आशुतोष कुमार सिंह
भारत जैसे जनसंख्या बहुल देश के स्वास्थ्य का ख्याल रखना किसी भी सरकार के लिए आसान काम नहीं है। इसके लिए जरूरत है कि स्वयसेवी संस्थाएं एवं खुद राज्य के नागरिक भी सरकार की योजनाओं के कार्यान्वयन में सहभागी बनें। प्रधानमंत्री जनऔषधि परियोजना के तहत जिस रफ्तार में जनऔषधि केन्द्र खुलने चाहिए थे वो नहीं खुल पाएं हैं। इसके पीछे प्रथमदृष्टया जो कारण हमलोगों ने अपने अनुसंधान में पाया हैं वो है-लोगों में जनऔषधि के बारे जागरुकता की कमी एवं चिकितस्कों में जनऔषधि को लेकर भ्रम की स्थिति। इस स्थिति से उबरने के लिए यह बहुत जरूरी है कि केन्द्र खोलने के साथ-साथ आम लोगों एवं चिकित्सकों को भी जनऔषधि की जरूरत एवं उनके सामाजिक सरोकार के बारे में बताया जाए। भारत का इतिहास रहा है कि यहां पर हनुमान को भी उनकी शक्तियों के बारे जामवंत जी को स्मरण कराना पड़ा था। ऐसे में अच्छे काम के लिए बार-बार लोगों को स्मरण कराना जरूरी होता है। ऐसे में सबसे पहले हमें जेनरिक एवं ब्राडेड दवाइयों को लेकर फैले एवं फैलाए गए भ्रम को समझना जरूरी है। तब जाकर हम आम लोगों को समझा पाएंगे।
हिन्दुस्तान के बाजारों में जो कुछ भी बिक रहा है अथवा बेचा जा रहा है, उसकी मार्केटिंग का एक बेहतरीन फार्मुला है भ्रम फैलाओं, लोगों को डराओं और मुनाफा कमाओं. जो जितना भ्रमित होगा, जितना डरेगा उससे पैसा वसूलने में उतना ही सहुलियत होगी.
वैसे डर और भ्रम को बेचकर मुनाफा कमाने की परंपरा तो बहुत पुरानी रही है, लेकिन वर्तमान में इसकी होड़ मची हुई है. लाभ अब शुभ नहीं रह गया है. लाभालाभ के इस होड़ में मानवता कलंकित हो रही है. मानवीय स्वास्थ्य से जुड़ी हुई दवाइयों को भी इस होड़ ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है. दवाइयों की भी ब्रान्डिंग की जा रही है. दवाइयों को लेकर कई तरह के भ्रम फैलाएं जा रहे हैं. दवाइयों के नाम पर लोगों को डराया जा रहा है.
ब्रांडेड व जेनरिक दवाइयों को लेकर हिन्दुस्तान के मरीजों को भी खूब भ्रमित किया जा रहा है. मसलन जेनरिक दवाइयां काम नहीं करती अथवा कम काम करती हैं. जबकि सच्चाई यह है कि हिन्दुस्तान में लिगली जो भी दवा बनती है अथवा बनाई जाती है, वह इंडियन फार्मा कॉपी यानी आईपी के मानकों पर ही बनती हैं. कोई दवा पहले ‘दवा’ होती है बाद में जेनरिक अथवा ब्रांडेड. दवा बनने के बाद ही उसकी ब्रांडिंग की जाती है यानी उसकी मार्केटिंग की जाती है.
मार्केटिंग के कारण जिस दवा की लागत 2 रुपये प्रति 10 टैबलेट है, उपभोक्ता तक पहुँचते-पहुँचते कई गुणा ज्यादा बढ़ जाती है. फलतः दवाइयों के दाम आसमान छुने लगते हैं. ये तो हुई ब्रांड की बात. अब बात करते हैं जेनरिक की…
सबसे पहला प्रश्न यही उठता है कि जेनरिक दवा क्या है? इसका सीधा-सा जवाब है, जो दवा पेटेंट फ्री है, वह जेनरिक है. इसको एक उदाहरण से समझा जा सकता है. मोहन की दवा कंपनी ने वर्षों शोध कर एक नई दवा का आविष्कार किया अब उस दवा पर विशेषाधिकार मोहन की कंपनी का हुआ. इस दवा को ढूढ़ने से लेकर बनाने तक जितना खर्च होता है, उसकी बजटिंग कंपनी की ओर से किया जाता है. उसका खर्च बाजार से निकल आए, इसके लिए सरकार उसे उस प्रोडक्ट का विशेषाधिकार कुछ वर्षों तक देती है. अलग-अलग देशों में यह समय सीमा अलग-अलग है. भारत में 20 तक की सीमा होती है. बाजार में आने के20 वर्षों के बाद उस दवा के उस फार्मुले का स्वामित्व खत्म हो जाता है. ऐसी स्थिति में कोई भी दूसरी फार्मा कंपनी सरकार की अनुमति से उस दवा को अपने ब्रांड नेम अथवा उस दवा के मूल साल्ट नेम के साथ बेच सकती है. जब दूसरी कंपनी उस दवा को बनाती है तो उसी दवा को समझने-समझाने के लिए जेनरिक दवा कहा जाने लगता है. इस तरह से यह स्पष्ट होता है कि जेनरिक दवा कोई अलग किस्म या प्रजाति की दवा नहीं हैं. उसमें भी मूल साल्ट यानी मूल दवा वहीं जो पहले वाली दवा में होती है. केवल दवा बनाने वाली कंपनी का नाम बदला है, दवा नहीं बदली है.
वैसे भी पहले दवा ही बनती है, बाद में उसकी ब्रांडिग होती है. यदि भारत जैसे देश में जहां पर आधिकारिक तौर पर गरीबी दर 29.8 फीसद है या कहें2011 के जनसांख्यिकी आंकड़ों के हिसाब से यहां साढ़े तीन सौ मिलियन लोग गरीब हैं. वास्तविक गरीबों की संख्या इससे काफी ज्यादा है. जहां पर दो वक्त की रोटी के लिए लोग जूझ रहे हैं, वैसी आर्थिक परिस्थिति वाले देश में यदि दवाइयों के दाम जान बूझकर ब्रांड के नाम पर आसमान में रहे तो आम जनता अपने स्वास्थ्य की रक्षा कैसे कर पायेगी.
पिछली सरकारों ने क्या किया है इसकी पोल रिसर्च एजेंसी अर्नेस्ट एंड यंग व भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ (फिक्की) की ओर से जारी एक रिपोर्ट में खुल कर सामने आया है. सन् 2008 में किए गए अध्ययन के आधार पर जारी इस रिपोर्ट में सबसे चौंकाने वाला तथ्य यह है कि स्वास्थ्य सेवाओं से संबंधित खर्च के कारण भारत की आबादी का लगभग3 फीसदी हिस्सा हर साल गरीबी रेखा के नीचे फिसल जाता है. यहां पर यह भी ध्यान देने वाली बात है कि स्वास्थ्य सेवाओं पर कुल खर्च का 72 प्रतिशत केवल दवाइयों पर खर्च होता है.
भारत भर में स्वस्थ भारत अभियान के अंतर्गत चलाएं जा रहे ‘जेनरिक लाइए पैसा बचाइए’ कैंपेन के तहत 150 से ज्यादा सभाओं में बोलने का मौका मिला था. मुंबई जैसे शहर के लोगों के मन में भी जेनरिक को लेकर अजीब तरह का भ्रम था. किसी को लग रहा था कि ये दवाइयां सस्ती होती है, इसलिए काम नहीं करती. ज्यादातर लोग तो ऐसे थे जिन्होंने जेनरिक शब्द ही कुछ महीने पहले सुना था. कुछ लोगों को लग रहा था कि जेनरिक दवाइयां विदेश में बनती हैं.
इसी संदर्भ में सामाजिक कार्यकर्ता अफजल खत्री ने एक वाकया सुनाया. उन्होंने बताया कि जब वे ठाकुर विलेज स्थित एक दवा दुकान पर गए और दवा दुकानदार से डायबिटिज की जेनरिक दवा मांगे तो वहां खड़ी एलिट क्लास की कुछ महिलाएं मुंह-भौं सिकुड़ते हुए उनसे कहा कि जेनरिक दवाइयां गरीबों के लिए बनती है, वो यहां नहीं मिलेगी. किसी झुग्गी-झोपड़ी वाले इलाके के दवा दुकान पर चले जाइए. यह स्थिति आज देश के प्रत्येक कोने में हैं। बिहार की स्थिति भी कमोबेस यही है।
यह हर्ष का विषय है कि प्रधानमंत्री जनऔषधि परियोजना के अंतर्गत लोगों को सस्ती दवाइयां उपलब्ध कराने का काम इधर के वर्षों में तेजी से हुआ है। विपल्व चटर्जी के मार्गदर्शन में काम को गति मिली। हम आशा करते हैं कि विपल्व जी देश के प्रत्येक पंचायत में एक जनऔषधि केन्द्र खोलने का संकल्प लेंगे। स्वस्थ भारत उनके इस नेक काम में हर संभव मदद करने की कोशिश करेगा।
(लेखक स्वस्थ भारत के चेयरमैन हैं। यह लेख स्वस्थ भारत स्थापना दिवस पर विशेष रुप से लिखा गया है)