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समाज चाहे तो कुपोषण पर पोषण की होगी जीत

If the society wants, nutrition will win over malnutrition

रवि शंकर

विज्ञान व तकनीक एक तरफ देश में क्रांति ला रही है तो दूसरी तरफ हम मानव के जीवन की प्राथमिक जरूरत, भूख को पूरा नहीं कर पाए हैं। यह अपार प्रगति सबके लिए भोजन का प्रबन्ध नहीं कर पाई है। सामाजिक और आर्थिक विकास के पैमाने पर देखें तो भारत की एक विरोधाभासी तस्वीर उभरती है। एक तरफ तो हम दुनिया के दूसरे सबसे बड़े खाद्यान्न उत्पादक देश हैं तो दूसरी तरफ हम कुपोषण के मामले में देखें तो तमाम कोशिशों के बावजूद आंकड़े सोचने के लिए मजबूर करते हैं। विकास के तमाम दावों के बावजूद भारत अभी भी गरीबी और भुखमरी जैसी बुनियादी समस्याओं के चपेट से बाहर नहीं निकल सका है। समय-समय पर होने वाले अध्ययन और रिपोर्ट भी इस बात का खुलासा करते हैं कि तमाम योजनाओं के एलान के बावजूद देश में भूख व कुपोषण की स्थिति पर लगाम नही लगाया जा सका है।

देश में एक तिहाई बच्चे कुपोषण के शिकार हैं

    वर्तमान में सरकार द्वारा व्यापक स्तर पर खाद्य सुरक्षा और गरीबी मिटाने से संबंधित कार्यक्रम संचालित किया जा रहा है बावजूद इसके इनसे लाभान्वित होने और लाभान्वित न होने वालों के बीच बहुत बड़ा अंतर है। देश मे एक तिहाई से ज्यादा बच्चे अभी भी कुपोषण का शिकार हैं। वंचित तबकों में समस्या काफी गंभीर है।

कुपोषण के मामले में कमी आने पर खुश नहीं हो सकते हैं

हम खुश हो सकते हैं कि कुपोषण की समस्या में पिछले एक दशक के दौरान कमी आई है, लेकिन हमारी खुशी स्थाई नहीं हो सकती अगर हम समग्र तस्वीर पर नजर डालें। दरअसल, हमारे यहां सामान्य कुपोषण से अलग गंभीर रूप से कुपोषण एक महामारी की तरह बड़ी संख्या में महिलाओं बच्चों का जीवन छीन रहा है। गंभीर और तीव्र कुपोषण ज्यादातर मामले में जानलेवा हो सकता है। इस समस्या से निपटने के लिए हमने अभी तक कोई ठोस कदम नही उठाया है। या जिन उपायों को हम ठोस मानकर आगे लेकर आये हैं वे इससे निपटने में कारगर नही हैं। नीति आयोग गंभीर रूप से कुपोषण पर समुदाय आधारित कुपोषण प्रबंधन की नीति तय नही कर पाया है। इसका साफ मतलब यह है कि तमाम योजनाओं के ऐलान और बहुत सारे वादों के बावजूद अगर देश में भूख व कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या ये है तो योजनाओं को लागू करने में कहीं न कहीं भारी गड़बड़ियां और अनियमितताएं हैं। फिलहाल जरूरत इस बात है भुखमरी से लड़ाई में केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और वैश्विक संगठन अपने-अपने कार्यक्रमों को बेहतर स्वरूप और अधिक उत्तरदायित्व के साथ लागू करें।

5 वर्ष से कम उम्र के कुपोषित बच्चों के मामलों बिहार नंबर-1 तो एमपी दूसरे स्थान पर

कई रिपोर्ट साफ कहती है कि पर्याप्त पोषण सुनिश्चित करने में देश विफल रहा है। गौरतलब है कि भारत लंबे समय से विश्व में सर्वाधिक कुपोषित बच्चों का देश बना है। हालांकि कुपोषण के स्तर को कम करने में कुछ प्रगति भी हुई है। गंभीर कुपोषण के शिकार बच्चों का अनुपात वर्ष 2005-06 के 48 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2015-16 में 38.4 प्रतिशत हो गया। इस अवधि में अल्प वज़न के शिकार बच्चों का प्रतिशत 42.5 प्रतिशत से घटकर 35.7 प्रतिशत हो गया। साथ ही शिशुओं में रक्ताल्पता (एनीमिया) की स्थिति 69.5 प्रतिशत से घटकर 58.5 प्रतिशत रह गई किंतु इसे अत्यंत सीमित प्रगति ही मान सकते हैं। भारत में शिशु मृत्यु दर में गिरावट तो आई है लेकिन अभी भी भारत में 5 साल से कम उम्र के कुपोषित बच्चों की संख्या 35 फीसद है। इनमें भी बिहार और उत्तर प्रदेश सबसे आगे हैं। उसके बाद झारखण्ड, मेघालय और मध्य प्रदेश का नम्बर है। मध्य प्रदेश में 5 साल से छोटी उम्र के 42 फीसद बच्चे कुपोषित हैं तो बिहार में यह फीसद 48.3 है।

इन राज्यों स्थिति बेहतर है

कुशल प्रबंधन वाले राज्यों केरल, गोवा, मेघालय, तमिलनाडु व मिजोरम कुपोषण के मामले में देश के अन्य  राज्यों से बेहतर हैं। जिन राज्यों में परिवार नियोजन, जन स्वास्थ्य कार्यक्रमों आदि की सरकारों द्वारा अनदेखी की जाती है, उन्हीं राज्यों में कुपोषण की समस्या सबसे ज्यादा विकट है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि जब देश में अपार संसाधन है, देश तरक्की कर रहा है, हम लाइलाज बीमारियों को पराजित कर रहे हैं, ऐसे में भूख का इलाज क्यों नहीं कर पा रहें हैं?

कुपोषण 10 लाख बच्चों को प्रत्येक साल निगल रहा है

    यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुपोषण के कारण पांच साल से कम उम्र के करीब दस लाख बच्चों की हर साल मौत हो जाती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कुपोषण के शिकार बच्चों की संख्या भारत में दक्षिण एशिया के देशों से बहुत ज्यादा है। गौर कीजिये एक तरफ हम मंगल पर जीवन की खोज करने में मशगूल हैं, अपने पुराने सपनों के चांद पर इंसानी बस्ती बनाने की सिर्फ कल्पना ही नहीं कर रहे बल्कि योजना भी बना रहे हैं।

भारत में हर चौथा बच्चा कुपोषित है

आंकड़ों की माने तो भारत में लगभग हर चौथा बच्चा कुपोषित है। सबको खाना ना मिलने पर या सीधा कहूं तो भूख का सबसे बड़ा प्रभाव बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास पर पड़ता है जो केवल हमारे वर्तमान को ही नहीं बल्कि भविष्य की पीढ़ियों को भी प्रभावित करेगा। सवाल है, भारत में इस भूखमरी का कारण क्या है? क्या संसाधनों की कमी है? नहीं ऐसी स्थिति कम से कम भारत में नहीं है। भारत में ना तो प्राकृतिक संसाधनों की कमी है और ना ही वित्तीय संसाधनों की। कमी है तो केवल प्राथमिकता की। भारत में कुपोषण और खाद्य सुरक्षा को लेकर कई योजनाएं चलाईं जाती रही हैं, लेकिन समस्या की विकरालता को देखते हुए ये नाकाफी तो थी हीं साथ ही व्यवस्थागत, प्रक्रियात्मक विसंगतियों और भ्रष्टाचार की वजह से भी ये तकरीबन बेअसर साबित हुई हैं।

दरअसल, भूख से बचाव यानी खाद्य सुरक्षा की अवधारणा एक बुनियादी अधिकार है जिसके तहत सभी को जरूरी पोषक तत्वों से परिपूर्ण भोजन उनकी जरूरत के हिसाब, समय पर और गरिमामय तरीके से उपलब्ध कराना किसी भी लोक कल्याणकारी सरकार का पहला दायित्व होना चाहिए। सच्चाई तो यह है कि कुपोषण किसी भी देश या समाज के लिए मौजूदा समय में सबसे बड़ी समस्या है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार कुपोषण, अल्पपोषण, कम वजन जन्म और रक्ताल्पता से मुद्दे पर चिंता जाहिर कर चूके हैं। क्योंकि भारत में कुपोषण की इतनी बड़ी समस्या है कि इससे निपटना आसान नहीं है।

8 मार्च 2018 को शुरू हुआ पोषण अभियान    

भारत सरकार ने पोषण अभियान (राष्‍ट्रीय पोषण मिशन) की स्‍थापना की है। इसका शुभारंभ 8 मार्च 2018 को राजस्‍थान के झुंझूनु से प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी ने किया था। टेक्‍नॉलोजी के माध्‍यम से कार्यक्रम में लक्षित दृष्टिकोण और मेल-जोल का प्रयास किया गया है ताकि स्‍टंटिंग के स्‍तर को घटाने, कुपोषण, अनेमिया तथा जन्‍म के समय बच्‍चों के कम वजन की समस्‍या सुलझाई जा सके और किशोरियों, गर्भवती महिलाओं तथा स्‍तनपान कराने वाली माताओं पर फोकस करके कुपोषण की समस्‍या का समग्र रूप से समाधान निकाला जा सके।

पोषण अभियान का उद्देश्‍य सेवा सुनिश्चित करना तथा टेक्‍नोलॉजी के उपयोग से कार्रवाई करना, सम्‍मेलन के माध्‍यम से व्‍यवहार में परिवर्तन लाना तथा अगले कुछ वर्षों में निगरानी के विभिन्‍न मानकों के अनुसार निर्धारित लक्ष्‍य हासिल करना है। समग्र दृष्टिकोण सुनिश्चित करने के लिए सभी 36 राज्‍यों / केन्‍द्र शासित प्रदेशों तथा 718 जिलों को चरणबद्ध तरीके से 2020 तक कवर किया जाएगा।

कुपोषण की स्थिति हमारे संवैधानिक अधिकारों का हनन भी है

नि:संदेह यदि बच्चे कुपोषित पैदा हो रहे हैं तो एक निष्कर्ष यह भी है कि उनकी माताओं का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं है। गरीबी, अशिक्षा व अज्ञानता के चलते गर्भावस्था के दौरान जरूरी खानपान न मिल पाना कुपोषण की एक श्रृंखला को जन्म देता है। भारत के संविधान का अनुच्छेद-21 हर एक के लिए जीवन और स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार सुनिश्चित करता है। इस अनुच्छेद के तहत उपलब्ध जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार में भोजन का अधिकार सम्मिलित है। वहीं संविधान का अनुच्छेद-47 कहता है कि लोगों के पोषण और जीवन के स्तर को उठाने के साथ ही जन स्वास्थ्य को बेहतर बनाना राज्य की प्राथमिक जिम्मेदारी है।

समाज चाहे तो कुपोषण हारेगा पोषण जितेगा

कुपोषण से निपटने के लिये केन्द्र और राज्यों के बीच सभी योजनाओं में समन्वय बेहद जरूरी है। यूनिसेफ की प्रोग्रेस फॉर चिल्ड्रेन रिपोर्ट में चेतावनी देते हुए कहा गया है कि गर नवजात शिशु को आहार देने के उचित तरीके के साथ-साथ स्वास्थ्य के प्रति कुछ सामान्य सावधानियां बरती जाएं तो भारत में हर साल पांच वर्ष से कम उम्र के छह लाख से ज्यादा बच्चों की मौत को टाला जा सकता है। उम्मीद कर सकते हैं कि कुपोषण से चौतरफा लड़ाई में उतरी मोदी सरकार अपने लक्ष्य को समय पर हासिल कर लेगी। सरकार के पोषण अभियान से कुपोषण मुक्त भारत का सपना साकार होगा। इसके लिए यह भी जरूरी है कि समाज भी आगे आए और अपने आस पास के कुपोषित बच्चों के पोषण का ख्याल रखे।

 (लेखक, शोधकर्ता और पत्रकार है।)

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