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मोदी सरकार के चार सालःस्वास्थ्य सेवाओं में होता सुधार, अभी भी बहुत कुछ करने की है जरूरत

आशुतोष कुमार सिंह

भारत का स्वास्थ्य ढ़ाचा को लेकर देश दुनिया में जितनी चर्चाएं होती हैं, उसमें नकारात्मक ज्यादा और सकारात्मक कम ही होती हैं। हाल ही में जापानी इंसेफलाइटिस एवं एक्यूट इंसेफलाइटिस के कहर से देश के हजारों बच्चों की जान गई तो मीडिया का ध्यान इस विषय की ओर गया। मीडिया में शिशुओं की मृत्यु दर पर चर्चा होने लगी। देश की स्वास्थ्य ढांचा पर बातचीत शुरू हुई। सरकार द्वारा स्थापित प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र एवं सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों की दैनीय स्थिति पर चर्चा शुरू हुई। यह कहा जाने लगा कि ये केन्द्र काम नहीं कर पा रहे हैं। इनको और व्यवस्थित करने की जरूरत है। सरकार यह कहती रही कि उसने देश की स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए तमाम कदम उठाए हैं। जिला अस्पतालों से लेकर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को जवाबदेह बनाने एवं डिजिटल इंडिया से जोड़ने  का काम किया जा रहा है।

 
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2017
भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 के 31 पृष्ठों के अपने मसौदे में भारत को स्वस्थ रखने की अपने नीतियों को प्रस्तुत किया है। पृष्ठ 9 के अनु.3.2 में बचावात्वमक स्वास्थ्य नीति का उल्लेख किया गया है। इसमें सरकार ने कहा है कि किस तरह लोग बीमार न पड़े इसके लिए काम करना जरूरी है। स्वच्छ भारत अभियान,स्वस्थ एवं संतुलित आहार एवं नियमित व्यायाम,तंबाकू एवं शराब के प्रति जागरूकता फैलाना,यात्री सुरक्षा-रेल और सड़क हादसों से हो रही मौतों को रोकना, निर्भया नारी- लैंगिक हिंसा के खिलाफ कार्रवाई करना और कार्य स्थल की सुरक्षा सुनिश्चित करना एवं आंतरिक एवं बाह्य प्रदूषण को कम करना जैसे लक्ष्यों को लेकर सरकार आगे बढ़ रही है।
इसी तरह नई स्वास्थ्य नीति के अनु.4.2 में किशोर स्वास्थ्य को बेहतर करने की बात कही है। इस दिशा में सरकार ने विद्यालयी पाठ्यक्रम में स्वास्थ्य और स्वच्छता को शामिल करने का विचार कर रही है। वहीं किशोरों के स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए प्रयत्नशील है। किशोरों को समूचित पोषण मिल सके, उनके मानसिक समस्याओं का निदान हो सके इस दिशा में सरकार चिंतनशील है। अनु.4.3 में कुपोषण एवं अन्य पोषक कमियों को दूर करने की बात कही गयी है। इसमें यह माना गया है कि पोषण के अभाव के कारण बीमारियों की बोझ बढ़ती जा रही है। खासतौर से एनीमिया एक प्रमुख बीमारी के रूप में सामने आई है। इससे निजात पाने के लिए सरकार स्कूली स्तर पर आयरन, कैल्शियम, विटामिन ए की गोलियां वितरित कर रही है। वहीं अनु. 4.7 में मानसिक स्वास्थ्य एवं अनु.5 में महिलाओं के स्वास्थ्य संबंधित समस्याओं से निजात पाने के उपायों पर सरकार ने अपनी स्थिति को स्पष्ट किया है।
इन तमाम दावों एवं लक्ष्य निर्धारण के बावजूद देश स्वस्थ नहीं हो पा रहा है। भारत के करीब 20 करोड़ वयस्कों को उच्च रक्तचाप है और विश्व भर में इससे पीड़ित लोगों की तादाद बढ़कर 1.13 अरब तक पहुंच गयी है। बीमारियों की जननी मानी जाने वाली मधुमेह की बीमारी मौजूदा समय में प्रमुख स्वास्थ्य चुनौती बन चुकी है हमारे देश में, खास तौर पर शहरों में इसका प्रकोप तेजी से बढ़ रहा है। भारत में मधुमेह रोगियों की संख्या चार करोड़ से अधिक है जो विश्व की कुल पीड़ितों की आबादी का 15 प्रतिशत है। इस तरह हम भारतीय रोज किसी न किसी बीमारी के नजदिक पहुंचते जा रहे हैं।
सकारात्मक खबर
इस बीच एक सकारात्मक खबर आई है। खबर में यह बताया गया है कि भारत में शिशु मृत्यु दर में कमी आई है। हाल ही में जारी एसआरएस बुलेटिन के मुताबिक, वर्ष 2016 में भारत के आईएमआर में तीन अंकों (8 प्रतिशत) की गिरावट दर्ज की गई है। वर्ष 2015 में जन्‍मे 1000 बच्‍चों में से 37 बच्‍चों की मृत्‍यु हो गई थी। यह आंकड़ा वर्ष 2016 में घटकर 34 के स्‍तर पर आ गया है। इससे पिछले वर्ष भारत के आईएमआर में दो अंकों की गिरावट दर्ज की गई थी। इतना ही नहीं, भारत में जन्‍मे कुल बच्‍चों की संख्‍या में भी उल्‍लेखनीय कमी देखने को मिली है, जो पहली बार घटकर 2.5 करोड़ के स्‍तर से नीचे आई है। वर्ष 2015 की तुलना में वर्ष 2016 के दौरान भारत में 90,000 कम नवजात शिशुओं की मृत्‍यु हुई। वर्ष 2015 में 9.3 लाख नवजात शिशुओं की मृत्‍यु होने का अनुमान है, जबकि वर्ष 2016 में 8.4 लाख नवजात शिशुओं की मृत्‍यु हुई थी।
लैनसेट की रपट
सरकार के नजरिए से एक और सकारात्मक खबर आई है। लैनसेट में प्रकाशित नये अध्‍ययन के अनुसार भारत में 10 लाख बच्‍चों को मृत्‍यु से बचाया गया है। इस अध्ययन में कहा गया है कि भारत में 2005 से 5 वर्ष से कम आयु के 10 लाख बच्‍चों को निमोनिया, डायरिया, नवजात शिशु संक्रमण, जन्‍म के समय दम घुटने/अभिघात, खसरे और टिटनेस से होने वाली मृत्‍यु से बचाया गया है। लैनसेट पत्रिका के ताजा अंक में प्रकाशित अध्‍ययन ‘इंडियाज मिलियन डेथ स्‍टडी’ ऐसा पहला अध्‍ययन है जिसको प्रत्‍यक्ष रूप से भारत में बच्‍चों की कारण विशेष मृत्‍यु में हुए बदलावों का अध्‍ययन किया गया है। इसे भारत के रजिस्‍ट्रार जनरल द्वारा लागू किया गया है और इसमें 2000-15 के बीच के अकस्‍मात चुने गए घरों को शामिल करते हुए राष्‍ट्रीय और उपराष्‍ट्रीय रूप में बच्‍चों की कारण विशेष मृत्‍यु का अध्‍ययन किया गया है।
अध्‍ययन में कहा गया है कि राष्‍ट्रीय स्‍वास्‍थ्‍य मिशन के अंतर्गत प्रथमिकता के रूप में तय स्थितियों का बहुत गहरा प्रभाव मृत्‍यु में गिरावट में दिखा। निमोनिया और डायरिया से होने वाली मृत्‍यु में 60 प्रतिशत से अधिक (कारगर इलाज के कारण) की गिरावट आई। जन्‍म संबंधी स्‍वांस कठिनाई और प्रसव के दौरान अभिघात से होने वाली मृत्‍यु में 66 प्रतिशत ( अधिकतर जन्‍म अस्‍पतालों में होने के कारण) की कमी आई। खसरे और टिटनेस से होने वाली मृत्‍यु में 90 प्रतिशत (अधिकतर विशेष टीकाकरण अभियान के कारण) की कमी आई। अध्‍ययन में कहा गया है नवजात शिशु कि मृत्‍यु दर (1000 प्रति जन्‍म) में 2000 के 45 शिशुओं से 2015 में 27 हो गई (3.3 प्रतिशत वार्षिक गिरावट) और 1-59 महीने के बच्‍चों की मृत्‍यु दर 2000 के 45.2 से गिरकर 2015 में 19.6 रह गई (5.4 प्रतिशत वार्षिक गिरावट)। 1 – 59 महीने के बच्‍चों के बीच निमोनिया से होने वाली मृत्‍यु में 63 प्रतिशत की कमी आई। डायरिया से होने वाली मृत्‍यु में 66 प्रतिशत तथा खसरे से होने वाली मृत्‍यु में 90 प्रतिशत से अधिक कमी आई। 1-59 माह के बच्‍चों में नियमोनिया तथा डायरिया से होने वाली मृत्‍यु में 2010 व 2015 के बीच महत्‍वपूर्ण कमी आई। यह कमी राष्‍ट्रीय वार्षिक गिरावट को 8-10 प्रतिशत के औसत से रही। गिरावट विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों और गरीब राज्‍यों में दिखी।
क्या रही शोध की प्रक्रिया
मिलियन डेथ स्‍टडी में प्रत्‍यक्ष रूप से 1.3 मिलियन (13 लाख) घरों में मृत्‍यु के कारणों की प्रत्‍यक्ष मॉनिटरिंग की गई। 2001 से 900 कर्मियों द्वारा सभी घरों में रह रहे लगभग 1 लाख  लोगों के साक्षात्कार लिए गए जिनके बच्‍चों की मृत्‍यु हुई थी (लगभग 53,000 मृत्‍यु जीवन के पहले महीने में हुई तथा 1-59 महीनों में 42,000 मृत्‍यु)। मृत्‍यु की मॉनिटरिंग में स्‍थानीय भाषा में आधे पन्‍ने में बीमारी के लक्षण और उपचार की जानकारी के साथ साधारण दो पन्‍नों का एक फार्म तैयार किया गया। रिकार्डों का डिजीटलीकरण किया गया है। इसमें विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन द्वारा स्‍वीकृत प्रक्रियाओं का उपयोग करते हुए 400 प्रशिक्षित चिकित्‍सकों में से दो चिकित्‍सकों द्वारा स्‍वतंत्र रूप से मृत्‍यु के कारण को एकरुपता के साथ कोड किया गया है। यह प्रत्‍यक्ष अध्‍ययन है जो परिवारों के साथ आमने-सामने के साक्षात्‍कार पर आधारित है। यह अध्‍ययन छोटे नमूने लेकर मॉ‍डलिंग और प्रोजेक्‍शन पर आधारित नहीं है।
इन खबरों को पढ़कर रोना आता है
भारत बीमारियों का बढ़ते ग्राफ के बीच में इस तरह की खबरें निश्चित रूप से सुकुन देती हैं। वहीं मीडिया में कहीं से यह खबर आती है कि ऑक्सिजन की कमी के कारण शिशुओं की मौत हो गई या प्रसूता को अस्पताल में समय पर भर्ती नहीं किया गया और उसने सड़क पर बच्चे को जन्म दिया। लाश को ले जाने के लिए एंबुलेंस की सुविधा नहीं मिली, परिजन को अपने कंधे पर उठाकर कोषों दूर लाश ले जानी पड़ी। अस्पताल ने मृतक की लाश बिल भूगतान के लिए रोके रखा, परिजनों ने पुवाल का पुतला बनाकर अंतिम संस्कार करने की तैयारी की। इस तरह की खबरों को पढ़कर देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की जर्जरता का अंदाजा लगता है। ऐसी खबरों को पढ़कर रोना आता है और इंसान सोचने पर मजबूर होता है कि आखिर कब भारत सच में स्वास्थ्य के क्षेत्र में अग्रणी बनेगा! फिलहाल कुछ अच्छी खबरें आई हैं, उसे पढ़कर मन को तसल्ली तो दिया ही जा सकता है!
 
 
 
 
 

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