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यह चिंटुवा की नहीं, 45 करोड़ प्रवासी मजदूरों की कहानी है

जीरो बैलेंसशीट की जिंदगी ने प्रवासियों को घर जाने के लिए मजबूर किया है। जीरो बैलेंसशीट की जिंदगी को सुधारे बिना देश का विकास संभव नहीं है। इस बात को रेखांकित करती आशुतोष कुमार सिंह कि विशेष रपट

जीरो बैलेंसशीट की मार से बदहाल लौटते प्रवासी

चिंटुवा को गांव छोड़े हुए 20 साल हो गए है। जब उसकी उम्र ने अपने मुंह पर मुंछ और दाढ़ी भी नहीं देखा था, उस समय उसके स्वाभिमान ने घर से निकल भागने का रास्ता प्रशस्त किया था। चिंटुवा के घर में उसकी माँ-पिताजी उसकी एक बहन और वह। इतना ही परिवार था। मां-पिताजी दूसरों के खेतों में बनिहारी करते थे। उनके साथ-साथ उसे भी जाना पड़ता था। खेतों की सोहनी में तो उसकी बहन भी जाती थी। पूरा परिवार गांव के खेतिहरों के भरोसे जी-मर रहा था। जैसे-जैसे चिंटुवा और बड़ा हुआ। उसका स्वाभिमान जगा। खेतिहरों के प्रति उसके मन में आक्रोश का भाव जगा। उसे लगा कि इस तरह की गुलामी वह नहीं करेगा। गांव की गुलामी को ठोकर मारकर उसने शहर की ओर रूख किया। शहर में उसे ईट ढोने से लेकर, सीमेंट-बालू, घर की रंगाई-पुताई, सब्जी-भाजी बेचने का काम, किसी के दुकान में सामान बेचने के काम सहित तमाम काम करने को मिला। अर्थशास्त्र की भाषा में उसे असंगठित क्षेत्र का मजदूर कहा गया।
चिंटुवा एवं उसके जैसे करोड़ों मजदूरों ने ऐसे ही अपने स्वाभिमान की आग पर शहरों में रोटियां सेकनी शुरू की। जब चिंटुवा को पहली पगार मिली तो उसने अपनी माँ को मनिऑर्डर किया और साथ में एक चिट्ठी भी लिखी। उसकी चिट्ठी में लिखा था मैं यहां पर ठीक हूं। तुम अपना ख्याल रखना। बहन का ख्याल रखना। अंत में उसने लिखा- माँ अब तुम बनिहारी करने मत जाना। खेतिहरों के घर झाड़ू-पोछा करने मत जाना। अब तुम्हारा बेटा कमा रहा है। माँ बहुत खुश हुई। और उसने बेटे की बात मान लिया। चिंटुवा को जब दूसरी पगार मिली तो उसने फिर से मनीऑर्डर किया और एक बार फिर से एक चिट्ठी लिखी। इस बार की चिट्ठी में एक नई बात थी। उसने इस बार कहा कि बहन को भी सोहनी-रोपनी में मत भेजना। चरवाही में भी बहन को मत भेजना। बहन को गांव के सरकारी स्कूल में दाखिला करा दो। उसके लिए कॉपी-किताब का पैसा मैं भेजता रहूंगा। माँ फिर बहुत खुश हुई। उसे अपने बेटे पर गर्व होने लगा। आस-पास में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ गई। आस-पास की महिलाओं में वह एक तरह से सेठाइन हो गई। दूसरों के सुख-दुख में वह अपना सहयोग देने लगी।
तीन-चार साल इसी तरह बीता। चिंटुवा की शादी हो गई। शादी के बाद चिंटुवा फिर शहर आ गया और उसकी पत्नी गांव में रह गई। समय से चिंटुवा पैसा भेजता रहा। इस बीच पत्नी को यह लगने लगा कि चिंटुवा के पैसे पर सभी लोग मौज कर रहे हैं और उसकी देख-भाल ठीक से नहीं हो पा रही है।
चिंटुवा ने पत्नी की बेरूखी से माँ-पिताजी को हो रहे परेशानी को दूर करने के लिए पत्नी को अपने साथ शहर ले आया। एक किराए का कमरा लिया। उसकी कमाई का 30 फीसद किराए में जाने लगा। फिर चूल्हा-बर्तन और घर-गृहस्थी का खर्च भी बढ़ा। देखते-देखते चिंटुवा भी पिता बन गया। खर्चा और बढ़ा। अब चिंटुवा माँ-पिताजी को मनीऑर्डर नहीं कर पाता है। चाहकर भी वह नहीं कर सकता है। क्योंकि उसकी जितनी कमाई है कई बार तो उससे ज्यादा खर्चा हो जाता है।
अब चिंटुवा की जिंदगी जीरो-बैलेंसशीट पर चल रही है। 10 दिन की भी बैठकी उसके जिंदगी के बैलेंसशीट को बिगाड़ देती है। ऐसी हालत में वह गांव इसलिए नहीं जा सकता है क्योंकि उसका स्वाभिमान आड़े आता है। जिस स्वाभिमान को पुष्ट करने के लिए वह गांव से शहर आया था उस स्वाभिमान की आंच पर वह आज भी रोटी सेंक रहा है। यह जरूर है कि उसकी आंच थोड़ी धीमी हुई है। इस कहानी को आप बिहार-यूपी सहित तमाम राज्यों के प्रवासियों के दर्द एवं मजबूरी का प्रतीक मान सकते हैं।
लॉकडाउन के बाद प्रवासियों की पीड़ा
देश के सभी मेट्रो शहरों व राज्य की राजधानियों को दूसरे राज्यों से आए प्रवासियों ने अपने खून-पसीना से चमका दिया था। खुद फटेहाली में रहे लेकिन दूसरों के लिए उनकी फटेहाली को ढकने का काम किया। किसी ने दूध पहुंचाया तो किसी ने सब्जी। किसी ने उनके कपड़े धोए तो किसी ने उनके कपड़ो पर क्रीज लगाया। किसी ने उनके बेल-बूटा की सिलाई की। किसी ने धूल से नहाई हुई उनकी कारों को पोछा-धोया। किसी ने उनके लिए फूल उगाए। बागवानी की। इस तरह शहर के अमीर, फ्रैक्टी मालिक एवं सफेदपोश मुछों पर ताव देते हुए शान से अपनी छाती चौड़ी कर के घुमते रहे। उन्हें इस बात का एहसास तक नहीं हुआ कि उनकी चौड़ी छाती को चौड़ा करने वाले यहीं श्रमिक एवं प्रवासी हैं, जो अलग-अलग रूपों में उनकी सेवा करते रहे हैं। और उन्हें देश-दुनिया एवं अपने व्यापार के बारे में सोचने का समय मुहैया कराते हैं।
इंसानियत की परीक्षा की घड़ी
इसी बीच इंसानियत की परीक्षा की घड़ी आई। एक अदृश्य कोरोना वारयरस ने पूरी दुनिया को तहस-नहस कर दिया। पूरी दुनिया में सभी काम-काज बंद हो गए। मानवों को घरों में कैद हो जाने की सलाह दी गई। देश के प्रधान मुखिया ने कहा कि ‘जान है तो जहान’ है। उनकी बातों को सभी ने माना भी।
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यह वायरस इतना खतरनाक निकला की इसने अपने फैलाव व प्रसार के लिए मानवों को वाहन के रूप में चुना। जिसका परिणाम यह हुआ कि दुनिया में लाखों लोगों की मौत हुई। कृत्रिम अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हडडी टूट गई। त्राहिमाम मच गया। इस त्राहिमाम में सबसे ज्यादा प्रभावित वे हुए जिनकी जिंदगी जीरो बैलेंसशीट पर चलती थी। जीरो बैलेंसशीट वालों के कारण चौड़ी छाती कर के घूमने वालों ने उन्हें नौकरी से निकाल दिया। बहुतों को तो पहले का बकाया भी नहीं दिया। देखते-देखते जीरो बैलेंसशीट वाले चिंटुवा की बेबसी बढ़ती गई। उसके पास खाने के लिए अनाज नहीं रहा। किराया देने के लिए रुपये नहीं थे। सरकार ने खाने की व्यवस्था कराई लेकिन वह भी नाकाफी साबित हुई। ऐसे में चिंटुवा को अपने घर की याद आई। उसके स्वाभिमान ने सोचा कि यदि मरना ही है तो अपनी जन्म भूमि पर जाकर मरेंगे। इसी सोच से प्रभावित होकर प्रवासियों ने सवारी नहीं मिलने के बावजूद पैदल ही घर की ओर कूच किया। घर जाने के रास्ते में बहुत से प्रवासियों ने भूख से एवं दुर्घटनाओं में अपनी जान तक गंवाई। बावजूद इसके शहरों की बेदिली एवं उनके स्वाभिमान ने उनके पांव को अपने मूल निवास की ओर जाने के लिए विवश किया है। चिंटुवा जैसे प्रवासी अपनी बदहाली पर रोते हुए अपने मूल की ओर लौट रहे हैं।
बिहार में  लाखों प्रवासी लौटेंगे
भारत में सबसे ज्यादा अगर कहीं प्रवासी लौट रहे हैं तो वह है बिहार। क्योंकि इसी राज्य से सबसे ज्यादा लोगों ने दूसरे राज्यों में अपने स्वाभिमान की आंच जलाई थी। प्रवासियों को बिहार लौटाने के लिए सरकार अब वाहनों की भी व्यवस्था करने लगी है। उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी की बात की मानी जाए तो बिहार में 40 लाख प्रवासी लौट रहे हैं। उन्होंने यह बात तब कही थी जब इन्हें लौटाने के लए बसों की व्यवस्था करने की बात कही गई थी। बिहार सरकार ने बसो की व्यवस्था नहीं होने की बात कर के ट्रेन चलाने की मांग की थी। उसके बाद श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाई जा रही है। धीरे-धीरे श्रमिक अपने गांवों की ओर लौट रहे हैं। हालांकि कि बिहार के समाज को जानने वाले यह मान रहे है कि 10-12 लाख प्रवासी ही बिहार आ पाएंगे।
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बिहार राज्य सूचना एवं जन-संपर्क विभाग के सचिव अनुपम कुमार ने बताया कि मुख्यमंत्री का निर्देश है कि 7-8 दिनों के अंदर बाहर से आने वाले लोगों को लाने के लिए समन्वय कर उसकी व्यवस्था करें, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग यहां आएं और उनकी देखभाल हो सके। 11 मई तक 115 ट्रेनों के माध्यम से 1 लाख 37 हजार 401 लोग अब तक राज्य में आ चुके हैं। 267 ट्रेनों के माध्यम से 4 लाख 27 हजार 200 और लोगों के राज्य में लाए जाने की योजना है, लेकिन यह अंतिम सूची नहीं है। यह तो सिर्फ ट्रेन से आने वालों की सूची है। इससे इतर जो बसो में या पैदल गांव की ओर कूच कर गए हैं उनकी भी संख्या कम नहीं है।

बिहार में प्रवासियों को मिलेगा रोजगार

वर्षों से सरकारी उदासीनता एवं सामाजिक जातिवादिता की चक्की में पिस रहे प्रवासियों की सूध लेने की बात बिहार सरकार कर रही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सभी प्रवासियों का कौशल सर्वे करा रहे हैं। उनके कौशल के अनुसार उन्हें काम दिया जायेगा। तात्कालिक रूप से बिहार सरकार का यह फैसला सार्थक एवं सकारात्मक दिख रहा है। मुख्यमंत्री ने अधिकारियों से कहा है कि, चुनौती को अवसर के रूप में ले उद्योग विभाग, प्रवासी श्रमिकों की स्किल मैपिंग के आधार पर संचालित औद्योगिक इकाईयों में उद्योग विभाग रोजगार उपलब्ध कराये, अन्य नवाचारी कार्य कर प्रवासी मजदूरों के स्थायी रोजगार हेतु पूरी तत्परता के साथ कार्य करे उद्योग विभाग, प्रवासी मजदूरों के स्किल का राज्य की अर्थव्यवस्था में सकारात्मक उपयोग हो सकता है। मनरेगा में कार्य दिवसों को बढ़ाने एवं मजदूरों को काम देने की बात भी की जा रही है।
इस बावत वरिष्ठ लेखक एवं गांव-घर के समाजशास्त्र को नजदिक से देखने-समझने वाले गिरिन्द्र नाथा झा कहते हैं कि शहरों से आने वाले प्रवासियों की जीवन-शैली बदली हुई है। उन्हें गांव में समन्वय बिठाने में बहुत मुश्किल होगी। उन्होंने कहा कि सरकारों को उनके मनोरंज का भी ध्यान रखना होगा।
बिहार की सामाजिक स्थिति को नजदीक से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार स्वयं प्रकाश ने बताया कि बिहार में तकरीबन 10-12 लाख प्रवासी लौटकर आएंगे। इनके रोजगार की दिशा में सरकार सक्रिय हैं। उन्होंने इन मजदूरों को बिहार की अर्थव्यवस्था के लिए वरदान मानते हुए कहा कि अगर सरकार दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय दे और फॉरवर्ड प्लानिंग करे तो इन मजदूरों को रोजगार उपलब्ध कराए जा सकते हैं।
बिहार में रोजगार को अवसरों के रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि बिहार गुड़ का ऑर्गेनिक उत्पादन कर सकता है। सत्तु का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। मखाना के उत्पादन की क्षमता बढ़ाई जा सकती है, भागलपुर की रेशम के कार्य को बढ़ाया जा सकता है। बिहार में पर्यटन को बहुत बढ़ाया जा सकता है। सरकार ने इसके लिए कई योजनाएं बनाई है लेकिन उसका इम्पलीमेंटशन नहीं हो पाया है। श्रीराम सर्किट, बुद्ध सर्किट, जैन सर्किट, सीख सर्किट, शक्ति सर्किट जैसै तमाम पर्यटन रूट तैयार किए गए हैं उनको शुरू किया जा सकता है। बिहार में जूट मीलों एवं कागज के मीलो को पुनः शुरू किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए सरकार को और योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ना होगा।
बिहार ज्ञान की भूमि रहा है। बिहार में यदि सरकार ज्ञान का उत्पादन करे और इसको वैश्विक बाजार उपलब्ध कराए तो यहां पर भी रोजगार की संभावनाएं बहुत बढ़ सकती है। स्वस्थ भारत यात्रा-2 के दौरान मैं सहरसा गया था। सहरसा जाते समय रोड के दोनों किनारों पर छोटी-छोटी नहरें एवं जल स्रोत दिखाई दे रहे थे। उन जलस्रोतों में छोटी-छोटी नांव दिखाई दे रही थी। यह दृश्य मुझे एनएच-66 से गुजरते हुए केरल में दिखा था। बस नारियल के पेड़ की जगह बांस की झाड़ी एवं अन्य पारंपरिक वृक्ष दिखाई दे रहे थे। इस रूट को भी बिहार के पर्यटन मानचित्र पर लाया जा सकता है।
अंत में यह कहूंगा कि जिस तरह से यूपी की योगी सरकार ‘एक जिला एक उत्पाद’ को प्रोमोट कर रही है, उसी तरह बिहार भी कर सकता है। अगर ऐसा हुआ तो निश्चित रूप से जीरो बैलेंसशीट के साथ लौटे प्रवासियों के लिए रोजगार के अवसर बढ़ जाएंगे और उनका बैलेंसशीट धनात्मक होने लगेगा और चिंटुवा एवं उसके जैसे करोड़ों प्रवासियों को शहर में जाकर स्वाभिमान की आंच नहीं जलानी पड़ेगी।
इस कहानी का  संंपादित अंश युगवार्ता साप्ताहिक मे प्रकाशित  हो चुका है

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