स्वस्थ भारत मीडिया
समाचार / News

सूक्ष्म और नैनो प्लास्टिक प्रदूषकों का पता लगाने के लिए नई तकनीक

नयी दिल्ली। हमारे बालों की मोटाई से हजार गुना छोटे सूक्ष्म और नैनो प्लास्टिक कण पर्यावरण के लिए एक गंभीर खतरा बनकर उभरे हैं। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT), बॉम्बे और दक्षिण अफ्रीका के मैंगोसुथु प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने एक ताजा संयुक्त अध्ययन में नैनो एवं सूक्ष्म प्लास्टिक कणों के प्रदूषण का पता लगाने के लिए एक नई तकनीक विकसित की है। प्रयोगशाला नमूनों में परिवेशी प्रकृति को नष्ट किए बिना इस तकनीक को सूक्ष्म एवं नैनो प्लास्टिक कणों की पहचान करने में प्रभावी पाया गया है।

शोधकर्ता ने कहा

IIT, बॉम्बे के प्रोफेसर टी.आई. एल्धो के नेतृत्व में दक्षिण अफ्रीका के मैंगोसुथु प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के शोधकर्ता डॉ अनिल लोनाप्पन के सहयोग से यह अध्ययन किया गया है। वे बताते हैं कि यह अध्ययन माइक्रोवेव के भीतर रखे जाने पर किसी सामग्री के विद्युतीय गुणों में होने वाले परिवर्तन पर आधारित है। शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि पर्यावरण के नमूनों में प्रदूषकों की उपस्थिति का पता लगाने के लिए हैंडहेल्ड डिवाइस विकसित करने में यह अध्ययन मददगार हो सकता है। यह अध्ययन, जर्नल ऑफ हैजार्ड्स मैटेरियल्स में प्रकाशित किया गया है।

सूक्ष्म प्लास्टिक कण बड़ा खतरा

हाल के वर्षों में, प्लास्टिक प्रदूषकों द्वारा उत्पन्न चुनौतियाँ सार्वजनिक बहस का हिस्सा बनी हैं। लेकिन, नये अध्ययनों से प्लास्टिक प्रदूषकों की एक और किस्म का पता चला है, जिसे नैनो और माइक्रो-प्लास्टिक के नाम से जाना जाता है। नग्न आँखों के लिए अदृश्य और बेहद सूक्ष्म ये प्लास्टिक कण लगभग हर जगह पाये जाते हैं। अंटार्कटिक के वातावरण से लेकर हमारे आंतरिक अंगों तक। अध्ययनों में पौधों, फलों, मछलियों, पेंगुइन और यहाँ तक कि मानव नाल में प्लास्टिक के इन सूक्ष्मकणों की उपस्थिति का पता चला है। इसके अतिरिक्त वे जलवायु परिवर्तन में भी भूमिका निभाते दिखाई देते हैं। इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता और आईआईटी बॉम्बे के पोस्ट डॉक्टरल शोधार्थी डॉ रंजीत विष्णुराधन के अनुसार,“शोधकर्ता सूक्ष्म और नैनो-प्लास्टिक कणों के अज्ञात पर्यावरणीय और स्वास्थ्य प्रभावों की जाँच निरंतर कर रहे हैं। जबकि सूक्ष्म और नैनो प्लास्टिक प्रदूषकों द्वारा उत्पन्न होने वाले खतरों का दायरा बेहद व्यापक है और पर्यावरण प्रदूषण के स्तर के बारे में पूरी तस्वीर स्पष्ट नहीं है।” वह बताते हैं कि आईआईटी बॉम्बे की टीम ने प्लास्टिक प्रदूषकों का पता लगाने के लिए माइक्रोवेव विकिरण उपयोग की संभावना की पड़ताल की है। माइक्रोवेव आधारित तकनीकों को आमतौर पर पर्यावरण के अनुकूल माना जाता है।

ऐसे की पहचान

माइक्रोवेव विकिरण विभिन्न प्लास्टिक पॉलिमर के साथ परस्पर क्रिया करता है और इसके कुछ विद्युत गुणों को बदल देता है। कम आवृत्ति संकेतों (300 किलोहर्ट्ज़ तक) का उपयोग प्रतिरोधकता और चालकता का अध्ययन करने के लिए किया जाता है, उच्च आवृत्ति संकेतों (300 मेगाहर्ट्ज से 4 गीगाहर्ट्ज़) का उपयोग परावैद्युत (Dielectric) मापदंडों के अध्ययन के लिए किया जाता है। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने एस-बैंड (2-4 गीगाहर्ट्ज़) में माइक्रोवेव विकिरणों का उपयोग किया है और दिखाया है कि परावैद्युत स्थिरांक सूखे और गीले दोनों नमूनों में प्लास्टिक का पता लगाने में उपयोगी है। शोधकर्ताओं ने सूखे नमूनों में प्लास्टिक उपस्थिति का पता लगाने में दो अन्य गुणों, अवशोषण हानि और परावैद्युत हानि स्पर्शरेखा, को भी उपयोगी पाया है।

इंडिया साइंस वायर से साभार

Related posts

ड्रग कंट्रोलर के दफ्तर में लगी आग हादसा नहीं – विवेक मौर्य

Ashutosh Kumar Singh

 कोविड-19: World Health Assembly में Super Humans के लिए बजी ताली

Ashutosh Kumar Singh

केंद्र की एडवाइजरी : भीषण गर्मी में रहें सतर्क

admin

Leave a Comment