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अधकचरा ज्ञान समाज को विभक्त करने का हथकंडा

डॉ. अभिलाषा द्विवेदी

अंबेडकर, संभवतः वो पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने अँग्रेजों द्वारा प्रचारित त्वचा के रंग को आधार बनाकर हिंदू समाज का ‘सवर्ण’ और ‘अवर्ण’ में समाज को बाँटने का खंडन किया था। इसके साथ ही उन्होंने उदाहरण के तौर पर दशरथ पुत्र श्रीराम और यदुवंशी श्रीकृष्ण के श्यामल रूप का उदाहरण देते हुए ब्रिटिशर्स के इस फूट डालने के षड़यंत्र को कटघरे में खींचा है।
अब ये भला कौन से कथित दलित चिंतक हैं जो दुर्गा के लिए घृणित उपमा देकर महिषासुर की पूजा करने के लिए नए नए आख्यान गढ़ रहे हैं। जो पहले कभी किसी ने अपने पूर्वजों से नहीं सुनी। या तो ये अम्बेडकर से परिचित नहीं हैं या फिर उनके विचारों, मूल्यों का अपमान करने के लिए उनके ही नाम का दुरुपयोग कर अपने स्वार्थ की सिद्धि कर रहे हैं।
बिहार और बंगाल में नाऊ को ठाकुर कहते हैं और हमारे भगवान को भी ठाकुर कहते हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश में ठाकुर को नाऊ नहीं कह सकते हैं, इस बात से ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारी सांस्कृतिक विरासत में बड़ी विविधता है।….. तो क्या संहिताबद्ध Religion के प्रचारक उसे समझ सकते हैं? क्या वो समझ सकते हैं कि ‘धर्म’ का अनुवाद Religion नहीं हो सकता! जब हमारे एक शब्द, जिस पर वो आघात कर रहे हैं, के लिए उनके पास अनुवाद शब्द नहीं है, तो वो कैसे संस्कृत के विद्वान हो गए? जो समूचे का सटीक भावार्थ बताए।
मैक्समूलर संस्कृत- इंग्लिश डिक्शनरी पढ़ कर संस्कृत के विद्वान बन बैठे, जिसे भारत की संस्कृति पर अपने अनुसार व्याख्यान देना, हमने स्वीकार कर लिया? मैक्समूलर और ऐसे ही तमाम अँग्रेज शोधार्थियों के कथन को हम ब्रह्म वाक्य मान लेंगे क्या? क्या हम ऐसे विद्वानों के चश्मे से अपने भारत के समाज और उसके इतिहास को अपने मूल नहीं बल्कि विदेशी हितों की रक्षा के परिप्रेक्ष्य में पढ़ेंगे??
क्या हम अपने भाषा संस्कृति के विद्वानों के कथन, शोध और अपने विवेक से अपने समाज का चरित्र चित्रण नहीं करेंगे?
श्रीमद्भागवत गीता में लिखा है –
‘‘जन्मना जायते शूद्रः, संस्कारात् द्विजः भवति।’’
यानी जन्म से हर व्यक्ति शूद्र होता है, पर जैसे-जैसे उसके संस्कार चेतन होते जाते हैं, वह द्विजता की सीढ़ी चढ़ता जाता है।
गीता में ही शूद्रों के लिए लिखा गया है –
‘‘परिचर्यात्मकम् कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम’’
-यदि स्वभाव से शूद्र है तो उसका कार्य परिचर्या करना है। यदि कोई स्वभावतः ज्ञान, विज्ञान के क्षेत्र में नहीं जाना चाहता है तो उसके लिए सर्विस सैक्टर है। तो क्या जो व्यक्ति ज्ञान, विज्ञान, शोध, अनुसंधान, अध्ययन, अध्यापन में नहीं जाना चाहता है उसे जबर्दस्ती ऐसा करने के लिए बाध्य करेंगे? और कोई हमारे कहने से अनिच्छा से मान जाएगा? अरे, हम अपने बच्चे को शोध, अध्ययन, अध्यापन के लिए बाध्य नहीं कर सकते हैं, तो दूसरों के लिए कैसे हो सकता है? जिसे सर्विस सैक्टर में जाना होगा, जाएगा।
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में शूद्रों का धर्म बताया है –
‘‘शूद्रस्य द्विजात शुश्रुषा वार्ता कारकुशीलव कर्म च।’’
वार्ता का अर्थ कौटिल्य के अनुसार-
वार्ता – कृषि, पशुपालन और व्यापार
वार्ता, विद्या के अंग हैं-जिसमें धान्य, पशु, हिरण्य यानी खनिज पदार्थों, ताम्र आदि धातु, शिल्प विज्ञान के बारे में ज्ञान है।
कारकुशीलव का अर्थ-शिल्प विज्ञान में विशेष कुशलता यानी कि Expertise प्राप्त करना, जिसे वर्तमान भाषा में जमबीदवबतंजे, इंजीनियर या और भी ऐसे ही कई संबोधन दिए जा सकते हैं, यानी कि GDP की रीढ़।
परिचर्या, शुश्रुषा और संस्कार का अर्थ-अमर कोश के अनुसार, (द्वितीय काण्ड-ब्रह्म वर्ग -6, श्लोक-4 के अनुसार) चत्वारि शुश्रुषायाः-वरिवस्या तू शुश्रुषा परिचर्या उपासना।
अब मुझे समझ में नहीं आता वर्तमान शूद्रों के लिए वर्णित डमदपंस रवइ कहाँ से आया? मुझे नहीं लगता कि इसकी अपने मन मुताबिक व्याख्या करने के लिए किस विद्वान से सम्पर्क किया गया होगा? जिसे न संस्कृत ना ही भारतीय संस्कृति का किसी भी प्रकार का ज्ञान होगा।
क्रमशः

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