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बदली-बदली नजर आएगी कोविड-19 के बाद की दुनिया

कोविड-19 न सिर्फ हमारी कार्य संस्कृति को बदलने वाला है बल्कि यह हमारे जीने के ढ़ंग को भी बदलेगा। इन्हीं बातों को रेखांकित कर रहे हैं वरिष्ठ शोधार्थी शिवानंद द्विवेदी

नई दिल्ली/एसबीएम
रहन-सहन और जन-जीवन का संबंध मनोस्थिति एवं शरीर की अनुकूलता पर निर्भर करता है। मनोस्थिति का निर्माण परिस्थितियों से होता है और शारीरिक अनुकूलता हमें अपने वातावरण, पर्यावरण तथा प्रकृति से हासिल हो जाती है।
आज इस सवाल पर व्यापक चर्चा चल रही है कि कोविड-19 के बाद की दुनिया कैसी होगी ? निसंदेह दुनिया में होने वाले बदलावों के बीच भारत भी अछूता नहीं रहेगा। मानव सभ्यता को चुनौती देने वाली महामारी से बाहर निकलने के बाद देश के सामाजिक ताने-बाने, आर्थिक तौर-तरीकों, पर्यावरण के प्रति व्यक्ति के दृष्टिकोण, स्वास्थ्य को लेकर परिवारों के नजरिये सहित हमारे विविध कार्यपद्धतियों में बदलाव देखने को मिलेगा। अदृश्य वायरस की वजह से लॉक डाउन के दौर में समाज का हर व्यक्ति भविष्य में होने वाले बदलावों के लिए ‘मन और शरीर’ से तैयार हो रहा है। बेशक यह बदलाव फिलहाल आभाषीय न हो किंतु कहना गलत नहीं होगा कि यह मनुष्य के सीखने का दौर है। हम भविष्य के संभावित बदलावों को सीख रहे हैं। चाहें भय वश हो या लक्ष्य वश अथवा बाधा वश ही क्यों न हो, हम नए तौर तरीकों को आजमा रहे हैं।
आज सेवा क्षेत्र के अनेक उपक्रमों से जुड़े लोग ‘घर से काम’ कर रहे हैं। बड़े-बड़े मीडिया संस्थान, कंसल्टेंसी फर्म, सूचना और प्रौद्योगिकी क्षेत्र इस कठिन दौर में ‘वर्क फ्रॉम होम’ के भरोसे ही चल रहे हैं। यह सब तब चल रहा है जब न तो नियोक्ताओं की और न ही काम करने वाले लोगों की मनोस्थिति इसके लिए पहले से तैयार थी। किंतु काम करने की यह नवाचारी संस्कृति इस प्रतिकूल दौर में ही मजबूरी का उपकरण बनकर चल रही है। दरअसल आमूलचूल बदलाव शांतिकाल में नहीं बल्कि विपरीत परिस्थितियों में ही होते हैं।
शिक्षा के क्षेत्र में भी आंशिक बदलावों की गुंजाइश तैयार होती दिख रही है। स्कूलों द्वारा ई-लर्निंग तथा ई-क्लासेस को बढ़ावा दिया जा रहा है। यह आवश्यक भी है, क्योंकि कोरोना का प्रभाव तात्कालिक नहीं है। तात्कालिक रूप से बेशक इस पर हम नियंत्रण कर लें, लेकिन स्थायी और सुरक्षित समाधान खोजने का रास्ता वर्षों तक चलने वाला है। ऐसे में यदि ‘ई-क्लासेस’ की संस्कृति के प्रति हम मन से तैयार होते हैं तो इससे शिक्षा सुलभता भी बढ़ेगी और संसाधनों की बजाय शिक्षा के गुणवत्ता पर ज्यादा ध्यान केंद्रित हो पायेगा।
जिस ढंग से दुनिया के बेहतर स्वास्थ्य ढाँचे इस वायरस के आगे घुटने टेकने पर मजबूर हुए हैं। दुनिया इस पर जरूर सोच रही है कि भविष्य का स्वास्थ्य मॉडल क्या हो? यह एक ऐसा विषय है जिसपर भारत नेतृत्वकर्ता बनकर दुनिया को ‘आदर्श मॉडल’ दे सकता है। दरअसल स्वास्थ्य को लेकर दुनिया के जो कथित विकसित मॉडल हैं, वो ‘इलाज केंद्रित’ हैं। अर्थात् उनका स्वास्थ्य चिंतन बीमार होने के बाद की प्रक्रिया पर ज्यादा जोर देता है। भारत अपने पुरातन आरोग्य प्रणाली के साथ एक ऐसे स्वास्थ्य चिंतन पर बात कर सकता है, जिसमें अधिक जोर इस पर हो कि हम ‘कम बीमार’ लोगों का समाज तैयार करें। सही मायने में ‘इलाज के साधन’  केन्द्रित संकुचित दायरे से निकलकर संपूर्णता में इसपर बल देना होगा कि किन उपायों से हम कम बीमार लोगों का देश बन सकेंगे। स्वास्थ्य चिंतन का सही दृष्टिकोण यही है। अत: देश को इस चिंतन की तरफ आगे बढ़ना ही होगा।
संवाद और बैठकों को लेकर यह दौर बदलाव के नए द्वार खोलने वाला है। लॉक डाउन के दौरान छोटी-बड़ी कंपनियों ने बैठकों तथा चर्चाओं के लिए डिजिटल एप का सहारा लिया है। बेशक यह वर्तमान में सहूलियत में आजमाई जा रही पगडंडी है। किंतु भविष्य में बैठक, संवाद, चर्चा का मुख्यमार्ग भी यहीं से निकलेगा।
चूंकि अर्थशास्त्रियों द्वारा ऐसी संभावना जताई जा रही है कि कोविड-19 के बाद सभी औद्योगिक क्षेत्र आर्थिक कठिनाइयों से गुजरेंगे। ऐसे में रोजगार और वेतन में कटौती से बचने के लिए कंपनियां ऐसे डिजिटल एप को और सुरक्षित एवं आत्मनिर्भरता के साथ विकसित करके श्रम और वेतन में कटौती की बजाय अन्य संसाधनों में कटौती करके नुकसान की भारपाई का रास्ता खोज सकती हैं। निश्चित ही भविष्य में औद्योगिक एवं आर्थिक क्षेत्र ऐसे नवाचारों की कार्य-संस्कृति की तरफ जरुर सोचेंगे।
इस दौर से हासिल अनुभव मानव को उसके खान-पान, यातायात, पर्यावरण व प्रकृति के प्रति सजग सोच, शारीरिक दूरी के अभ्यास तथा स्वच्छता के प्रति दृष्टि को प्रभावित करने वाला होगा।
आज हम जिस तरह का जीवन बंद कमरों में जी रहे हैं, वह अतीत में हमारी कल्पना से परे रहा है। किंतु भविष्य की दुनिया में हमें कैसे जीना है उसकी सीख इसी दौर में हमें मिल रही है। आवश्कयता अगर आविष्कार की जननी है तो परिस्थिति हमारे जीवन का अदृश्य शिक्षक भी है। हमें स्वीकारना होगा कि आज का मानव भविष्य की दुनिया के लिए खुद को तैयार करने के प्रशिक्षण काल से गुजर रहा है।
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर रिसर्च फेलो हैं)

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