प्रवासी मजदूरों का पलायन जारी है। ऐसे में इस पलायन के प्रमुख 10 कारणों को रेखांकित कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार उमेश चतुर्वेदी
नई दिल्ली/एसबीएम
उमेश चतुर्वेदी देश के जाने-माने जनसरोकारी पत्रकारों में शुमार किए जाते हैं। जनसरोकार से जुड़े आलेख देश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं में वे लिखते रहते हैं। जन की आवाज को वे बहुत ही नजदीक से अवलोकित करते रहे हैं। इसी कड़ी में उन्होंने प्रवासी मजदूरों के पलायन के कारणों को भी समझने का प्रयास किया है। काफी अध्ययन और सोच के बाद मजदूरों के पलायन की दस प्रमुख वजहों को उन्होंने गिनाया है। जिसे हम स्वस्थ भारत मीडिया के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं-
- निश्चित तौर पर काम रूकने से दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूरों के पास खाने और किराए की रकम खत्म हो गई..जिन राज्यों में वे हैं, उन्होंने उन्हें खिलाने-पिलाने का दावा तो किया, लेकिन हकीकत में यह राहत सब तक नहीं पहुंची..मजदूर लाचार हुए।
- दिल्ली जैसे राज्यों में कहा गया कि जिनके पास राशन कार्ड ही नहीं है, उन्हें उनके आधार कार्ड से भी राशन दिया गया..मजदूर जब आधार कार्ड लेकर राशन डिपो पहुंचे तो कहा गया कि उनका आधार कार्ड का पता दिल्ली से बाहर का है, लिहाजा उन्हें राशन नहीं मिलेगा..ज्यादातर मजदूरों की यही हालत है। जिनके पास राशन कार्ड नहीं हैं, उनमें से ज्यादातर के पास आधारकार्ड उनके मूल निवास वाली जगहों का है…
- हर राज्य को पता था कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक लॉकडाउन लंबा चलेगा..लिहाजा उन्होंने अपनी अर्थव्यवस्था की बुनियाद इन मजदूरों को अपनी जगहों से हटाने में ही अपनी भलाई समझी और वे उन्हें हटाने का उपाय ढूंढ़ने लगे…वे मजदूरों को बाहरी मानते रहे…
- विपक्षी दल भले ही उपर से दिखाते रहे कि वे केंद्र और अपनी–अपनी राज्य सरकारों के साथ हैं। लेकिन वैश्विक संकट के इस दौर में भी उन्होंने राजनीति जारी रखी। दिल्ली में तो प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अनिल चौधरी पर मजदूरों को भड़काने का आरोप लगा भी है..ऐसा ही आरोप कर्नाटक में भी वहां के प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के नेताओं पर भी लगा है। इसके बाद मजदूर जुटे और अपने घरों की ओर लौटने की मांग करने लगे..
- भारतीय मानसिकता में संकट और अति उत्साह वाले मौके पर भेड़चाल का चलन रहा है। इस भेड़चाल ने भी मजदूरों के पलायन को बढ़ावा दिया…ऐसे भी लोग घरों की ओर भाग रहे हैं, जिनके पास दो-चार कौन कहे, पांच-सात महीने के गुजारे लायक स्थिति है। मेरे ठीक पड़ोस में सब्जी का ठेला लगाने वाला परिवार बिहार के मधुबनी पैंतालिस हजार रूपए में कार करके पहुंचा…इसे क्या कहेंगे?
- राज्य सरकारों ने लॉकडाउन की शुरूआत के बाद कहा कि मकान मालिक दो-तीन महीने तक किराया ना लें। लेकिन दिल्ली और एनसीआर में मकान मालिकों ने जब देखा कि मजदूर किराया नहीं दे सकते तो उन पर घर खाली करने का दबाव बनाने लगे। उन्हें लगा कि किराए के साथ – साथ मजदूर बिजली भी खर्च करेंगे, जिसका बिल भी उन्हें ही भरना होगा। मजबूर मजदूरों के पास भागने के अलावा कोई चारा नहीं था..
- इस देश के संघीय ढांचे पर जितना भी गर्व किया जाए, लेकिन यह भी सच है कि राज्य सरकारें भी एक-दूसरे से ईर्ष्या, द्वेष रखती हैं। भारत में राज्यों की नागरिकता का विधान नहीं है, बल्कि देश का नागरिक पूरे देश का नागरिक है। लेकिन अंग्रेजों के जमाने से हावी उपराष्ट्रीयताएं हावी रहीं। हिंदी भाषी इलाके चूंकि अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति और भारी जनसंख्या के चलते बदहाल रहे, लिहाजा वहां के मूल निवासियों को लेकर पूरे देश में उपेक्षा और हीनभाव रहा। यहां से निकली प्रतिभाओं, चाहे वे नौकरशाही में हों या फिर विज्ञान, तकनीक, कारपोरेट आदि में..उन्होंने कभी इस सोच को बदलने में भूमिका नहीं निभाई। मजदूर भी इन्हीं राज्यों के ज्यादा हैं, लिहाजा आर्थिक तौर पर समृद्ध राज्यों ने इन मजदूरों से परोक्ष रूप से छुटकारा पाने की ही रणऩीति बनाई।
- मजदूरों के घर वालों की ओर से भी दबाव है कि जब फलां आ सकते हैं तो तुम क्यों नहीं आ सकते? लिहाजा ऐसे दबाव में भी लोग घरों की ओर लौट रहे हैं।
- जर्मन राजनीति शास्त्री मैक्सबेवर ने नौकरशाही को स्टील फ्रेम कहा था। लेकिन भारतीय नौकरशाही कल्पनाशीलता की बजाय कल्पनाहीनता के लिए ही जानी जाती है। उसका अब भी चेहरा मानवीय कम है, ठसक वाला ज्यादा है। अगर हर एसडीएम अपने स्तर पर ही मजदूरों की देखभाल का जिम्मा उठा लेता, वह उन्हें रोकने की कोशिश करता , अपने अधीन आने वाले राजस्व और पुलिस कर्मचारियों की सेवा लेता तो इस त्रासदी को रोका जा सकता था..लेकिन ऐसी भूमिका कम ही अधिकारियों ने निभाई..
- सरकार ने जनधन और किसानों के खातों में राहत रकम डाल तो दी, लेकिन उसने ऐसा मजदूरों के लिए नहीं किया। अगर उनके खातों में भी नगरों के हिसाब से रकम दी गई होती तो राहत की बात होती, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।
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