नयी दिल्ली (स्वस्थ भारत मीडिया)। 2050 तक दुनिया में लगभग 2.5 अरब लोग किसी न किसी रूप में सुनने की समस्या से (Hearing loss) ग्रसित हो सकते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक हालिया रिपोर्ट में यह बात सामने आयी है। इसमें शोरगुल, तेज आवाज, प्रदूषण से लेकर ईयर बड्स या हेडफोन तक का योगदान है जो सेहत, खासकर सुनने की क्षमता पर गहरा असर डाल रहा है।
युवा पीढ़ी के लिए समस्या गंभीर
दरअसल एक अरब से अधिक युवा असुरक्षित उपकरणों और शोरगुल वाले वातावरण के कारण बहरेपन के खतरे में हैं। यह न केवल स्वास्थ्य बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भी भारी प्रभाव डाल रही है। यह समस्या विशेष रूप से निम्न और मध्यम आय वाले देशों में अधिक गंभीर है। शोरगुल वाले वातावरण में लंबे समय तक रहने और ऊंची आवाज में हेडफोन के इस्तेमाल से सुनने की समस्या बढ़ रही है। युवा पीढ़ी के लिए यह समस्या और भी गंभीर होती जा रही है।
Hearing loss की बड़ी वजह ध्वनि प्रदूषण
एक्सपर्ट बताते हैं कि कॉक्लिया वह हिस्सा है जहां से ध्वनि गुजरती है, लेकिन वास्तविक श्रवण प्रक्रिया मस्तिष्क में होती है। कान केवल ध्वनि को मस्तिष्क तक पहुंचाने का माध्यम है। यदि किसी व्यक्ति की नसें क्षतिग्रस्त हो जाती है चाहे जन्मजात अनुवांशिक कारणों, न्यूरोलॉजिकल बीमारियों तथा बढ़ती उम्र से तो इससे कॉक्लिया प्रभावित होता है। रिपोर्ट के मुताबिक हद से ज्यादा शोर अब सिर्फ असुविधा नहीं, बल्कि सुनने की क्षमता के लिए गंभीर खतरा बन चुका है। ध्वनि प्रदूषण लगातार हियरिंग लॉस की एक बड़ी वजह बन रहा है। तेज आवाज के लंबे संपर्क में रहने से कान के भीतर मौजूद नाज़ुक हेयर सेल्स क्षतिग्रस्त हो जाते हैं, जिससे व्यक्ति की सुनने की क्षमता कमजोर पड़ने लगती है। इतना ही नहीं, डीएनए और आरएनए जैसे आनुवंशिक घटकों में भी बदलाव देखे जा रहे हैं, जिससे अचानक सुनने की शक्ति खोने के मामले बढ़ रहे हैं।
बच्चों को ऐसी समस्या से बचाने की जरूरत
नवजात शिशुओं में सुनने की समस्या के पीछे कई कारण हो सकते हैं, लेकिन सबसे आम कारण जन्म के समय होने वाला पीलिया (जॉन्डिस) है। अगर बच्चा समय से पहले (9 महीने से पहले) जन्म लेता है, तो इस समस्या का खतरा और बढ़्रे जाता है। इसके अलावा, माता-पिता के बीच रक्त संबंध भी सुनने की समस्याओं को जन्म दे सकता है। अब अस्पतालों में निओनेटल हियरिंग स्क्रीनिंग (नवजात शिशुओं की सुनने की जांच) बहुत ज़रूरी कर दी गई है। यह प्रक्रिया दुनिया भर में नियमित रूप से की जाती है, लेकिन भारत में इसका प्रचलन अभी सीमित है। जन जागरूकता की कमी से लोग नवजातों का यह टेस्ट नहीं कराते।
Hearing loss की समस्या पर WHO भी गंभीर
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने “वर्ल्ड रिपोर्ट ऑन हियरिंग” (2021) और “वर्ल्ड हेल्थ असेंबली रिजॉल्यूशन” के तहत, कान और सुनने की देखभाल को अधिक प्रभावी और सुलभ बनाने के लिए पहल की गई हैं। इनका उद्देश्य पूरी दुनिया में सुनने की समस्याओं से निपटने के लिए आधुनिक चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराना है। अच्छी बात यह है कि सुनने की समस्या के लिए अब कई आधुनिक उपचार मौजूद हैं। इनमें स्टेम सेल थेरेपी एक नई और संभावनाओं से भरी तकनीक है। इस उपचार में कान में स्टेम सेल के इंजेक्शन दिए जाते हैं, जो सुनने की क्षमता में सुधार करने में मदद कर सकते हैं।
स्वास्थ्य मंत्रालय ने अलर्ट किया
इधर स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी इस समस्या को लेकर अलर्ट जारी कर राज्यों को पत्र भेजा है। मंत्रालय की ये चेतावनी खासकर युवाओं को लेकर है क्योंकि हेडफोन या ईयरफोन का सबसे ज्यादा इसका इस्तेमाल यही लोग करते हैं। डायरेक्टर जनरल ऑफ हेल्थ सर्विस (DGSS) के प्रोफेसर डॉ अतुल गोयल ने बच्चों के लिए स्क्रीन समय सीमित करने के महत्व पर भी जोर दिया है। उन्होंने कहा कि लगातार मोबाइल देखने से मस्तिष्क के संज्ञानात्मक विकास में देरी हो सकती है, जिससे सोशल इंटरैक्शन और कम्युनिकेशन प्रभावित हो सकता है। उन्होंने कहा कि लोग 50 डेसिबल से अधिक ध्वनि वाले ऑडियो उपकरणों का इस्तेमाल न करें बल्कि प्रतिदिन दो घंटे से अधिक ध्वनि वाले ऑडियो उपकरणों का उपयोग करें और सुनने के सत्र के दौरान ब्रेक लें। यह पत्र 20 फरवरी को ही जारी किया गया था। सार्वजनिक कार्यक्रमों का जिक्र करते हुए डॉ गोयल ने कहा कि राज्य यह सुनिश्चित करें कि स्थानों पर अधिकतम औसत ध्वनि स्तर 100 डेसिबल से अधिक न हो।