कोरोना की मार और इंसानियत की बेरूखी से बेजार मजदूर अपने घर की ओर कूच कर गए हैं…उनके दर्द को शब्द दे रहे हैं वरिष्ठ होम्योपैथिक चिकित्सक एवं स्वतंत्र लेखक डॉ. अनुरूद्ध वर्मा
एसबीएम विशेष
बेहतर जिन्दगी की चाहत हर किसी को होती है। और बेहतर आमदनी एवं अच्छे जीवन की उम्मीद लिये करोड़ों लोग अपना गांव और घर छोड़कर दूसरे प्रदेशों और विदेशों का रूख कर लेते हैं। भारत गांवों का देश है। गांवों में रोजगार के पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं है। ऐसे में बेहतर जिन्दगी और ज्यादा आमदनी के लिए हर वर्ष लाखों ग्रामीण शहरों और महानगरों का रूख करते हैं। इस श्रमशक्ति को हम प्रवासी मजदूर के नाम से जानते और पहचानते हैं। शहरों और महानगरों में तमाम असुविधाओं को भोगते हुए यह श्रमशक्ति दिन-रात अनवरत देशनिर्माण में जुटी रहती है। नगरों में यह श्रमशक्ति भवन निर्माण, फैक्टरियों में छोटी-मोटी नौकरी करने के अलावा रिक्शा चलाने, बढ़ईगीरी करने, ठेला लगाने, रंगाई-पुताई, पल्लेदारी, माल ढुलाई, नाई, धोबी, बिजली मिस्त्री, ऑटो चलाने, ड्राइवर और घरेलु कार्यों आदि न जाने कितने कार्यों में लगी हुई है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, देश की लगभग 69 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है।
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कोरोना संकट के चलते प्रवासी मजदूरों की घर वापसी हो रही है। ऐसे में प्रवासी मजदूरों के दुख-दर्दे, उनकी भूमिका और महत्ता पर देश में व्यापक बहस छिड़ी हुई है। लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि जिन मजदूरों का देश का भाग्य निर्माता कहा जाता है, उनकी दशा दयनीय है। वास्तव में शहरों और महानगरों में इस श्रमशक्ति को अपने गांव और क्षेत्र की तुलना में ज्यादा मजदूरी मिल जाती है। लेकिन इस कमाई की कितनी बड़ी कीमत यह श्रमशक्ति चुकाती है, इसका अंदाजा वो स्वयं लगा नहीं पाती है। गांव की आबोहवा छोड़कर शहरों के प्रदूषित वातावरण में मलिन बस्तियों, झोपड़ियों और खुले आसमान के नीचे रातें काटने का मजबूर इस श्रमशक्ति को न तो पर्याप्त भोजन उपलब्ध है और न ही पीने का साफ पानी उन्हें उपलब्ध है। स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा की बात करना तो ऐसे में बेमानी ही है। कार्य की विषम परिस्थितियों और पर्याप्त कमाई के अभाव में श्रमिक बस पेट ही भर पाते हैं। पोषण के अभाव, प्रदूषित पानी, अस्वच्छ वातावरण के कारण ज्यादातर मजदूर अनेक गंभीर बीमारियों का शिकार हो जाते हैं और जवानी में ही उनमें बुढ़ापे के लक्षण उभर आते हैं।
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हमारे देश में श्रमशक्ति का बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है। भारत में लगभग 92 प्रतिशत कामगार इसी असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। इस असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले करोड़ों लोग अपने मूल घरों से निकल कर दूसरे ग्रामीण या शहरी इलाकों में प्रवासी मजदूर के रूप में काम करते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल प्रवासियों की संख्या 43.4 करोड़ थी जिनमें करीब 10.7 करोड़ लोग ऐसे थे जो काम करने के सिलसिले में एक स्थान से दूसरे स्थान पर गये थे। इस परिप्रेक्ष्य में यह समझना लाजिमी है कि कुल 10.7 करोड़ प्रवासियों में 9 करोड़ से अधिक लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते रहे हैं जिन्हें दैनिक, साप्ताहिक या मासिक मजदूरी या तनख्वाह मिलती है। सरकारी कागजों में अपंजीकृत श्रमिकों का कोई आंकड़ा दर्ज ही नहीं है। इसके चलते वो श्रमिकों के लिए सरकारी तौर पर सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य से जुड़ी योजनाओं का लाभ लेने से वंचित हो जाते हैं।
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देश में कोरोना संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए मार्च के आखिरी सप्ताह में एकाएक घोषित लॉक डाउन के कारण सभी काम धंधे एकदम से बंद हो गए। देश में सब कुछ ठहर गया। लाॅकडाउन की घोषणा होते ही प्रवासी मजदूरों पर मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पउ़ा। उन्हें काम मिलना बंद हो गया। मालिकों ने कुछ दिन तक खाने पीने की कुछ व्यवस्था की बाद में उन्होंने भी हाथ खड़े कर दिए। सब कुछ बन्द हो जाने से उनके पास जो थोड़े बहुत पैसे थे, वो खाने-पीने और अन्य कार्यों में खर्च हो गए। प्रवासी मजदूरों के सामने भुखमरी की स्थिति उत्पन हो गई। जिसके चलते वो सरकारी सहायता और स्वैच्छिक संस्थाओं का मुंह ताकने को मजबूर हो गए।
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लाॅकडाउन में आवागमन सभी साधन बंद हो जाने के कारण मजदूर जहां थे, वहीं पर फंसकर रह गए। इसमें कोई दो राय नहीं है कि जिन राज्यों में यह प्रवासी मजदूर रोजी-रोटी कमा रहे थे वहां की सरकारों ने अपनी जिम्मेदारी को पूरी ईमानदारी से नहीं निभाया। मजदूरों के खाने-पीने और स्वास्थ्य की सुविधाएं देने में ज्यादातर राज्य अक्षम साबित हुए। वहीं श्रमिकों को उनके गृह राज्यों में भेजने की कोई ठोस रणनीति नहीं बनाई गई। वहीं अफवाहतंत्र ने ऐसा माहौल बनाया कि मजदूर पलायन को मजबूर हो गया।
जमीनी सच्चाई यही है कि जब मजदूरों को भूख बर्दाश्त नहीं हुई और भुखमरी की स्थिति नजर आने लगी तो सरकार की जो जहां है वंही रहे कि अपील के बावजूद हजारों-लाखों मजदूरों पैदल ही अपने गांव और घर की ओर चल दिये। मजबूरी के मारे हजारों मजदूर साइकिल, रिक्शा, ठेला जैसे जो मिला उसी साधन से चल दिये कुछ ट्रक आदि से किसी तरह छिप कर अपने गांव की ओर चल दिये। मीडिया खबरों मुताबिक अनेक श्रमिकों ने भूख, प्यास, कमजोरी, थकान के कारण रास्ते में ही दम तोड़ दिया और तमाम लोग दुर्घटनाओं का शिकार हो गए। कुछ लोग हफ्तों बाद किसी तरह अपने घर पंहुचे और बीमार हो गए। सड़कों पर सिर पर गठरी, पैरों से निकलता खून और छाले, महिलाओं के गोद में बच्चे, भूख से बिलखते रोते बच्चों की तस्वीरों ने देशवासियों के रौंगटे खड़े कर दिए। मजदूरों के गृह राज्यों में भेजने के मामले में निर्णय लेने में सरकार से बड़ी चूक और भूल हुई है, ये कठोर सच्चाई है। जिसकी कीमत मजदूरों ने जान देकर, हजारों किलोमीटर भूखे-प्यासे चलकर चुकाई है। यूपी की योगी सरकार ने मजदूरों, छात्रों और अन्य नागरिकों की सुकुशल वापसी में तत्परता दिखाई। लेकिन फिर भी कई स्तरों पर कुप्रबंधन देखने को मिला।
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सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गई बसों एवं विशेष रेलगाड़ियों मजदूरों का अपने घर लौटना लगातार जारी है। मजदूरों का पैदल यात्रा का सिलसिला भी थम नहीं रहा है। असल में मजदूर वापसी की सरकारी योजना कुप्रबंधन का शिकार है। ट्रेन और बस से आये कुछ मजदूरों ने न्यूज चैनलों के सामने कहा कि उनसे किराया लिया गया तथा उनके भोजन आदि की भी उचित व्यवस्था नहीं की गई। वापस आने के बाद सभी मजदूरों को कोरेंटीन किया जा रहा है। कुछ मजदूर कोरोना संक्रमित भी मिल रहे हैं। विशेषज्ञों के अनुसार मजदूरों के भारी पलायन से ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना संक्रमण का खतरा बढ़ गया है।
भारत की ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति को और बेहतर भारत सरकार की ही रिपोर्ट नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2019 से समझा जा सकता है। इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में 21,403 सरकारी अस्पताल (प्राथमिक, सामुदायिक और उप-जिला/मंडल अस्पताल को मिलाकर) हैं जिनमें 2,65,275 बेड हैं, जबकि शहरों के 4,375 अस्पतालों में 4,48,711 बेड हैं। देश में तो वैसे हर 1,700 मरीजों पर एक बेड है लेकिन ग्रामीण भारत में इसकी स्थिति चिंताजनक है। ग्रामीण क्षेत्रों में 3,100 मरीजों पर एक बेड है। राज्यों की बात करें तो इस मामले में बिहार की स्थिति सबसे खराब है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसान बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में कुल 10 करोड़ आबादी रहती है जिनके लिए कुल 1,032 अस्पताल है जिनमें महज 5,510 बेड हैं। इस हिसाब से देखेंगे तो लगभग 18,000 ग्रामीणों के लिए एक बेड की व्यवस्था है। वहीं देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की 77 फीसदी (15 करोड़ से ज्यादा) आबादी गांवों में रहती है, जिनके लिए 4,442 अस्पताल और कुल 39,104 बेड हैं। लगभग 3,900 मरीज एक बेड की व्यवस्था है।
स्वास्थ्य संकट के अलावा मजदूरों की घर वापसी के बाद इस बड़ी श्रमशक्ति के समक्ष सबसे बड़ी समस्या होगी नये सिरे से जीवन शुरू करने की। क्योकि ज्यादातर मजदूरों के पास खेती योग्य जमीन नहीं है। जिनके पास जमीन है भी वो परिवार का पेट पालने में समर्थ नहीं है। ऐसे में केवल खेती के भरोसे जीवन यापन संभव दिखाई नहीं पड़ता। गांवों में कल कारखाने, फैक्टरियाँ एवं लघुउधोग भी नहीं हैं कि उनमें सभी मजदूरों को काम मिल सके। खेती किसानी का काम भी मौसमी है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि गांव में रोजगार के अवसर सीमित हैं इसलिए इन्हें यहां भी काम के लिए संघर्ष करना पड़ेगा।कुछ मजदूरों को मनरेगा योजना के तहत काम मिल सकता है परंतु सभी को मिल पायेगा इसमे संशय है।
मजदूरों को एक संघर्ष से उबरने के बाद अभी दूसरे संघर्ष से भी जूझना पड़ेगा जो उन्हें गांव ने स्थापित होने के लिए करना होगा। केंद्र सरकार द्वारा जारी पैकेज से मजदूरों में कुछ राहत की आशा जगी है। प्रवासी से गांववासी बने मजदूरों के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों को इन मजदूरों के रोजगार एवं पुनर्वास के लिए ठोस रणनीति एवम कार्य योजना बना कर काम करना पड़ेगा रोजगार के नए अवसर तलाशने होंगे कुटीर, लघुउधोग स्थापित करने होगें और इन्हें गांव में ही रोजगार उपलब्ध कराना होगा तभी इनके जीवन की स्थिति सुधरेगी और गांव से शहरों की ओर पलायन रुकेगा। मजदूर जिस सपने को लेकर अपने गांव, जमीन और वतन को वापस आये हैं वह सपना पूरा होगा और खुशहाल आत्मनिर्भर भारत का निर्माण हो सकेगा।