नयी दिल्ली (स्वस्थ भारत मीडिया)। भारतीय हिमालयी क्षेत्र में हिमनदों के पिघलने और सिकुड़ने की बात केंद्र सरकार के अध्ययन में भी सामने आयी है। भविष्य में यह नुकसानदेह साबित होगा।
तबाही के संकेत
जब हिमनद पिघलते हैं तो ग्लेशियर बेसिन हाइड्रोलॉजी में परिवर्तन होता है जिसका हिमालयी नदियों के जल संसाधनों पर महत्वपूर्ण प्रभाव होता है तथा स्राव में अंतर, आकस्मिक बाढ़ एवं अवसाद के कारण हाइड्रोपॉवर प्लांट्स एवं डाउनस्ट्रीम वॉटर बजट पर प्रभाव पड़ता है। इससे हिमनद झीलों के परिमाण एवं संख्या बढ़ने, आकस्मिक बाढ़ में तीव्रता आने तथा ग्लेशियल लेक आउटब्रस्ट बाढ़, उच्च हिमालयी क्षेत्र में कृषि कार्यों पर प्रभाव आदि के कारण भी हिमनद सम्बन्धी जोखिमों के खतरे में वृद्धि होती है।
शोधकर्ताओं की नजर
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI), वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान (WIHG ), राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं समुद्री अनुसंधान केन्द्र (NCPOR), राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान (NIH), अंतरिक्ष उपयोग केंद्र (SAC), भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) आदि विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययनों समेत हिमनद पिघलने पर नजर रखने के लिए निगरानी करते हैं। वे हिमालयी हिमनदों में तेज गति से समरूपी द्रव्यमान में कमी आने की सूचना देते हैं। अब तक की जानकारी के मुताबिक हिंदु कुश हिमालयी हिमनदों की औसत सिकुड़ने की दर 14.9 से 15.1 मीटर प्रति वर्ष है जो इंडस में 12.7-13.2 मीटर प्रति वर्ष, गंगा में 15.5-14.4 मीटर प्रति वर्ष तथा ब्रह्मपुत्र रीवर बेसिन्स में 20.2-19.7 मीटर प्रति वर्ष बदलती रहती है। तथापि काराकोरम क्षेत्र के हिमनदों की लम्बाई में तुलनात्मक रूप से बहुत मामूली परिवर्तन (-1.37-22.8 मीटर प्रति वर्ष) देखा गया है।
ग्लेशियर पिघलने का क्रम जारी
राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं समुद्री अनुसंधान केन्द्र वर्ष 2013 से पश्चिमी हिमालय में चंद्रा बेसिन में छह हिमनदों की निगरानी कर रहा है। चंद्रा बेसिन में ‘हिमांश’ नामक एक अत्याधुनिक फील्ड रिसर्च स्टेशन की स्थापना की गई है जो 2016 से कार्य कर रहा है। GSI ने नौ हिमनदों पर द्रव्यमान संतुलन मूल्यांकन से हिमनदों के पिघलने तथा हिमालयी क्षेत्र के 76 हिमनदों की निगरानी सम्बन्धी अध्ययन किए हैं। यह पाया गया है कि विभिन्न क्षेत्रों में अधिकांश हिमालयी हिमनद पिघल रहे हैं और अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग दरों से उनका संकुचन हो रहा है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने नेशनल मिशन फॉर सस्टेनिंग हिमालयन ईकोसिस्टम (NMSHE) तथा नेशनल मिशन ऑन स्ट्रैटेजिक नॉलेज फॉर क्लाइमेट चेंज (NMSKCC) के अन्तर्गत हिमालयी हिमनदों का अध्ययन करने के लिए विभिन्न अनुसंधान एवं विकास परियोजनाओं की सहायता की है। कश्मीर विश्वविद्यालय, सिक्किम विश्वविद्यालय, IISc तथा WIHG द्वारा कुछ हिमालयी हिमनदों पर किए गए अध्ययनों में भी ऐसा ही पाया गया है।
उत्तराखंड में वैसा ही हाल
उत्तराखंड में कुछ हिमनदों की निगरानी की जा रही है जिसमें यह पाया गया कि भागीरथी बेसिन में डोकरियानी हिमनद वर्ष 1995 से 15-20 मीटर प्रति वर्ष की दर से सिकुड़ रहा है, जबकि मंदाकिनी बेसिन में चोराबारी हिमनद वर्ष 2003 से 2017 के दौरान 9-11 मीटर प्रति वर्ष की दर से सिकुड़ रहा है। लद्दाख में डुरुंग-ड्रुंग तथा पेनसिलुंगपा हिमनदों हो रही है जो क्रमशः 12 मीटर प्रति वर्ष तथा 5.6 मीटर वर्ष की दर से है।
सतलुज में चिंता की बात
दिवेचा जलवायु परिवर्तन केन्द्र, बंगलोर ने सतलुज रीवर बेसिन की जांच-पड़ताल करके रिपोर्ट दी है कि सदी के मध्य तक हिमनद पिघलने के योगदान में वृद्धि होगी, उसके बाद इसमें कमी जाएगी। सतलुज बेसिन के कम ऊंचाई वाले क्षेत्र में स्थित विभिन्न छोटे हिमनद सदी के मध्य तक इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण कमी आना इंगित करते हैं जिससे शुष्क ग्रीष्मकाल के दौरान जल की कमी उत्पन्न होगी।
रोकना संभव भी नहीं
हिमनदों का पिघलना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है तथा इसे नियंत्रित नहीं किया जा सकता। तथापि, हिमनद पिघलने से हिमनद जोखिमों सम्बन्धी खतरे बढ़ जाते हैं। विभिन्न भारतीय संस्थान, संगठन एवं विश्वविद्यालय हिमनद पिघलने के कारण आने वाली आपदाओं का मूल्यांकन करने के लिए बड़े पैमाने पर रिमोट सेंसिंग डेटा का प्रयोग करते हुए हिमालयी हिमनदों की निगरानी कर रहे हैं। हाल ही में, राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण ने स्विस डेवलपमेंट कॉरपोरेशन के सहयोग से नीति निर्माताओं हेतु ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड्स के प्रबन्धन सम्बन्धी दिशानिर्देश, सार-संग्रह तथा सारांश तैयार किए हैं।