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चिकित्सकों की सुरक्षाः कुछ हम सुधरें कुछ आप!

Doctors' safety: Some of us improve, some you!

जब चिकित्सा शास्त्र के पास देने के लिए बहुत कम था तो समाज में चिकित्सकों की महती प्रतिष्ठा थी। आज विज्ञान के आविष्कारों की बदौलत असंभव भी संभव किया जा सकता है। ऐसे समय में चिकित्सकों पर अविश्वास अपने चरम पर है। यह भी कमाल का विरोधाभास है। कल तक हम चिकित्सक के ईश्वरत्व के भाव से संतुष्ट थे। आज हम चाहते हैं कि एक चिकित्सक दस सिर और बीस हाथों से काम करे वह भी राम बनकर। रावण के बिल्कुल विपरीत, देवत्व को प्राप्त हो यह  कैसे संभव है?

डॉ.राजेश पार्थ सारथी

समाज के स्वास्थ्य की चिंता व स्वच्छ भारत स्वस्थ भारत की परिकल्पना भी चिकित्सकों के महत्त्वपूर्ण योगदान के बगैर संभव नहीं है। जब चिकित्सक समस्त मानव जाति को स्वस्थ रखने के लिये हिपोक्रेटिक ओथ लेते हैं तब उनके सोच से भी यह बात परे होती है कि खुद उन्हें अपनी सुरक्षा और स्वास्थ्य के विषय में किसी विशेष व्यवस्था की जरुरत है।

प्रतिस्पर्धा के दौर में समाज आज दोराहे पर खड़ा है। चिकित्सकों को सकारात्मक वातावरण दिए जाने की जरूरत है जहां वह सबकुछ दाव पर लगा हर बीमारी से लड़े।  हर रोगी को स्वस्थ करे। एक तरफ तो हम भारत को 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था वाला देश बनाना चाहते हैं। दूसरी तरफ सच्चाई यह है कि चिकित्सक के काम पर भीड़तंत्र हावी है। चिकित्सक डरे हुए हैं। डिफेंसिव मेडिसिन अपनाने को मजबूर हैं। एक तरफ चिकित्सा मंहगी हो रही है तो दूसरी तरफ नौजवान साथियों में चिकित्सक बनने की प्रेरणा कम होती जा रही है। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक भी है कि हम ह्यूमन इंडेक्स में पीछे नजर आएं।

कहां हुई गलती?

एलोपैथी या अंग्रेजी दवा अंग्रेजों की देन है। प्राचीन काल से हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था का जिम्मा वैद्य या हकीम जी के ऊपर रहा है। इनकी समाज में बहुत इज्जत रही है। ‘चिकित्सा-सेवा’ रोग निवारण से ज्यादा रोगी को स्वस्थ करना और समुचित समाज निर्माण में अपने उत्तरदायित्व के वहन से जुड़ा था।

अंग्रेजी व्यवस्था की शुरुआत ‘शिप सर्जन’ के आगमन के साथ हुई। ये अंग्रेजी जहाज में आते थे। अंग्रेज अधिकारियों के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए ताकि उनका व्यापार व साम्राज्य विस्तारित हो सके। इतिहास के पन्नों में इससे संबंधित एक घटना का जिक्र मिलता है। तत्कालीन मुगल सम्राट शाहजहां की 24 वर्षीय पुत्री आग में झुलस गई थी। जली हुई बेटी को ठीक करने से वैद्य एवं हकीमों ने हाथ खड़े कर दिए थे।

राजा को किसी ने बताया कि उसकी बेटी का इलाज विशेषज्ञ अंग्रेज सर्जन कर सकते हैं जो कि बाम्बे (आज की मुंबई) में रहते हैं। सर्जन को बुलाया गया। उनकी देखरेख में राजा की बेटी ठीक हो गई। इससे शाहजहां बहुत प्रभावित हुआ और डॉक्टर से खुश हो ईनाम मांगने को कहा।

सर्जन ने बंगाल के ‘फोर्ट विलियम्स’ और आस पास के इलाके का ट्रेडिंग राइट्स मांगा। और राजा ने दिया भी। अंग्रेजी हुकुमत की नींव मजबूत करने में यह फैसला अहम साबित हुआ। भारतीय चिकित्सा पद्धति में सेवा भाव मूल में रहा है लेकिन अंग्रेजी पैथी इसकी उलट रही है।

सेवा के विपरीत मुनाफा कमाना व ब्रिटिश साम्राज्य बढाना – ये भाव यहां परिलक्षित होता है। इस प्रणाली से ब्रिटिश एलोपैथी सिस्टम जन्मा और बढा। आज भी सिविल सर्जन और मिलीटरी सर्जन हमारे बीच विद्यमान हैं। प्रख्यात अर्थशास्त्री व नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने अपनी पुस्तक ‘  आडिया आफ जस्टिस’  में इनफार्मेशन एसिमेट्री का जिक्र किया है जो चिकित्सा क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण है। इसका अर्थ है कि रोगी के रोग से जुड़ी अधिकतम महत्त्वपूर्ण जानकारियां सिर्फ चिकित्सकों को ज्ञात है। इसका उपयोग वे सेवार्थ भी कर सकते हैं और लाभार्थी के शोषण के लिए भी।

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि जब चिकित्सा शास्त्र के पास देने के लिए बहुत कम था तो समाज में चिकित्सकों की महती प्रतिष्ठा थी। आज विज्ञान के आविष्कारों की बदौलत असंभव भी संभव किया जा सकता है। ऐसे समय में चिकित्सकों पर अविश्वास अपने चरम पर है। यह भी कमाल का विरोधाभास है। कल तक हम चिकित्सक के ईश्वरत्व के भाव से संतुष्ट थे। आज हम चाहते हैं कि एक चिकित्सक दस सिर और बीस हाथों से काम करे वह भी राम बनकर। रावण के बिल्कुल विपरीत, देवत्व को प्राप्त हो यह  कैसे संभव है?

क्या किया जाना चाहिए?

हमें यह बात ध्यान रखना चाहिए कि एक चिकित्सक भी हाड़ मांस का पुतला ही है। दिमागी,शारीरिक व पारिवारिक जरुरतें उसकी भी उतनी ही है जितनी किसी भी अन्य इंसान की। अपेक्षाओं में सामंजस्य की स्थिति होनी चाहिये। अगर समाज और देश के करदाताओं के पैसे और स्कॉलरशीप के माध्यम से चिकित्सक की पढाई होती है। ऐसे में समाज के प्रति चिकित्सकों का दायित्व है कि वे अपनी सेवा के माध्यम से इसकी वापसी करें। मेरिट से सरकारी व्यवस्थाओं से पढे चिकित्सक सभी रोगियों के लिए उपलब्ध होंगे ऐसा निकट भविष्य में संभव नहीं है। ऐसे में विकल्पों पर चर्चा जरूरी है।

निजी मेडिकल कालेजों की बढती संख्या और उनमें लाखों खर्च करके बनने वाले चिकित्सक आज की सच्चाई हैं  जो अंग्रेजी व्यवस्थाओं में पढे हों। मुनाफे की मानसिकता के साथ आजीविका अपनाया हो। जिनका काफी पैसा कर्ज व अन्य माध्यमों से पढाई पर खर्च हुआ हो। और जो कॉर्पोरेट अस्पतालों में काम कर पैसा अर्जित कर कर्ज चुकाने को प्रतिबद्दध हों। ऐसे चिकित्सकों से सेवाभाव की अपेक्षा न्यायोचित नहीं है।

लेकिन इसका सामाजिक पक्ष यह है कि इस बेरूखी के कारण गैर पेशेवर शिक्षा प्राप्त किए लोग स्वास्थ्य व्यवस्था में घुस जाते हैं। सही ईलाज की जानकारी उन्हें नहीं होती। निचले स्तर पर वे बीमारी को और खराब करने का काम करते हैं। इसका कुपरिणाम यह हो रहा है कि लोगों का विश्वास सही चिकत्सकों पर से भी उठने लगा है।

ऐसे हो सकता है ‘अस्वस्थ चिकित्सका क्षेत्र’ का इलाज

1- भोर कमिटी की सुझाव को माना जाए। इस कमिटी ने आजादी के वक्त जीडीपी का 15 फीसद चिकित्सा क्षेत्र पर खर्च करने की बात की थी। जिससे 1000 चिकित्सा महाविद्यालय सरकारी क्षेत्र में खोले जा सकें। दुर्भाग्य की स्थिति यह है कि आजादी के 7 दशक बीत जाने के बाद भी हम जहां थे लगभग वहीं है। आज तो स्थिति यह है कि हर बीमार को चिकित्सा सेवा उपलब्ध करा पाना दूर की कौड़ी लगती है।

ऐसे में बेहतर तो यह होगा कि हम बीमारी कम करें और कम लोग बीमार हों, इस दिशा में काम करें। नर्स और फार्मासिस्ट को सशक्त करें ताकि वो भी स्वतंत्र रूप से ईलाज में कुछ भूमिका निभा सकें। प्राइमरी हेल्थकेयर को ज्यादा मजबूत करें ताकि कम लोगों को टर्सियरी केयर की जरुरत पड़े। पब्लिक हेल्थ इतना सशक्त हो कि प्राइवेट हेल्थ की जरुरत ही काफी कम लोगों को हो।

2- होलिस्टिक चिकित्सा पद्धति अपनायें- सभी पैथी में समन्वय का भाव हो और लोगों को ज्यादा से ज्यादा इंनफार्म्ड च्वायस हो कि वो किस पद्धति से कम पैसे में समुचित लाभ पा सकते हैं। भारतीय प्रणालियों को एलोपैथी के साथ इंटिग्रेट करके इंडियनाइज्ड किया जाए। चिकित्सकों को मेडिकल इथिक्स की ठोस जानकारी हो जो उन्हें देश काल और स्थिति के अनुसार निर्णय की क्षमता प्रदान करे।

3- समय और जरुरत के अनुसार नियम और पॉलिसी में बदलाव हो और उचित कार्यान्वयन द्वारा समाज के सभी वर्गों को विश्वास हो कि फैसले उनके हित में लिए जाएंगे। सिविल सेवा की भांति अखिल भारतीय चिकित्सा सेवा का स्वरुप भी विचारणीय है जिससे समाज के हर तबके को उचित चिकित्सा व्यवस्था का लाभ मिले। ओबामाकेयर, यूनिवर्सल हेल्थकेयर व चिकित्सा का अधिकार के बिन्दुओं को समाहित करते हुए।आयुष्यमान भारत योजना पर बढ-चढकर कार्य करने की आवश्यकता है।

अंत में यह कहना चाहता हूं कि कोई भी प्रयास अंतिम नहीं होता। उसमें और बेहतर करने की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। ऐसे में सरकार जो भी काम कर रही है और आगे करेगी वह निश्चित रूप से समष्टि को दृष्टिगत रखकर ही करेगी। सामाजिक न्याय की कसौटी पर कसा स्वास्थ्य व्यवस्था ही एक सुंदर, समृद्ध एवं समर्थ राष्ट्र के सपने को साकार कर सकता है।

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लेखक परिचयः लेखक जाने-माने फिजिशियन हैं। बिहार मेडिकल फोरम के सचिव हैं। आम लोगों की स्वास्थ्य के प्रति एडवोकेसी का काम करते रहे हैं।

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