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चीनी का विकल्प तैयार करने की नई तकनीक विकसित

नयी दिल्ली। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) गुवाहाटी के शोधकर्ताओं ने गन्ने की पेराई के बाद बचे अवशेष से ज़ाइलिटोल (Xylitol) नामक चीनी के सुरक्षित विकल्प का उत्पादन करने के लिए अल्ट्रासाउंड-समर्थित किण्वन फर्मेंटेशन विधि विकसित की है। यह विधि संश्लेषण के रासायनिक तरीकों के परिचालन की सीमाओं और पारंपरिक किण्वन में लगने वाले समय को कम कर सकती है।

दांतों का क्षरण रोकेगा

मधुमेह रोगियों के साथ-साथ सामान्य स्वास्थ्य के लिए भी सफेद चीनी (सुक्रोज) के प्रतिकूल प्रभावों के बारे में बढ़ती जागरूकता के साथ चीनी के सुरक्षित विकल्पों की खपत में वृद्धि हुई है। ज़ाइलिटोल प्राकृतिक उत्पादों से प्राप्त शुगर अल्कोहल है जिसके संभावित रूप से एंटी-डायबिटिक और एंटी-ओबेसोजेनिक प्रभाव हो सकते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि ज़ाइलिटोल एक हल्का प्री-बायोटिक है और दांतों के क्षरण को रोकने में मदद करता है।

समय की भी बचत

केमिकल इंजीनियरिंग विभाग, आईआईटी गुवाहाटी से जुड़े इस अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता प्रोफेसर वीएस मोहोलकर ने कहा है कि “अल्ट्रासाउंड के उपयोग से पारंपरिक प्रक्रियाओं में लगने वाला लगभग 48 घंटे का किण्वन समय घटकर 15 घंटे हो गया है। इसके साथ-साथ उत्पाद में लगभग 20 प्रतिषत की वृद्धि हुई है। किण्वन के दौरान केवल 1.5 घंटे के अल्ट्रासोनिकेशन का उपयोग किया गया है जिसका अर्थ है कि अधिक अल्ट्रासाउंड पावर की खपत नहीं होती है। अल्ट्रासोनिक किण्वन के उपयोग से गन्ने की खोई से ज़ाइलिटोल उत्पादन भारत में गन्ना उद्योगों के लिए संभावित अवसर हो सकता है।”

अत्यधिक ऊर्जा की खपत

ज़ाइलिटोल औद्योगिक रूप से एक रासायनिक प्रतिक्रिया द्वारा निर्मित होता है जिसमें लकड़ी से व्युत्पन्न डी-ज़ाइलोस (D-xylose), जो एक महँगा रसायन है, बहुत उच्च तापमान और दबाव पर निकल उत्प्रेरक के साथ उपचारित किया जाता है। इस प्रक्रिया में अत्यधिक ऊर्जा की खपत होती है। इसमें ज़ाइलोस की केवल 08-15 फीसद मात्रा ज़ाइलिटोल में परिवर्तित होती है और व्यापक पृथक्करण और शुद्धिकरण चरणों की आवश्यकता होती है, जो इसकी कीमत को बढ़ा देते हैं।

किण्वन की प्रक्रिया धीमी

किण्वन एक जैव रासायनिक प्रक्रिया है जो ऐसे मुद्दों से निपटने में कारगर है। किण्वन कोई नई चीज़ नहीं है। भारत में कई घरों में दूध का दही में रूपांतरण किण्वन ही है। किण्वन में, बैक्टीरिया और खमीर जैसे विभिन्न प्रकार के सूक्ष्मजीवों का उपयोग करके एक पदार्थ को दूसरे में परिवर्तित किया जाता है। हालांकि, किण्वन प्रक्रिया धीमी होती है। उदाहरण के लिए, दूध को दही में बदलने में कई घंटे लगते हैं, और यह व्यावसायिक पैमाने पर इन प्रक्रियाओं का उपयोग करने में एक बड़ी बाधा है। यह अध्ययन शोध पत्रिका बायोरिसोर्स टेक्नोलॉजी और अल्ट्रासोनिक्स सोनोकेमिस्ट्री में प्रकाशित किया गया है।

इंडिया साइंस वायर से साभार

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