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आयुष / Aayush

कुपोषित भारत की कैसे बढ़ेगी रोग प्रतिरोधक क्षमता

रोग प्रतिरोधक क्षमता के विस्तार के लिए जरूरी है पोषणयुक्त भोजन। इन्हीं बिन्दुओं को रेखांकित कर रहे हैं स्वस्थ भारत (न्यास ) के विधि सलाहकार एवं स्तंभकार अमित त्यागी

एसबीएम विशेष

AMIT TYAGI, LEGAL ADVISOR, Swasth Bharat and Sr.Journalist

जब तक कोरोना की कोई संतोषजनक वैक्सीन नहीं आ रही है तब तक रोग प्रतिरोधक क्षमता को ही इसका सर्वश्रेष्ठ विकल्प माना जा रहा है। आयुर्वेद के जानकार और आयुष मंत्रालय भी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए काढ़ा को विकल्प बता रहे हैं। रोग प्रतिरोधक क्षमता तभी अपने उत्कर्ष पर पहुँच सकती है जब हम कुपोषण से निजात पा लें? ऐसा देखा जाता है कि जहां महिलाएं स्वस्थ होती हैं वहाँ बच्चे भी स्वस्थ होते हैं। जहां महिलाएं स्वास्थ्य के मानकों में पिछड़ी होती हैं वहाँ शिशुओं और बच्चों में भी कुपोषण पाया जाता है। 2016-18 के कालखंड में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार भारत में जन्मे दो साल से कम उम्र के शिशुओं में सिर्फ 6.4 प्रतिशत ही ऐसे पाये गए थे जिन्हे न्यूनतम एवं अनिवार्य पोषण मिल रहा है। यानि कि पढ़े लिखे और समृद्ध वर्ग के लोगों में भी कुपोषण देखा गया था।
इसके बाद सामाजिक और आर्थिक विश्लेषकों के बीच में ऐसी चर्चा शुरू हुयी कि आर्थिक संपन्नता के के फेर में कहीं अभिभावक अपने बच्चों की परवरिश को उपेक्षित तो नहीं कर रहे हैं। कहीं अपनी महत्वकांक्षा के कारण अपने बच्चे को कुपोषित तो नहीं होने दे रहे हैं। यदि आंकड़ों में देखें तो आंध्र प्रदेश में जहां 1.3 प्रतिशत बच्चे पोषक तत्वों वाला भोजन पाते हैं तो महाराष्ट्र में सिर्फ 2.2 प्रतिशत। सबसे बेहतर परिणाम सिक्किम के आए जहां 35.2 प्रतिशत बच्चे समुचित पोषक तत्वों वाला भोजन पाने वाले पाये गए।

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इन सबके बीच सबसे विचारणीय आंकड़ा यह है कि आर्थिक रूप से सक्षम वर्ग का हर आठवां बच्चा स्थूल शरीर से ग्रसित पाया गया। देश के हर दसवे बच्चे में मधुमेह के पूर्व लक्षण मिले। देश का हर तीसरा बच्चा नाटा पाया गया। गरीबों में सौ में से एक बच्चा मोटा पाया गया। इसी तरह हर तीसरा बच्चा उम्र के अनुसार कम वज़न और हर छठवां बच्चा लंबाई के अनुसार कम वजन (दुबला) पाया गया। इसके साथ ही चार साल से कम के हर पाँच में से 2, स्कूल जाने वाले 4 बच्चों में से 1 एवं तरुणवय उम्र के 28 प्रतिशत बच्चों को एनीमिक या खून की कमी वाला पाया गया।

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संयुक्त राष्ट्र संघ के संगठन यूनिसेफ और डबल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार बच्चों को समुचित आहार न मिलना, उनके खान पान में अनियमितता होना एवं फास्ट फूड पर ज़्यादा निर्भर रहना इसकी प्रमुख वजहें हैं। ज़रा सोचिए कि यह कुपोषित बच्चे क्या सुदृढ़ और समृद्ध भारत का निर्माण कर सकते हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार किसी भी देश के नागरिकों की शारीरिक क्षमता कम होने की स्थिति में उनकी बौद्धिक क्षमता भी कम हो जाती हैं।
अब समस्या के समाधान की तरफ बढ़ते हैं तो इसमे महत्वपूर्ण यह है कि बच्चों को खाने पीने में ऐसे कौन से तत्व दिये जाये जिससे वह कुपोषित न बने। इसके लिए महिलाओं को जागरूक करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही उनको इस बात का ज्ञान देना आवश्यक है कि वह बच्चों को क्या खिलाएँ और क्या न खिलाएँ? जैसे प्रमुख खाद्य पदार्थ आलू, दाल, अंडा, मांसाहार, फलों का रस, सब्जियाँ और दूध से बने पदार्थ प्रमुख पौष्टिक पदार्थ माने गए हैं। डबल्यूएचओ के अनुसार इनमें से कोई चार पदार्थ अगर बच्चों को मिल जाते हैं तो उसमें कुपोषण की बीमारी नहीं होगी।

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आजकल मध्य वर्ग में खान पान की आदतें बदल गयी हैं। आजकल माताएँ अपने बच्चों को पिज्जा, बर्गर, नूडल्स, चिप्स जैसे जंक फूड देकर स्वयं को विकसित मानने का दंभ भरती हैं। जबकि इस तरह के खानो में अजीनों मोटों जैसा धीमा जहर मिला होता है। आज जब माँ और बाप दोनों नौकरी पेशा हो गए हैं तो खाना बनाने में लगने वाला अनमोल समय अब धन कमाने में व्यस्त होने लगा है। स्वास्थ्य के मापदंड कहते हैं कि मां का दूध पीने वाले बच्चों को तीन बार अन्य पौष्टिक आहार खिलाना चाहिए। ऊपर का दूध पीने वाले बच्चों को पाँच बार पौष्टिक आहार की आवश्यकता पड़ती है। पर जब माँ नौकरी पेशा हो और बच्चे के भविष्य के लिए धन कमाने में व्यस्त हो, तब बच्चे का वर्तमान बर्बाद होना तो तय है। इसके लिए महिला का जागरूक और विषय का ज्ञान होना परम आवश्यक है।
कोरोना-काल में लॉकडाउन के कारण को माँ बाप को घर पर बच्चों के साथ रहने का पर्याप्त समय मिला है। बच्चों ने घर का बना पौष्टिक आहार ग्रहण किया और उनकी खान पान की आदतों में भी सुधार हुआ है। लॉकडाउन के बाद भी यदि यही आदतें बरकरार रहती हैं तो भारत के भविष्य के लिए भी बेहतर होगा।

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