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फ्रंट लाइन लेख / Front Line Article

बीमारी भी बनती है आत्महत्या की वजह

  • लगभग 30 फीसदी मामलों के पीछे विक्षिप्तता और उन्माद
  • कैंसर रोगियों द्वारा आत्महत्या के मामलों में खासी बढ़ोतरी
आनंद प्रकाश

फरीदाबाद निवासी सतीश धवन (62) को रिटायरमेंट के बाद भी सुकून नहीं था। पिछले महीने एक दिन घर से घूमने निकले। शहर के कई चौराहों के आस-पास अनायास टहलते रहे। एक जगह सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें रोककर पूछताछ भी की। सब-कुछ सामान्य लगा तो उन्हें जाने दिया। करीब डेढ़ घंटे बाद धवन साहब ने एक ट्रेन के आगे कूदकर खुदकुशी कर ली। श्रीमती धवन ने बताया-पिछले तीन-चार वर्षों से लिवर की बीमारी ने उन्हें परेशान कर रखा था। सच कहें तो, वह अपनी बीमारी से आजिज आ चुके थे।

जयपुर से ताल्लुक रखने वाले रमेश शर्मा (39) सिर में असहनीय दर्द (माइग्रेन) की वजह से बहुत परेशान रहते थे। कई बार बातचीत में वह कहते भी कि अब और दर्द बर्दाश्त नहीं कर सकता। बेहतर है कि जान देकर इससे छुटकारा पा लूं। अचानक खबर आई कि उन्होंने सीलिंग फैन से लटककर जान दे दी।

गाजियाबाद में रहने वाली रजिया बेगम (47) पेट में ट्यूमर (कैंसर) के दर्द से बहुत परेशान रहती थीं। दवाओं से कोई खास फायदा नहीं हो रहा था। एक दिन घर के लोग किसी समारोह में शामिल होने मुरादाबाद गए थे, तो पड़ोसी के बेटे को मार्केट भेजकर चूहे मारने की दवा मंगवाई और थोड़ी देर बाद उसे खाकर दुनिया से विदा ले ली।

ये चंद उदाहरण यह समझने के लिए काफी हैं कि लोग किस तरह बीमारियों से तंग आकर आत्महत्या कर लेते हैं। बचपन से हम यही सुनते-देखते-पढ़ते आए हैं कि निराशाजनक परिस्थितियों, डर, उन्माद, निराशा और अनिश्चित भविष्य की वजह से लोग आमतौर पर आत्महत्या की कोशिश करते हैं। दरअसल, ये वो मानसिक विकार हैं, जो आत्महत्या का कारण बनते हैं।
नई दिल्ली स्थित विद्यासागर इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ, न्यूरो एंड एलायड साइंसेज (VIMHANS) के कंसलटेंट साइकियाट्रिस्ट डॉ. एस. गजानन कहते हैं-मेरे पास आने वाले बहुत से फोन कॉल उन लोगों के होते हैं, जो या तो बीमारी की वजह से बिस्तर पर पड़े रहने को मजबूर होते हैं या फिर भयानक दर्द की वजह से बेतरह परेशान हो चुके होते हैं। उन्हें लगता है कि वे अपने परिवार पर बोझ बने हुए हैं। कुछ खुद को बहुत अकेला और निराश-हताश महसूस करते हैं। कई बार उन्हें लगता है कि कोई उनकी पीड़ा को समझने वाला नहीं है। मेरे हिसाब से बीमारी से आजिज आकर आत्महत्या करने वालों की संख्या और भी ज्यादा होती होगी, क्योंकि बहुत से परिवार लोकलाज की वजह से ऐसी मौतों को सामान्य मृत्यु करार देने की पूरी कोशिश करते हैं।
डॉ. गजानन के मुताबिक लाइलाज बीमारी के बाद विक्षिप्तता, भय या उन्माद, दूसरा सबसे बड़ा कारण होता है जो लोगों को आत्महत्या की तरफ धकेलता है। बीमारियों से आजिज आकर खुदकुशी जैसा कदम उठाने वाले कुल मामलों में से लगभग 30 फीसद, विक्षिप्तता या उन्माद से ही जुड़े होते हैं। ऐसी बहुत-सी स्टडीज हैं, जिसमें मानसिक स्वास्थ्य औऱ आत्महत्या के अंतर संबंधों की पुष्टि हुई है। आमतौर पर माना जाता है कि शारीरिक बीमारी से आजिज आकर लोग आत्महत्या करते हैं, लेकिन यह अर्ध सत्य है, क्योंकि बीमारी की वजह से होने वाले डिप्रेशन यानी अवसाद को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। हाल के दिनों में कैंसर के मरीजों द्वारा आत्महत्या के मामलों में खासी बढ़ोतरी देखी जा रही है।
डॉ. गजानन कहते हैं-कैंसर का निदान और उपचार किसी भी मरीज के मानसिक स्वास्थ्य पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है। पेट में ट्यूमर के दर्द से परेशान होकर खुदकुशी करने वाली गाजियाबाद की रजिया बेगम का मामला, इसका सटीक उदाहरण हो सकता है। दरअसल, कैंसर रोगियों के समक्ष कई मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियां आती हैं। सबसे पहली चुनौती होती है चिंता और भय, क्योंकि कैंसर रोगियों के मन में भविष्य को लेकर अनिश्चितता बनी रहती है। वह सोचते रहते हैं कि बीमारी से उबर पाएंगे या नहीं। इसके अलावा उन्हें यह डर भी सताता रहता है कि एक बार ठीक होने के बाद बीमारी कहीं फिर से तो परेशान नहीं करेगी। दूसरी चुनौती होती है डिप्रेशन यानी अवसाद। कैंसर के उपचार के दौरान पड़ने वाला भावनात्मक प्रभाव या यह कहें कि इलाज के साइड इफेक्ट को लेकर चिंता कई बार उन्हें डिप्रेशन का शिकार बना देती है। यह हर समय उदास रहने, एक्टिविटी में रुचि कम होने और हर वक्त निराशा की भावना से भरे होने के तौर पर नजर आ सकता है। इलाज कैसे होगा, इलाज का खर्च यानी पैसों का इंतजाम के अलावा व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन में बदलाव के कारण भी वे कई बार तनाव यानी स्ट्रेस का शिकार हो जाते हैं।
डॉ. गजानन कहते हैं-कैंसर और उसके इलाज की वजह से होने वाला शारीरिक और भावनात्मक तनाव कई बार मूड में बदलाव का कारण भी बनता है। इसके अलावा हार्माेनल थेरेपी और अन्य दवाएं भी मूड में बदलाव की वजह बन सकती हैं। कैंसर के मरीजों में निदान या उपचार के बाद पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD) की भी आशंका रहती है। बहुत से मरीज इसके खास लक्षण जैसे फ्लैशबैक, बुरे सपने और सीवियर एंजाइटी से परेशान रहते हैं। शारीरिक छवि का मुद्दा भी कई बार कैंसर रोगियों को परेशान करता रहता है। इलाज या इलाज के बाद होने वाले शारीरिक परिवर्तन जैसे बाल झड़ना, वजन कम या ज्यादा होना और घाव यानी चीरे का निशान भी कई बार छवि और आत्मसम्मान को प्रभावित करते हैं। इसके अलावा सामाजिक अलगाव यानी आइसोलेशन भी कई बार कैंसर रोगियों के मानसिक स्वास्थ्य पर असर डालता है। ऐसा देखा गया है कि कैंसर रोगियों में सामाजिक अलगाव की भावना घर कर लेती है, क्योंकि उनकी सामाजिक गतिविधियों या सामाजिक कार्यों में शामिल होने क्षमता घट जाती है। कैंसर के इलाज की कई पद्धतियां भी कई बार संज्ञानात्मक बदलाव के तौर पर सामने आती हैं। मेडिकल साइंस की भाषा में इन्हें ‘कीमो ब्रेन’ के नाम से जाना जाता है। इसमें स्मृति हानि यानी बातें याद न रहना, ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई और संज्ञानात्मक कार्यप्रणाली में बदलाव जैसी समस्याएं पैदा होती हैं। ये सभी मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियां, कैंसर रोगियों को कई बार आत्महत्या के लिए उत्प्रेरक का काम करती हैं।
इसके अलावा इसका एक और पहलू भी है। हमारे देश में सरकारी स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य को भले ही बहुत ज्यादा तवज्जो न मिल पाई हो, लेकिन भारतीय समाज, अपने परिजनों के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर बेहद संवेदनशील रहा है और अपनी व्यवस्था का संचालन करता आया है। सच कहें तो परिजनों या संबंधियों की देखभाल, सुरक्षा और उपचार में सहायता की यहां बड़ी समृद्ध परंपरा रही है। लेकिन जैसे-जैसे सामाजिक ताना-बाना बदलता रहा, वैसे-वैसे गंभीर बीमारियों से पीड़ित व्यक्ति को बोझ माना जाने लगा। पीड़ित व्यक्ति को बार-बार यह अहसास कराया जाया जाने लगा कि उनकी विकट स्थिति के कारण परिवार की आर्थिक स्थिति पर गहरा असर पड़ रहा है और अन्य परिजनों की “स्वतंत्रता” को बाधा पहुंच रही है। अब यह समझने का समय आ गया है कि जो लोग आत्महत्या की कोशिश करते हैं, उनमें से ज्यादातर या तो मानसिक विकार से ग्रस्त होते हैं या फिर नशे को बढ़ावा देने वाली चीजों का सेवन करते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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