आज जिस बीमारी और व्याधि से आप ग्रस्त हैं, उसका निदान उसमें तभी खोज लिया गया था।
मैं आपके ध्यान में आने वाली कुछ बातों का यहाँ जिक्र करूंगी लेकिन उससे पहले जब आप इस लेख को पढे तो स्वयं के भारतीय होने और इस विधा के भारत में उदित होने पर संदेह न करें। पहले उन ग्रंथों और रचनाकारों को पढ़े, जिन्होंने इस पद्धति और इसके संग्रह को रचा और स्वयं इसके उपचारी गुण का परीक्षण भी किया। फिर आपके मन से यह भ्रम दूर हो जाएगा कि आयुर्वेद के पास आपकी हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान कैसे उपलब्ध है। मैंने स्वयं भी यह अनुभव किया है तभी मैं इस जीवन शैली और पद्धति का पालन कर रही और इसका लाभ ले रही हूँ। आप भी इसे पहले स्वीकार करें और इसके प्रभाव का परीक्षण करें और फिर मन कहे तो दूसरों को इसके बारे में बताएं। वसुधैव कुटुंबकम परंपरा के अनुसार इसको जन जन तक पहुंचाए।
आयुर्वेद अति प्राचीन जीवन शैली और व्याधियों के इलाज और सुखी जीवन का रहस्य है। रहस्य इसलिए है क्योंकि आयुर्वेद के तत्कालीन धरातल पर जिन नामों को आप सुनते हैं और जिन ग्रंथों की बात आजकल आम हो चली हैं, वो है चरक संहिता, सुश्रुत संहिता और वाङभट्ट रचित अष्टांग हृदयम, अष्टांग संग्रह और रसरत्न समुच्चय आदि। एक साधारण भारतीय अगर इन तीनों ग्रंथों को पढ़े और इसमें लिखे सूत्रों और नियमों को जीवन में अपनाए तो उसका सारा जीवन सुखमय और आनंद से भर जाएगा। जीवन से दुख छू हो जाएगा। अब आपको बताते हैं कि महर्षि चरक, आचार्य सुश्रुत और आचार्य वाङभट्ट कौन थे और उनको क्यों पढ़ना चाहिए, उनसे क्या जानना चाहिए?
यह तीनों आधुनिक युग के आयुर्वेद धारा के बृहतत्रयी कहे जाते हैं। इनकी लिखी रचनाएं न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में व्याप्त बीमारी और रोगों का निदान करने में सहयोग दे रही हैं।
चरकसंहिता और महर्षि चरक
चरक संहिता के संपादक और रचनाकार महर्षि चरक हैं। श्री चरक जी का जन्म कश्मीर के सेन परिवार में हुआ था। इनका जीवन काल 300 ईस्वी पूर्व बताया जाता है। इन्हें आयुर्वेद पद्धति का जनक माना जाता है। लेकिन जब आप चरक को पढ़ेंगे तो वो बस यही कहेंगे कि उन्होंने केवल गुरु शिष्य परंपरा से मिले आनुभविक ज्ञान को अपनी संहिता में शामिल किया। महर्षि चरक यानि वो किसी के गुरु और किसी के शिष्य रहे होंगे क्योंकि तब भारत में गुरु शिष्य परम्परा हुआ करती थी। ज्ञान-विज्ञान का वितरण और प्रसार इसी माध्यम से होता था। यह बात इतिहास से प्रमाणित है और वेद पुराण भी इसके गवाह हैं।
चरक संहिता के मानने वाले और स्वयं चरक जी ने कहा कि आयुर्वेद का ज्ञान देवलोक से आया है। ब्रम्हा जी ने इसे प्रजापति दक्ष को दिया और फिर अश्वनी कुमारों द्वारा इन्द्र देव को यह ज्ञान दिया गया। स्वर्ग के राजा इंद्रदेव ने ऋषि भारद्वाज को यह ज्ञान दिया। आयुर्वेद को स्वर्गलोक से धरती पर लाने का कार्य कई ऋषियों ने किया जिसमें ऋषि च्यवन और भारद्वाज प्रमुख हैं। भारद्वाज ऋषि ने आयुर्वेद जीवन पद्धति को अपने शिष्यों में बांटा और जन मानस तक इसे पहुंचाया। फिर उनके समकालीन ऋषि पुनर्वसु ने अपने छः शिष्यों को यह ज्ञान प्रदान किया जिसमें आचार्य अग्निवेश, ऋषि पाराशर और झारपाणि आदि लोग थे। इसमें ऋषि अग्निवेश ने अग्निवेश तंत्र की रचना की। अग्निवेश तंत्र में ही बाद में अनुभव आधारित ज्ञान और परीक्षण जोड़कर ऋषि चरक ने चरक संहिता को लिखा जो जन-जन तक पहुंची और जीवन अमृत ज्ञान बनी। आचार्य चरक अपने समय काल में बहुत प्रसिद्ध थे। उन्होंने सबसे पहले पाचन क्रिया और मानव शरीर में प्रतिरोधक क्षमता जैसी अवधारणा से लोगों को रूबरू कराया। चरक ने आम भाषा में लोगों को यह बतलाया कि मानव शरीर में दोष का कारण है वो तीन प्रकृति दोष जिनके असंतुलन से मानव शरीर व्याधि से ग्रस्त हो जाता है। सभी जानते है कि मानव शरीर कफ, पित्त और वात से बना हुआ है।
इन तीनों द्वारा एक दुसरे के क्षेत्र में प्रवेश करने से मानव शरीर रोगग्रस्त हो जाता है इसलिए आयुर्वेद यानि अमृत जीवन शैली में इन तीन दोषों को संतुलित करके शरीर को स्वस्थ किया जाता है। चरक संहिता पहला प्राप्य ग्रन्थ है जिसका ऋणी न केवल भारत बल्कि विश्व भी है। इसमें औषधिक गुण वाले एक लाख से अधिक वनस्पतियों का उल्लेख है। इसमें केवल रोग का निदान और व्याधियों का उपचार नहीं बताया गया है बल्कि प्रकृति में उत्पन्न उत्तम किस्म के रत्नों सोना, चांदी, पारा और लोहा आदि को जलाकर भष्म बनाने की प्रक्रिया भी बताई गई है। उनका रोग के निदान में क्या महत्व है? इसका विश्लेषण भी इसमें किया गया है।
महर्षि सुश्रुत और उनकी रचना
महर्षि सुश्रुत 800 ईसा पूर्व भारत के वाराणसी जनपद में पैदा हुए थे। इनके पिता बाल्मीकि बताये जाते हैं। सुश्रुत जी ने वाराणसी के तत्कालीन राजा दिवोदास, जो धन्वंतरि के अवतार माने जाते थे, उनसे शल्य चिकित्सा और आयुर्वेद की दीक्षा ग्रहण की। भारत में शल्य चिकित्सा को प्रचारित और प्रसारित करने वाले और शल्य चिकित्सा से लोगों को परिचित कराने वाले सुश्रुत जी ही हैं। इन्हें ‘प्लास्टिक सर्जरी और ब्रेन सर्जरी’ का प्रदाता कहा जाता है। इन्होंने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सुश्रुत संहिता’ लिखी। इसमें सूत्र स्थान, निदान स्थान, शरीर स्थान और चिकित्सा स्थान आदि पर विस्तार से लिखा गया है। सुश्रुत संहिता में महर्षि ने बताया है कि मानव मन और शरीर को पीड़ा देने वाली वजह को ‘शल्य’ कहते हैं। इस शल्य को मानव के शरीर से निकालने की विधा को ‘यंत्र’ कहते हैं। इन्होंने अपने ग्रन्थ में शल्य चिकित्सा के जुड़े 150 से अधिक यंत्रों का जिक्र किया जो आज एलोपैथ में प्रयोग हो रहे हैं। आचार्य ने मोतियाबिंद, गर्भ से शिशु जनन के अनेक सरल उपाय भी बताए हैं।
शल्य चिकित्सा में सुश्रुत के समान ही किसी और को जानना चाहिए वो हैं जीवक कौमारभचच, जो 500 ईसा पूर्व तत्कालीन मगध राज्य में पैदा हुए थे। मगध नरेश बिंबसार के वो चिकित्सक हुआ करते थे। जीवक ने मगध नरेश के उपचार के अलावा वाराणसी के कई सेठों का इलाज शल्य क्रिया से किया। किसी के आंत को काँटकर गांठ समस्या को ठीक किया तो किसी के कपाल में हुए फोड़े को शल्य विधि से उपचार किया। इन्होंने गौतम बुद्ध का भी इलाज किया। आयुर्वेद की शल्य विधा को प्रचुर बनाने में इनका भी समान योगदान रहा है।
आचार्य वाङभट्ट और उनके महान ग्रन्थ
आधुनिक भारत और आधुनिक आयुर्वेद पद्धति में, जिनको बहुत महत्व और समृद्धि मिली और मिलनी भी चाहिए वो हैं सिंधु नदी के तटीय इलाके में जन्में वैदिक ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुए बौद्ध शिक्षक से आरंभिक शिक्षा लेने वाले आचार्य वाङ भट्ट जी जिनकी अष्टांगह्रदयम और अष्टांगसंग्रह नामक ग्रन्थ और आयुर्वेद परम्परा को जनमानस तक पहुँचाने और उनके जीवन को सुखी बनाने वाली इस रहस्यमयी विधा को अति सरल ढंग से लिखने के लिए और शिष्यों को सिखाने के लिए भट्ट जी का आभार है। इनके ग्रन्थ में सूत्र स्थान, निदान स्थान और चिकित्सा स्थान, उत्तर स्थान आदि का उल्लेख मिलता है। सृष्टि के रचनाकार ब्रम्हा जी ने जिस आयुर्वेद को रचा और आठ खंडों में जिसे विभक्त किया कि कालांतर में कोई विवेकशील मानव इसको संग्रहित करेगा। उसे वाङभट्ट जी ने अथक प्रयास, भ्रमण और निरंतर परीक्षण के बाद लिखा और सरल ढंग से जनमानस के लिए उपयोगी बनाया। यह पुस्तक आचार्य के पूर्व गुरुओं और वाङभट्ट के स्वयं के किये परीक्षणों का परिणाम है। इनकी पुस्तकों को न केवल भारत भूमि में महत्व मिला बल्कि तिब्बत और जर्मन भाषा में भी इसका अनुवाद किया गया। वाङभट्ट ने ही रसरत्न समुच्चय भी रचा है।
आयुर्वेद में बृहदत्रयी नाम से प्रसिद्ध इन महान पुरुषों के अलावा और भी अनेक आचार्य हुए हैं जिन्होंने इस सनातनी पद्धति को सहेजा और समृद्ध बनाया है।