अंतर्राराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी सिनेमा का कद बढ़ाने वाला ‘जोरम’ सिर्फ एक फिल्म का नाम ही नहीं, जमीन, संस्कृति, नदी, जीवन से जबरन बेदखल किये जा रहे आदिवासियों की धधकती जिजीविषा का दस्तावेज भी है, जिससे आप आंख नहीं चुरा सकते। अपने जीवंत अभिनय से इसे मनोज वाजपेयी और अमरेंद्र शर्मा ने तथा देवाशीष मखीजा के निर्देशन ने ऐसा साकार किया है कि हर प्लेटफॉर्म से सराहना के साथ ‘जोरम’को अवार्ड मिल रहे हैं।
संयोग से दोनों प्रमुख कलाकार थियेटर में अपनी प्रतिभा मांज चुके हैं। मनोज वाजपेयी से कौन नहीं परिचित है लेकिन अब सैमसन का किरदार निभाने वाले अमरेंद्र शर्मा की अदाकारी भी चर्चा में आ गयी है। मनोज वाजपेयी को अपना आदर्श मानने वाले अमरेंद्र के लिए ‘जोरम’ सुनहरा अवसर बन गया है। पेश है उनसे हमारे विशेष संवाददाता अजय वर्मा की एक्सक्लूसिव बातचीत।
प्रश्न : जोरम को आप कैसे देखते हैं?
अमरेंद्र : फिल्म में इस नाम की अबोध बच्ची है। उसे और उसके पिता नायक मनोज जी के खुद को बचाने की जद्दोजहद को रेखांकित करती फिल्म है। नक्सली बैकग्राउंड पर बनी फिल्म में थ्रिल है जो कहानी, फिल्मांकन, स्क्रीन प्ले, संगीत, संपादन आदि से उभरकर सामने आया है। रोजी-रोटी के लिए नायक दसरु मुबई आता है लेकिन यहां उसकी पत्नी की हत्या हो जाती है। फिर इनको और पूरे परिवार के खात्मे की तैयारी की भनक लगती है। प्रयास होते हैं। नायक को पता ही नहीं चलता कि कौन और क्यों उसके पीछे पड़ा है। आखिरकार वह बच्ची जोरम को लेकर झारखंड के अपने गांव पहुंचता है तो वहां का बदला परिदृश्य भौंचक कर देता है। वह सब खत्म हो चुका है जिसे छोड़कर सपरिवार महानगर गया था। जंगल, नदी, पहाड़, जमीन—सब कुछ। बच्ची को लेकर इमोशनल टच है जो फिल्म का मूल भी है।
प्रश्न : मनोज जी के साथ यह पहली फिल्म है न?
अमरेंद्र : फिल्म तो पहली है लेकिन दिल्ली रहने के दौरान 1971 के भारत-पाक युद्ध पर आधारित प्ले में उनके साथ था। उनसे बहुत कुछ बारीकियां सीखीं। बेहतर परफॉमेंस के लिए कई मौके पर उनकी सलाह भी मिलती रही। सच कहूं तो वे मेरे आदर्श भी हैं। व्यक्तिगत और अदाकारी, दोनों में।
प्रश्न : मनोज जी जैसे दिग्गज के साथ बड़े परदे पर आने पर कोई तनाव या परेशानी रही?
अमरेंद्र : इस तरह की बात नहीं थी। प्रेसर सिर्फ यह था कि उनके सामने अच्छा परफॉर्म करना है। वो दिग्गज और मैं….लेकिन उनका सहयोग काफी रहा। एक्ट करते वक्त भी बताते थे कि ऐसे नहीं, ऐसे करना है।
प्रश्न: सैमसन के रोल में आपने बड़े परदे पर जोरदार दस्तक दी है। इस उपलब्धि पर आप क्या कहेंगे?
अमरेंद्र: यह उपलब्धि मेरे गुरुजनों, मेरे माता-पिता, दोस्त और उन सभी चाहने वालों को समर्पित है, जिन्होंने मेरे रंगकर्म को समझा, मुझे उत्साहित किया, मुझे थामा और मुझ पर भरोसा बनाए रखा।
प्रश्न : आपकी रंगयात्रा कब शुरु हुई?
अमरेंद्र : 1999 के समापन तक मैं इस रंगयात्रा में आ चुका था। पंकज त्रिपाठी भैया के साथ पटना के कालीदास रंगालय से इसकी शुरुआत हुई थी। उनके निर्देशन में प्ले किया। हम कई लोग एनएसडियन पास आउट विजय कुमार के ग्रुप में थे। फिर कलकत्ता आना हुआ उषा गांगुली की रिपर्टरी में थियेटर करने। दो साल बाद दिल्ली आ गया साहित्य कला परिषद रिपर्टरी में। सतीश आनंद के साथ प्ले किया। समझिये कि मनोज सर के सहयोग और प्रेरणा बटोरते हुए बरास्ता थियेटर सिनेलोक में आना हुआ मेरा।
प्रश्न :…और रंगयात्रा से सिनेयात्रा के बारे में भी कुछ बताएं ?
अमरेंद्र : थियेटर के बाद इस ओर आया। बाटला हाउस में जॉन अब्राहिम के साथ काम मिला। कई अवार्ड बटोर चुकी फिल्म “भोर”में प्रवासी की भूमिका थी। आने वाली फिल्मों में ‘भैयाजी’ शामिल है, जिसमें फिर से मनोज जी के साथ हूं। यह मूवी पूरी तरह से कॉमर्शियल, एक्शन, रिवेंज, ड्रामा फ़िल्म है। ऑफबीट सिनेमा ‘मुनरेन’को भी अवार्ड मिला जो एक बच्ची को हॉकी प्लेयर बनाने को लेकर है। ‘कोविड स्टोरी’ में ऋचा चड्ढा के साथ आप देख सकेंगे।
प्रश्न : थियेटर और फिल्म साथ-साथ?
अमरेंद्र : फिल्म की व्यस्तता बढ़ेगी तो थियेटर कम होना ही है। दूसरी अहम बात, थियेटर में पैसा भी नहीं है। सरवाइव भी तो करना है। लॉकडाउन के दौरान ‘बटोही’नाम से म्यूजिक वीडियो भी बनाया था पलायन को लेकर। वह भी काफी लोकप्रिय हुआ।
प्रश्न : भोजपुरी भाषी बेल्ट के होकर भी भोजपुरी इंडस्ट्री को आपने नहीं चुना? इसकी कोई ख़ास वजह।
अमरेंद्र : चुनने की बात नहीं है। मैं जो करना चाहता रहा वो वहां नहीं है। वहां कॉपी होती है। सब में एक जैसी कहानी मिलेगी। थियेटर करने के बाद वहां के बारे में सोच ही नहीं गयी। भोजपुरी में एक एलबम बनाया था। दो और करने जा रहा हूं। भोजपुरी से नफरत थोड़े ही है। कोई अच्छी कहानी लेकर आयेगा तो करूंगा। जब आये थे, वह वल्गर था जिसे करने का कोई मतलब नहीं था। पैसा भी नहीं है। वही लोग कमा रहे हैं जो सिंगर है। बाकी लोग तो सिर्फ काम कर रहे हैं।
प्रश्न : नेपोटिज्म और स्टार किड के चलन में आउटसाइडर का आना क्या मुश्किल भरा है?
अमरेंद्र : यह तो इंसान की फितरत है। आज जितने स्टार हैं, सब आउटसाइडर ही हैं। जम गये तो बच्चों-संबंधियों को भी इस काफिले में साथ कर लिया। वैसे ही जैसे डॉक्टर का बेटा डॉक्टर बनता है तो मास्टर का बेटा मास्टर। जरूरत है टैलेंट की। टैलेंट है तो आडटसाइडर भी जम जाता है। मनोज सर, पंकज त्रिपाठी भैया का उदाहरण सामने है। शाहरुख खान, अमिताभ बच्चन से लेकर अक्षय कुमार तक सब आउटसाइडर ही थे कभी। मैं भी चाहूंगा कि मेरे बच्चे भी इसी रास्ते की ओर बढ़ें। आर्ट है तो काम मिलेगा। बेतिया में मदन जायसवाल राजनीति में उतरे। आज उनके पुत्र संजय जायसवाल। लालू मुख्यमंत्री बने। अब उनका बेटा बनना चाहता है। हर क्षेत्र में एक ही कहानी है। हां, यहां नये लोगों को काम पाने में संघर्ष करना पड़ता है।
प्रश्न : ‘जोरम’के निर्देशक की भी खूब तारीफ हो रही है। आप क्या कहेंगे?
अमरेंद्र : बिना उनके विजन की चर्चा किये बात खत्म नहीं हो सकती। देवाशीष मखीजा सर इसके डायरेक्टर-प्रोड्यूसर हैं। वे स्वतंत्र फिल्मकार हैं। अपनी सोच के मुताबिक बनाते हैं फिल्म। सामाजिक मुद्दा उनके सामने पहले होता है, बाद में मनोरंजन। उन्होंने ‘तांडव’बनायी थी। मनोज जी के साथ चर्चित फिल्म ‘भोंसले’ बनायी जिसमें मनोज जी को नेशनल अवार्ड मिला। इनकी सारी फिल्में इंटरनेशलन मंच पर जाती हैं और सराहना तथा अवार्ड बटोर लाती हैं। कहानी पर वो पूरा रिसर्च करते हैं। स्क्रीन प्ले, संगीत…हर बिंदु पर मेहनत झलकता है। क्रू मेंबर को बहुत प्यार देते हैं।