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प्लास्टिक सर्जरी में मरीज की जिंदगी बदल देने की क्षमता

जानिए प्लास्टिक सर्जरी के बारे में सब कुछ डॉ. विवेक गोस्वामी से

नयी दिल्ली (स्वस्थ भारत मीडिया)। झारखंड/बिहार के जाने-माने प्लास्टिक सर्जन डॉ. विवेक गोस्वामी की स्कूली शिक्षा रांची में ही हुई। उन्होंने कोलकाता के RG KAR MEDICAL COLLEGE से MBBS के दौरान Gold Medal हासिल करने के बाद RK Mission सेवाश्रम, VPIMS, लखनऊ के Deptt- Of Head &Oncosurgery& Reconstruction और AIIMS भुवनेश्वर से Trauma & Emergency Plastic Surgery में Superspecialization में भी Gold Medal हासिल किया।
देश-विदेश के कई हॉस्पिटल्स में सेवाएं देने के बाद विवेक पूरी तरह से अपनी ज़मीन यानी झारखंड के लिए कुछ करना चाहते थे और इसीलिए अब वो रांची के कई अस्पतालों के साथ बतौर Senior Consultant] Plastic Surgeon जुड़े हुए हैं। पिछले डेढ़-दो सालों में ही उन्होंने रांची और आसपास के क़रीब 65 मरीज़ों का सफल अंग प्रत्यारोपण किया है जो शायद पहले झारखंड में कभी संभव नहीं रहा।
आज 31 जुलाई को डॉक्टर साहेब का जन्मदिन भी है। स्वस्थ भारत ट्रस्ट की ओर से उनको बधाई और शुभकामनाएं के साथ पेश है उनसे बातचीत के अंश :

सवाल-प्लास्टिक सर्जरी की ज़रूरत कब पड़ती है और इसमें क्या-क्या होता है?
जवाब-प्लास्टिक सर्जरी के बारे में कॉमन पब्लिक और एमबीबीएस के जो ग्रेजुएट होते हैं, उन्हें भी बहुत कम पता होता है कि प्लास्टिक सर्जरी में होती क्या है। आम तौर पर प्लास्टिक सर्जरी के बारे में एक नॉर्मल व्यक्ति और MBBS पर्सन भी यही सोचते हैं कि चेहरे को बदलना है या उसको बेहतर करना, सुंदर बनाना, गोरे को काला करना, काले को गोरा करना यह सब समझते हैं कि प्लास्टिक सर्जरी हैं। दरअसल, जो मेडिकल केस किसी आम सर्जन से नहीं हो पाता है, या जो मरीज़ हार मान जाते हैं कि उसका कुछ भी नहीं हो सकता, पैर हट के अलग हो चुका है, पैर पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुका है एक्सीडेंट में, कैंसर से पूरा गड्ढा बना हुआ है, उन सब का उत्तर एक प्लास्टिक सर्जन के पास होता है। इसलिए 5 से 10 फीसद का काम जो लोगों को पता है कि प्लास्टिक सर्जरी में सिर्फ सौंदर्यीकरण है, ये सच है। बाकी 95 फीसद जनता को भी नहीं पता है और कई MBBS ग्रैजुएट्स को भी नहीं पता है क्योंकि ग्रेजुएशन के दौरान इसकी पढ़ाई बिल्कुल शून्य होती है। हम लोग जब MS करते हैं तो थोड़ी बहुत यानी एकाध चैप्टर्स होते हैं और फाइनली हम जब प्लास्टिक सर्जरी की सुपर स्पेशलिस्ट पढ़ाई करते हैं तब हमें असल में पता चलता है कि ये कितनी वाइड ब्रांच है और कितनी लाइफ चेंज होती किसी भी मरीज के लिए। एक प्लास्टिक सर्जन के तौर पर मैं बताना चाहूंगा कि मैं जब जॉइन कर रहा था प्लास्टिक सर्जरी वाले फील्ड में तो मुझे भी आईडिया नहीं था कि मैं इतना कुछ कर सकूंगा, इतना कुछ बड़ा पा लूंगा। और आज मैं बहुत खुश हूं कि मैं एक प्लास्टिक सर्जन हूं।

सवाल-क्या प्लास्टिक सर्जरी बहुत महंगी होती है?

जवाब-सौंदर्यीकरण ज़रूर थोड़ा सा महंगा होता है। उसके कई कारण हैं। सबसे प्रमुख ये है कि वो ऑन-डिमांड सर्जरी है। यानी भगवान ने जैसा हमें बनाया है, उससे अलग हम कुछ चाह रहे हैं, तो वह एक ऑन डिमांड सर्जरी है। इसीलिए वह सर्जरी थोड़ी कॉस्टली होती है। मैं इससे बिल्कुल सहमति रखता हूं लेकिन वह 5 से 10 फीसद ही हैं। बाकी का 92 से 95 फीसद प्लास्टिक सर्जरी हम लोग जो करते हैं, जहां दुर्घटना में पैर टूटना, पैर में चोट लगना, घायल होना, कैंसर के रोग में, जबड़ों की हड्डी में, पैर की हड्डियों में, हाथ की हड्डियां-उन सब में बहुत ही नॉमिनल रेट है जो एक जनरल सर्जरी, ऑर्थाेपेडिक सर्जरी या फिर वीआईपी सर्जरी जो भी रेंज है, जो मार्केट में चल रही है CGHS या फिर ESldh  की रेट्स होती है या फिर आयुष्मान भारत की रेट होती हैं, वह बहुत ही मिनिमल है। ऐसा नहीं है कि कॉमन पब्लिक या जो मरीज ग़रीब तबके के हैं, वह इस चीज का फायदा नहीं उठा सकते हैं। मैं खुशनसीब हूं कि झारखंड में मेरे 90 फीसद मरीज ऐसे हैं जो गरीब तबके से हैं। एक्सीडेंट होना, हाथ कट जाना या रोड एक्सीडेंट में पैर की क्षति हो जाना, उन मरीजों को होता है जो मजदूर तबके के हों या गरीब तबके के हों या किसी फैक्ट्री में काम करता हो। मैं खुद को सौभाग्यपूर्ण समझता हूं कि उन लोगों को हम काफी कम रेट में, काफी कम प्राइस में लाइफ चेंज कर सकते हैं।

प्रश्न-मरीजों के साथ आपके रोज के अनुभव कितने चुनौती भरे होते हैं?
उत्तर-पेशेंट जब सब जगह से हार कर हमारे पास आता है तो पैसे से या इमोशनली, सब तरीकों से खाली हो जाता है। इसलिए हम लोगों का बड़ा चैलेंज होता है कि उसके बाद हमें पेशेंट को ठीक करके वापस भेजना है। यह सबसे बड़ा चैलेंज होता है। दूसरा चैलेंज यह आता है कि हाथ कट के अलग हो जाता है, या पैर कटके अलग हो जाता है, उसको वापस जोड़ना बहुत कठिन काम है। यह 5 से 6 घंटे की प्रक्रिया होती है, एक टीम वर्क होता है, जिसमें कभी-कभी दो सर्जन लगते हैं तो वह सर्जरी भी हम लोग कभी-कभी करते हैं। लंबी सर्जरी चलती है, इसलिए थोड़ा सा सब्र रखना पड़ता है। कई बार, लगता है कि हम लोग कितना सफल हो पाएंगे या नहीं हो पाएंगे। फिर से हैंड ट्रांसप्लांट जो हमलोग शुरू करने वाले हैं झारखंड के शहर में तो वहा पर जो हाथ कटे हुए हैं, उनको हमलोग ट्रीटमेंट देंगे। जैसे किडनी ट्रासप्लांट होता है वैसे ही हैंड ट्रासप्लांट होता है। उसको भी हमलोग झारखंड में शुरू करने की प्रक्रिया करेंगें। तो चैलेंज यही होता है कि जो पेशेंट होते हैं उनका जो प्रॉब्लम होता है वह काफी बड़ा होता है। वह समय से, पैसे से, इमोशन से बहुत टूट चुका होता है तो हमें इमोशनली भी पेशेंट को बूस्टअप करना होता है। और ये सब चुनौतियां हर रोज़ ही आती हैं।

प्रश्न-झारखंड में स्माइल ट्रेन में बतौर डायरेक्टर आपकी भूमिका?
उत्तर-एक एनजीओ है जहां कटे होंठ, कटे तालु का मुफ्त इलाज होता है, तो उसके साथ मैं जुड़ा हुआ था और हम लोगों ने काफी सर्जरी की है झारखंड के शहर में। तो इस शहर के और कई सारे एनजीओ हैं, जो इस तरह के सोशल वर्क कर रहे हैं। तो इसलिए यह शुरू किया है हम लोगों ने यहां पर।
प्रश्न-भारत में एक कैरियर विकल्प के तौर पर प्लास्टिक सर्जरी को लिया जा सकता है?
उत्तर-20-25 साल पीछे जाएं तो स्कोप काफी बहुत ज्यादा नहीं था जबकि विदेश में यह काफी ज्यादा विकसित हो चुका था। लेकिन पिछले 20 साल में इसकी मांग काफी ज्यादा बढ़ गयी है। इसका प्रूफ यह है कि आज की तारीख में जितने भी AIIMS जो हमारी सरकार हर जगह खोल रही है, उसमें प्लास्टिक सर्जरी विभाग कंपलसरी प्राइमरी लेवल पर ही दिया जा रहा है। क्योंकि प्लास्टिक सर्जरी का रोल अब धीरे-धीरे सबको समझ में आ रहा है। किसी भी संस्थान के लिए, ऐसा नहीं है कि हमें बहुत बड़ा इन्फ्रास्ट्रक्चर चाहिए, बहुत महंगे महंगे उपकरण चाहिए। ऐसा कुछ भी नहीं है। हमारे पास अगर एक माइक्रोस्कोप है, अगर कॉस्मेटिक सर्जरी करें तो बहुत मंहगे उपकरण की जरूरत नहीं है। बहुत बेसिक इंस्ट्रूमेंट की जरूरत होती है जिससे हमलोग मरीज की जिंदगी बदल सकते हैं जैसे हाथ को जोड़ना। मेरे गाड़ी में हमेशा इंस्ट्रूमेंट होते हैं। जहां मेरी सेवा की जरूरत पड़े, वहां पर मैं इन सब चीजों की इस्तेमाल करके सेवा देने की कोशिश करता हूं। बहुत महंगे इंस्ट्रूमेट नहीं होते हैं।
प्रश्न-हेयर ट्रांसप्लांट के बारे में कुछ बताएं।
उत्तर-इसमें डे-केयर प्रोसीजर होता है जो बेसिकली प्रॉपर सर्जरी नहीं है। हम लोग हेयर का प्रत्यारोपण करते हैं, हेयर को निकालकर जहां पर बाल हमारे पास नहीं है, वहां पर लगाते है। इसमें मरीज को बेहोश भी नहीं करते हैं। इसमें लोकल एनेस्थेटिक एजेंट्स होते है। ट्रॉपिकल एनेस्थेटिक एजेंट है। उससे उस जगह को सुन्न कर सारी चीजें करते हैं। अब देखिए, होता क्या है कि इसमें अमूमन अखबारों में पढ़ते हैं कि कोई हेयर ट्रांसप्लांट के लिए गया और उसका डेथ हो गया, तो वह सब सुनी-सुनाई चीज़ें हैं। मै कहूंगा कि एक नॉर्मल सर्जरी में जितना रिस्क है, वही रिस्क हेयर ट्रांसप्लांट में है। ऐसा कोई भी एक्स्ट्रा रिस्क नही है। तो होता क्या है कि अखबार में छप जाता है क्योंकि हेयर ट्रांसप्लांट में खर्च बहुत हुआ होता है। हेयर ट्रांसप्लांट मे मरीज ये सोच कर आता है कि मैं सुंदर बनने जा रहा हूं, बेहतर बनने जा रहा हूं और सर्जरी कराने जा रहा हूं, और किस्मत बुरी रहती है, अनहोनी होनी रहती है। तो ऐसा होता है।

(डॉ विवेक गोस्वामी से बुरा-भला यूट्यूब चैनल पर हुई बातचीत पर आधारित)
संपादन-निखिल आनंद गिरि
सहयोग-ज्योति मारिया

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