देश की बड़ी आबादी के लिए उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाएं कितनी कम हैं। इससे यह भी साफ है कि यदि हमें सबको स्वास्थ्य का सपना साकार करना है तो इसके दस-बीस गुणे बजट की आवश्यकता पड़ेगी, जो वर्तमान स्थिति में संभव ही नहीं है। ऐसी स्थिति में क्या किया जाए यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है, जिसका जवाब ढूढ़ना प्रत्येक भारतीय व सरकार का कर्तव्य है । आखिर कब तक स्वास्थ्य के नाम पर बजट का खेल चलता रहेगा…आखिर कितना बजट चाहिए पूरे देश को स्वस्थ रखने के लिए…प्रत्येक वर्ष जो अरबों रूपये बहाए जा रहे हैं उन खर्चों का प्रतिफल तो कहीं दिख नहीं रहा है! आखिर कब तक बजट-बजट हम खेलते रहेंगे…
बजट का मौसम प्रत्येक वर्ष आता है। चर्चाएं होती हैं। आलोचनाएं होती हैं। फिर यह मौसम चला जाता है। सभी आलोचक दूसरे मुद्दों पर अपनी आलोचना योग्य कच्चा माल ढूढ़ने में मसगूल हो जाते हैं। और चर्चा जहाँ से शुरू हुई थी वहीं पर खत्म हो जाती है। आज जो बजट आना है, उस पर चर्चा करने से पूर्व इसके पूर्ववर्ती बजटों, स्वास्थ्य नीतियों व उनके प्रभाव-अभाव को एक बार फिर से याद कर लेना ज्यादा श्रेयस्कर होगा।
सबसे पहला मुद्दा है सबके लिए स्वास्थ्य। इसके लिए सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन चला रखा है। पिछली सरकार ने शहरी स्वास्थ्य मिशन की भी शुरूआत की थी परंतु उसे राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के बजट में ही रखा गया था। वर्तमान सरकार ने दोनों को अलग-अलग कर दिया है। परंतु सवाल है कि क्या राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन सबको स्वास्थ्य के लक्ष्य को पूरा कर सकता है?
ध्यान देने वाली बात यह है कि देश की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनाई गई वर्ष 1983 में जिसमें पहली बार सभी नागरिकों को स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया था। यानी कि स्वाधीनता मिलने के लगभग 46 वर्ष बाद सरकार को देश के स्वास्थ्य की थोड़ी-बहुत चिंता हुई। इसके बाद देश में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और इसके उप केंद्र खोले जाने लगे। परंतु इनकी संख्या देश की जनसंख्या के अनुपात में काफी कम थी। 2013 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष 2011 तक देश में 1 लाख 76 हजार 820 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (ब्लॉक स्तर), प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और उप-केंद्र स्थापित हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त देश में 11 हजार 493 सरकारी अस्पताल हैं और 27 हजार 339 आयुष केंद्र। देश में (एलोपैथ के) 8 लाख 83 हजार 812 डॉक्टर हैं। नर्सों की संख्या 18 लाख 94 हजार 968 बताई गई है। परंतु दूसरी ओर देश में 5 लाख से अधिक गांव हैं और अधिकतर गांवों में स्वास्थ्य सेवाएं नहीं पहुंच रही हैं।
अधिकांश प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की स्थिति खराब है। कोई भी डॉक्टर गांवों में जाने के लिए तैयार नहीं है। जिन्हें भेजा जाता है, वे केंद्रों में बैठते नहीं हैं। ज्यादा दिन नहीं हुए हैं, जब एमबीबीएस के छात्रों के लिए गांवों में एक वर्ष के लिए सेवा देना अनिवार्य किए जाने पर डाक्टरों ने तीखा विरोध किया था। ऐसे में यह चिंतनीय हो जाता है कि यदि पर्याप्त संख्या में प्राथमिक चिकित्सा केंद्र खोल भी दिए जाएंगे तो उसके लिए डॉक्टर कहां से लाए जाएंगे। हालांकि वर्ष 2012 के भारत सरकार के आंकड़ों को देखें तो प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों के लिए कुल 24 हजार 49 डाक्टरों की आवश्यकता थी और इसके लिए सरकार ने 31 हजार 867 डाक्टरों को नियुक्त करने की व्यवस्था की जिनमें से 28 हजार 984 डाक्टर केंद्रों में तैनात भी हैं। इस पर भी कुल 903 केंद्र डाक्टरविहीन हैं और 14873 केंद्रों में केवल एक ही डॉक्टर उपलब्ध है। 7 हजार 676 केंद्रों में लैब तकनीशियन नहीं है तो 5 हजार 549 केंद्रों में फार्मास्यूटिकल नहीं है। केवल 5 हजार 438 केंद्रों में महिला डाक्टर उपलब्ध हैं। दूसरी ओर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में विशेषज्ञ डाक्टरों की संख्या और भी दयनीय है। आवश्यकता है 19 हजार 332 विशेषज्ञों की जबकि सरकार केवल 9 हजार 914 की ही व्यवस्था कर पाई है और उनमें से भी 5 हजार 858 ही कार्यरत हैं।
ये आंकड़े बताते हैं कि देश की बड़ी आबादी के लिए उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाएं कितनी कम हैं। इससे यह भी साफ है कि यदि हमें सबको स्वास्थ्य का सपना साकार करना है तो इसके दस-बीस गुणे बजट की आवश्यकता पड़ेगी, जो वर्तमान स्थिति में संभव ही नहीं है। ऐसी स्थिति में क्या किया जाए यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है, जिसका जवाब ढूढ़ना प्रत्येक भारतीय व सरकार का कर्तव्य है । आखिर कब तक स्वास्थ्य के नाम पर बजट का खेल चलता रहेगा…आखिर कितना बजट चाहिए पूरे देश को स्वस्थ रखने के लिए…प्रत्येक वर्ष जो अरबों रूपये बहाए जा रहे हैं उन खर्चों का प्रतिफल तो कहीं दिख नहीं रहा है! आखिर कब तक बजट-बजट हम खेलते रहेंगे…