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यह ‘सुशासन’ की मौत है !

175 से ज्यादा शिशुओं की हो चुकी है मौत, कौन लेगा जिम्मेदारी?

सूबे के सूबेदार के लिए यह चमकी बुखार की बढ़ती चमक परेशानी का सबब बन गया है। देखना यह है कि बिहार के नौनिहालों की ताबूत का भार सुशासन सरकार कितना उठा पाती है!

आशुतोष कुमार सिंह

विगत 15 वर्षों से बिहार में सुराज है। सड़के बन गई हैं। घरों में बिजली की रौशनी पहुंच गई है। लोग इस बात से खुश हैं कि बिहार में बहार लौट आया है। इस बहार को उस समय झटका लगा जब मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार ने अपना कहर बरपाना शुरू किया। अभी तक 150 घरों की रौशनी बुझ चुकी है। बिजली की रौशनी में घर के चिराग को बुझते हुए देखना कितना हृदयविदारक है, मुजफ्फरपुर के लोगों से बेहतर कौन बता सकता है! जिन नौनिहालों को गोद में लेकर मां-बाप ने तमाम सपने बुने थे, आज वे सपने ताबूत में दफन हो चुके हैं।

अहम सवाल यह है कि सरकार को यह नहीं मालूम था कि इस मौसम में इन क्षेत्रों में किस तरह की बीमारी होती है? सच तो यह है कि अच्छी तरह से मालूम था। लेकिन राजनीतिक नफा-नुकसान की कसौटी पर गरीबों के बच्चे शायद नहीं फीट बैठते हैं। बच्चों की लाश पर विगत कई वर्षों से राजनीति होती आई है। यह नई बात नहीं है। सूबे के सुशासन बाबू को पटना से मुजफ्फरपुर पहुंचने में 200 से ज्यादा घंटे लग गए। स्वास्थ्य मंत्री को क्रिकेट का स्कोर देखना ज्यादा जरूरी लगता है और सूबे के उप-मुखिया सुशील मोदी को अब भी लगता है कि यह सबकुछ लालू-राबड़ी राज के कारण ही हो रहा है। वे भूल चुके हैं कि अब सत्ता में वे हैं और सूबे का वित्त मंत्रालय भी उन्हीं के पास है। इनकी संवेदनहीनता पर भारी हैं सूबे के मुखिया। सूबे के सूबेदार स्वास्थ्य विषय पर कितना संवेदनहीन हो चुके हैं इसकी बानगी जदयू के तत्कालिन प्रदेश उपाध्यक्ष उपेन्द्र चौहान के एक फेसबुक पोस्ट से मिलता है। जिसमें उन्होंने लिखा है किस तरह से पटना एम्स के तत्कालिन निदेशक जी.के.सिंह को इंसेफ्लाटिस पर हुए शोध के परिणाम को बताने के लिए नीतीश कुमार ने समय नहीं दिया। उन्होंने लिखा है कि, ‘डॉ गिरीश कुमार सिंह ने कहा था कि मस्तिष्क ज्वर क्यों होता है? इसके बारे में पटना एम्स के डॉक्टरों की टीम 1 वर्ष तक अनुसंधान कर एक निष्कर्ष पर पहुंचकर, बिहार सरकार से बात कर मस्तिष्क ज्वर के समूल निदान का प्रयास करना चाहती है। अगर बिहार सरकार का सहयोग मिलेगा तो मस्तिष्क ज्वर की समस्या का निदान निकल सकता है। मुझे दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार जी को एम्स के निदेशक और डॉक्टरों से मिलने का समय नहीं है तो फिर इस राज्य के बच्चों को मरने से भला कौन बचा सकता है!’

बिहार सरकार सुराज का जितना चाहे ढोल-नगाड़ा बजा ले, सच्चाई यह है कि बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा चुकी है। इसकी बानगी पेश कर रहा है 2018-19 का बिहार आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट। इस रिपोर्ट के ग्यारहवे अध्याय को सुसाशन बाबू को जरूर पढ़ना चाहिए। इस अध्याय में बताया गया है कि बिहार में स्वास्थ्य की मौजूदा स्थिति कैसी है? रिपोर्ट कहता है कि बिहार में चिकित्सकों के लिए 7,249 पद स्वीकृत हैं लेकिन 3,146 नियमित डॉक्टर ही कार्यरत हैं। यानी 57 फीसद सीट रिक्त है यानी बिहार का स्वास्थ्य 43 फीसद नियमित  चिकित्सकों के भरोसे छोड़ा गया है। 2,314 संविदाधीन चिकित्सकों का पद स्वीकृत हैं जिनमें से 533 पद ही अभी तक भरे जा चुके हैं यानी यहां भी 77 फीसद सीट खाली है। गांवों में काम करने वाली आशा कार्यकर्ताओं का 93,687 पद स्वीकृत है जिनमें 93 फीसद भरे गए हैं, यहां भी 7 फीसद भरा जाना बाकी है। ढांचागत विकास की बात की जाए तो अभी राज्य में 37 जिला अस्पताल, 70 रेफल अस्पताल, 55 अनुमंडल अस्पताल, 533 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, 9,949 उप-केन्द्र और 1,379 अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र मौजूद हैं। अंतिम तीन श्रेणियों वाले स्वास्थ्य केन्द्रों की कुल संख्या मिलकर 11,861 हो जाती है। 2017-18 में बिहार का स्वास्थ्य बजट 6,535 करोड़ रुपये था। इस तरह देखा जाए तो बिहार के स्वास्थ्य व्यवस्था को खुद ही आइसीयू की जरूरत है।

मुजफ्फरपुर दौरा कर नई दिल्ली पहुंचे स्वास्थ्य मंत्री ने एक उच्च स्तरीय बैठक की और बिहार में एईएस/जेई बीमारी से उत्प्न्नन स्थिति की समीक्षा की। स्वास्थ्य मंत्री ने तत्काल प्रभाव से एक उच्चवस्त‍रीय बहु-विषयी टीम बिहार भेजने का निर्देश दिया है। यह टीम मुजफ्फरपुर में अत्याधुनिक बहु-विषयी अनुसंधान केन्द्र स्थापित करने के लिए प्रारंभिक कार्य करेगा। डॉ. हर्षवर्धन ने अपनी समीक्षा में मुजफ्फरपुर में ऐसे अनुसंधान केन्द्र् की स्थारपना के बारे में राज्य को आश्वासन दिया। राज्य के विभिन्ना जिलों में पांच वायरोलॉजीकल प्रयोगशालाएं स्थापित किए जाने की योजना है। साथ ही एसकेएमसीएच में 100 बिस्तर का शिशु रोग आइसीयू स्थापित किए जाने का भी निर्णय लिया गया है। इस बीच एक बड़ा सवाल यह उठता है कि ठीक ऐसी ही घोषणा 20-22 जून,2014 के अपने बिहार दौरे के दौरान डॉ. हर्षवर्धन ने की थी। ठीक पांच वर्ष बाद उन्हें उसी घोषणा को दोहराने की जरूरत पड़ी है। मौसम भी वही है। बीमारी भी वही है। जगह भी वही है और राज्य एवं केन्द्र में सरकारें भी वहीं है। इस बीच कुछ नहीं बदला लेकिन बच्चों के मौत की संख्या जरूर बदल गई हैं। उनकी मौत का ग्राफ बढ़ता जा रहा है।

सूबे की सरकार भी ठीक वैसे ही चल रही है जैसे सरकारे चला करती हैं। बच्चों की मौत पर जवाब देने की स्थिति में न तो सूबे की सरकार है और न ही केन्द्र सरकार। मीडिया के दबाव में सूबे की सरकार एक्शन मोड में दिखने का नाटक कर रही है। आनन-फानन में जान गंवाने वाले बच्चों के परिजन को 4-4 लाख रुपए मुआवजा देने का भी सुराज में ले लिया गया है। राज्य सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने 19 जून को एक आदेश के जरिए पटना चिकित्सा महाविद्यालय में तैनात वरिष्ठ शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. दीलीप कुमार एवं डॉ. भीमसेन कुमार को तत्काल प्रभाव से मुजफ्फरपुर के श्री कृष्णा मेडिकल कॉलेज में तैनाती कर दिया है।

इस बीमारी के होने के कारणों में एक कारण लिची को बता कर सरकार को लग रहा है कि उसने अपना काम कर दिया है। जबकि स्थानीय लोगों का स्पष्ट कहना है कि जिस उम्र के बच्चे चमकी बुखार या इंसेफ्लाइटिस की जद में आ रहे हैं उनका लिची से क्या लेना देना है। दूध पीने की उम्र में वे कितना लिची खा लेंगे। दूसरी बात यह कि जिनके पास पेट भरने के लिए अनाज नहीं है वो अपने बच्चों के खाने के लिए लिची कहा ले लाएगा? इस बीमारी को लेकर स्थानीय सासंद ने बिल्कुल सही कहा कि इसका संबंध गरीबी एवं गंदगी से है। सरकार को इन क्षेत्रों में रह रहे लोगों का जीवन स्तर उपर उठाने पर काम करना चाहिए। साथ ही स्वच्छ जल की उपलब्धता की ओर भी ध्यान देने की जरूरत है।

आजादी के 72 वर्ष बाद भी बिहार के लिए रोटी-कपड़ा और मकान एक बड़ा मुद्दा है और इसी मुद्दे के उपमुद्दा के रूप में आज चमकी या इंसेफ्लाइटिस सामने आया है। ऐसा नहीं है कि सरकारे मुद्दों को नहीं समझती है। दिक्कत इस बात की है मूल मुद्दों से हमेशा आम जन को भटका के रखा जाता है। यह भटकाव ही उनकी पूंजी एवं ताकत है।

इन सबके बीच सूबे के सूबेदार के लिए यह चमकी बुखार की बढ़ती चमक परेशानी का सबब बन गया है। देखना यह है कि बिहार के नौनिहालों की ताबूत का भार सुशासन सरकार कितना उठा पाती है!

लेखकः स्वस्थ भारत (न्यास) के चेयरमैन हैं

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