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Swasthya sansad 24-गीता-वेद में भी आहार के नियम : गिरीशपति त्रिपाठी

जैसा कहा, वैसा लिखा….जी हां, अयोध्या में संपन्न स्वास्थ्य संसद-24 में वहां के मेयर गिरीशपति त्रिपाठी ने ऐसा ही कहा था। लीजिए उनके वक्तव्य का संपादित रूप।

हमारी संस्कृति के बारे में कहा जाता रहा है कि यह ऋषि और कृषि की संस्कृतिवाला देश है। ऋषियों ने अपने तप और साधना से भारत को एक जीवन दर्शन प्रदान किया है। कृषि और किसान भाइयों के माध्यम से इस देश का भरण पोषण होता रहा है। आज कितना अद्भुत संयोग है..स्वास्थ्य संसद का आयोजन इस कृषि विश्वविद्यालय में होना और ऋषि गुणों से सम्पन्न वक्ताओं से इस मंच पर मिलन मुझे उसी परंपरा की याद दिला रहा है। मैं सबका प्रभु राम की जन्म और कर्म भूमि पर स्वागत करता हूँ। मैंने अब तक इस मंच से बहुत कुछ सीखा, इस वार्ता सत्र से मैंने एक छात्र की भाति ज्ञान अर्जन किया है।
हमारी परंपरा में बहुत कुछ पहले से ही बताया गया है। उसी का पालन हम करते आए हैं। परंपरा के कारण ही हम लंबे समय से अपने खान-पान में बदलाव नहीं कर पाए। लेकिन यहां पर आहार विशेषज्ञों को सुनकर ऐसा लगा कि अब हमें परिवर्तन की ओर बढ़ना चाहिए। स्वास्थ्य के लिए यह जो संसद बैठी है, इसका हिस्सा बनने से पहले तक मैं भी यही मानता था कि खूब मेहनत करो, खेलो- कूदो और खाओ पीओ, सब मैनेज हो जाता है। लेकिन एक समय के बाद खेलना मुश्किल होने लगता है क्योंकि तब तक भोजन की आदत में बदलाव नहीं होता। इससे शरीर में समस्या शुरू होती है। 40 के उम्र के बाद आप खेल की स्मृति में रह सकते हैं, खेल के लिए मैदान में नहीं। इसके बाद लोगों के विचार का पैटर्न बदलता है। वो आहार में होने वाले बदलाव को सोचने और समझने की बात करते हैं।
आहार के बारे में गीता और वेद में बहुत से सूत्र और पद लिखे गए हैं। जैसे गीता के 6ठे अध्याय में आहार विहार और 17वें में सात्विक भोजन के गुणधर्म की बात कही गई है।

संग में भोजन करने से प्रीत में वृद्धि होती है। इसके बारे में भी ग्रंथों में बताया गया है। अयोध्या में संत परंपरा में रात्रि भोजन का विधान ही नहीं रहा है। आश्रमों में रात्रि भोजन की परंपरा नहीं रही। ज्यादातर लोग दिन का बचा हुआ भोजन या दूध पीकर रात्रि में सो जाते थे। हमारे यहां भी खान पान में कुछ विचलन आया है लेकिन यहाँ हमेशा से एक अघोषित सा नियम था। हमारे घरों में रात्रि का भोजन नहीं बनता था जिसका फायदा स्वास्थ्य के स्तर पर लोगों को मिलता रहा है। हमारे यहां आज भी मंदिर में भोज भंडार दिन का ही होता है क्योंकि रात्रि का गरिष्ठ भोजन देह को और मन को त्रास देने वाला होता है। ऊपरी पहलू तो हम सब आम लोग जानते ही हैं लेकिन मोटे अनाज और छोटे अनाज के रेशे का क्या महत्व है। यह कैसे हमारे शरीर में ग्लूकोज और गट हेल्थ को ठीक करता है, सभी अंगों को साफ करता है, हमें ऊर्जावान बनाता है, यह सब मैंने इसी मंच से सीखा और जाना है।
स्वास्थ्य के लिए जितना शरीर के हेल्थ की जरूरत है उतना ही मन के लिए भी आहार जरूरी है। जैसा अन्न वैसा मन, यह बात आज मैंने इस मंच से समझा क्योंकि हमें यही लगता था कि आध्यात्मिक मार्ग पर चलो। ध्यान, प्राणायाम आदि से मन पर पकड़ मजबूत होती है परंतु मन पर हमारे भोजन का क्या प्रभाव पड़ता है, इसे मैंने यहीं समझा है। हमारे मन का सम्बद्ध गट से जुड़ा है। यह गट अगर अच्छे कीटाणुओं से तुष्ट है तो भोजन रेशेदार होने पर इसका पाचन जल्दी होगा, मन प्रसन्न होगा। यह वैज्ञानिक पहलू है जिसे सबको समझना जरूरी है। मैंने अयोध्या में संतों के जीवन को नजदीक से देखा है। यहां संतों के मुख पर अद्भुत आनंद और तेज देखा है। इसके पीछे उनका तप बल और यम नियम धर्म का पालन है जिसमें आहार पर नियंत्रण भी एक महत्वपूर्ण भाग रहा है। कई संतों को मैंने देखा है जिन्होंने फलाहार पर अपना जीवन गुजारा है। संतों से मिले इस वैकल्पिक जीवन दर्शन ने हमें बेहतर स्वास्थ्य का रास्ता प्रदर्शित किया है। स्वास्थ्य संसद के माध्यम से पुनः विचार का अवसर मिल रहा है, कि कैसे इन वैकल्पिक साधनों को जीवन में पुनर्स्थापित करके हम अपने वर्तमान जीवन में अपने शरीर, मन को स्वस्थ बना सकते हैं।
श्री अन्न को भारत के पटल पर पुनः उजागर करने के लिए प्रधानमंत्री के व्यापक प्रयास और खादर वली के 30 वर्ष के अनुभव को मैं सराहता हूँ क्योंकि श्री अन्न ही हमारा और हमारे समाज के स्वस्थ शरीर और जीवन का भविष्य है। हमारे प्रधानमंत्री के योग और जीवन दर्शन को लेकर व्यापक सोच को धन्यवाद करता हूँ क्योंकि बीते 10 सालों में योग और श्री अन्न जिस तरह से भारत और अंतराष्ट्रीय पटल में स्थापित हुआ है, इससे मुझे अपने भारत के जीवन दर्शन की व्यापकता और श्रेष्ठता का भान हो रहा है। हमें श्री अन्न और आहार परंपरा में नए पहलुओ को जोड़ने और खुद को स्वस्थ बनाने के लिए इस पहल और प्रयोग का हिस्सा बनना चाहिए ताकि हमारा आज और कल स्वस्थ हो सके। औद्योगिक क्रांति से उपजी धनार्जन की अंधी दौड़ में हमें हिस्सा न बनकर अपने मूल्यों पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। पुनः कृषि और ऋषि परंपरा के अनुरूप हमें जीवन जीने की जरूरत है। हमें अपने आहार और विहार को समय अनुकूल बदलने और सुधारने की जरूरत है ताकि हम स्वास्थ्य को पुनः पा सके और मजबूत राष्ट्र का निर्माण कर सकें। इसलिए श्री अन्न और उसकी उपयोगिता को जीवन में धारण करना अत्यंत आवश्यक है। आप इसे अपनाए और परिवार और समाज के प्रति अपना कर्तव्य निभाएं। जय श्री सीता राम।

संपादन : अजय वर्मा

 

 

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