नयी दिल्ली (स्वस्थ भारत मीडिया)। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि निजी अस्पतालों की फार्मेसी से मरीज और तीमारदारों को लूटा जा रहा है लेकिन इसके लिए उसने राज्यों को निर्देशित किया है। अदालत में इस मसले पर दाखिल जनयाचिका पर सुनवाई चल रही थी। जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एनकोटिश्वर सिंह की पीठ ने लॉ के छात्र सिद्धार्थ डालमिया की ओर से दायर पीआईएल पर कहा कि स्वास्थ्य राज्य का मसला है। वे ही इसका प्रासंगिक उपाय निकालें। कोर्ट निणर्य दे तो उसका व्यापक प्रभाव भी पड़ सकता है।
सुप्रीम कोर्ट: देखें कि मरीजों का शोषण न हो
शीर्ष अदालत ने कहा कि यह मुद्दा नीति के दायरे में आता है। नीति निर्माताओं को इस मामले पर समग्र दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और उचित दिशा-निर्देश तैयार करने चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि मरीजों और उनके तीमारदारों का शोषण न हो। साथ ही निजी संस्थाओं को स्वास्थ्य क्षेत्र में प्रवेश करने से न हतोत्साहित किया जाए और न अनुचित प्रतिबंध लगाया जाए। पीठ ने कहा कि सरकारों की नाकामी से ऐसा होता है इसलिए केंद्र सरकार को भी इसके लिए गाइडलाइन बनानी चाहिए। पीठ ने कहा कि संविधान के तहत सरकार का दायित्व है कि वह अपने नागरिकों क बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराए, लेकिन जनसंख्या वृद्धि के कारण उसे अपने लोगों की जरूरतों क पूरा करने के लिए निजी अस्पतालों की मदद लेनी पड़ी। पीठ ने कहा कि बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं क नागरिकों का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित है। स्वास्थ्य क्षेत्र में निजी अस्पतालों के योगदान की सराहना करते हुए पीठ ने कहा कि न्यायालय द्वारा दिया गया कोई भी अनिवार्य निर्देश उनके कामकाज बाधा उत्पन्न कर सकता है तथा इसका व्यापक प्रभाव हो सकता है। सर्वोच्च अदालत ने केंद्र के इस रुख पर गौर किया कि मरीजों या उनके परिजनों पर अस्पताल स्थित दवा दुकानों या किसी खास दुकान से दवाइयां या चिकित्सा उपकरण लेने की कोई बाध्यता नहीं है।
केंद्र—राज्यों ने दिया था हलफनामा
सुप्रीम कोर्ट में इस दौरान केंद्र सरकार ने अपने जवाब में कहा कि मरीजों को अस्पताल की फार्मेसी से दवा खरीदने के लिए मजबूर नहीं किया जाता है। इस पर कोर्ट ने कहा कि यह जरूरी है कि राज्य सरकारें अपने अस्पतालों में दवाएं और मेडिकल सेवाएं सस्ती कीमतों पर उपलब्ध कराएं ताकि मरीजों का शोषण न हो। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सभी राज्यों को नोटिस भेजा था। ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, तमिलनाडु, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान समेत कई राज्यों ने जवाब दाखिल किए थे। दवाइयों की कीमतों के मुद्दे पर राज्यों ने कहा कि वे केंद्र सरकार के प्राइस कंट्रोल ऑर्डर पर निर्भर हैं। केंद्र सरकार ही तय करती है कि किस दवा की क्या कीमत होगी।
41 हजार की दवा 61 हजार में मिली
मालूम हो कि अपनी मां के उपचार के दौरान आई समस्याओ का जिक्र करते हुए याचिकाकर्ता ने कहा था कि उनकी मां के स्तन कैंसर का निदान हुआ था और अब वह ठीक हो चुकी हैं। उन्होंने अपनी याचिका में कहा कि उनकी मां को सर्जरी करानी पड़ी थी, जिसके बाद छह बार कीमोथेरेपी और अन्य उपचार के साथ-साथ हर 21 दिन में बिसेलटिस इंजेक्शन भी देना पड़ा था। उपचार के दौरान उन्हें पता चला कि बिसेलटिस इंजेक्शन उन्हें 61, 132 रुपये की अधिकत कीमत पर बेचा गया था, जबकि उसी कंपनी द्वारा निर्मित और विपणन की गई वही दवा खुले बाजार में 50,000 रुपये की रियायती दर पर बेची जा रही थी। इसके अलावा चार इंजेक्शन खरीदने पर कंपनी द्वारा मरीज सहायता कार्यक्रम के तहत एक इंजेक्शन मरीज को मुफ्त दिया जाता है। याचिका में कहा गया कि मुफ्त इंजेक्शन देने से प्रति इंजेक्शन की प्रभावी लागत करीब 41,000 रुपये आई, लेकिन इसे 61, 132 रुपये की अधिकतम बिक्री मूल्य (एमआरपी) पर बेचा जा रहा है।
हजार की वैक्सीन 2444 रुपये में
बिहार के एक पत्रकार प्रवीण बागी ने भी कुछ दिन पहले सोशल मीडिया पर ऐसी शिकायत दर्ज की थी। उन्होंने लिखा था कि पटना के एक नामी निजी अस्पताल में शिशु को दिए जानेवाले इन्फ्लूएंजा वैक्सीन का 2444 रुपए लिया जा रहा है। इन्फ्लूएंजा की यह वैक्सीन सिर्फ प्राइवेट हॉस्पिटलों में ही दी जाती है। सरकारी अस्पतालों में दिए जानेवाले वैक्सीन की लिस्ट में इसे अब तक शामिल नहीं किया गया है। जब शिशु 6 माह का हो जाता है, उसके बाद यह दिया जाता है। एक—एक महीने के अंतराल पर इसके दो डोज दिए जाते हैं। उधर होलसेल मार्केट में यह वैक्सीन मात्र एक हजार रुपए में मिल जाती है। लेकिन अगर आप बाहर से 1000 में खरीद कर यह वैक्सीन निजी अस्पताल में ले जाएंगे तो वे शिशु को वैक्सीन देने से मना कर देंगे। यही कहानी टाइफाइड के वैक्सीन की भी है। निजी अस्पताल वाले उसकी कीमत 2300 वसूलते हैं जबकि होलसेल मार्केट में वह वैक्सीन 1200 रुपए में मिल जाती है। टाइफाइड की वैक्सीन भी सरकारी अस्पतालों की लिस्ट में नहीं है। वहां यह वैक्सीन नहीं दी जाती। आम आदमी को निजी अस्पतालवाले कैसे दोनों हाथों से लूट रहे हैं, यह उसका एक छोटा सा उदाहरण है। दुखद यह है कि केंद्र और राज्य सरकारें इस लूट की मूक दर्शक बनी हुई हैं।
नियम 170 पर आयुष मंत्रालय का आदेश भी रद्द
सुप्रीम कोर्ट ने एक अन्य मामले में ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स रूल्स, 1945 के नियम 170 हटाने के केंद्र के फैसले पर रोक लगा दी है। कोर्ट ने इससे जुड़ा आयुष मंत्रालय का नोटिफिकेशन भी रद्द कर दिया है। नियम 170 आयुर्वेदिक, सिद्ध या यूनानी दवाओं के भ्रामक विज्ञापनों पर रोक लगाता है। जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस संदीप मेहता की बेंच ने इस पर केंद्र सरकार को फटकार लगाई। उसने कहा कि मंत्रालय का नोटिफिकेशन उसके 7 मई, 2024 के आदेश के खिलाफ है। सरकार कोर्ट के आदेश के बावजूद नियम 170 हटाने का फैसला कैसे कर सकते हैं? दरअसल, केंद्र ने 29 अगस्त, 2023 को एक लेटर जारी किया था। इसमें राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को नियम 170 के तहत कंपनियों पर कोई कार्रवाई शुरू या नहीं करने को कहा गया था। इसमें कहा गया कि आयुर्वेदिक, सिद्ध और यूनानी दवाएं, जिस राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में बन रही है, वहां की लाइसेंसिंग अथॉरिटी के अप्रूवल के बिना विज्ञापन नहीं दिया जा सकता।