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सेक्सुवालिटी को बड़े फलक पर समझना जरूरी

बीबीआरएफआई ने आयोजित किया ‘सोशल मीडिया के दौर में यौन शिक्षा/ जागरूकता का महत्व’ विषय पर वेबिनार। स्वस्थ भारत मीडिया रहा मीडिया पार्टनर। पढ़ें आशुतोष कुमार सिंह की रपट

नई दिल्ली/ एसबीएम
अब समय आ गया है कि सेक्सुवालिटी एवं इससे संबंधित तमाम प्रश्नों के पर समाज में खुल कर चर्चा हो। सेक्सुवालिटी पर बात करना समय की मांग है। तमाम शोध यह बताते हैं कि युवा अवस्था में यौनिकता से संबंधित प्रश्नों के जाल में यूथ फंसा रहता है। उनकी जिज्ञासाओं का समाधान घर-परिवार व समाज में नहीं मिलता है तभी वह इंटरनेट पर इन प्रश्नों के का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश करता है। इंटरनेट से प्राप्त सूचनाएं अनगाइडेट मिसाइल की तरह होती है। सूचनाओं के भंडार में सही सूचना का ग्रहण हो पाना आसान नहीं होता। जिसके कारण युवा-मन भटकाव की राह पर चला जाता है। यह भटकाव कई बार उसे क्रिमिनल बना देती है। ऐसे में सेक्सुवालिटी एवं मानव स्वभाव को नजदीक से अध्ययन करने वाले विशेषज्ञ समाज को बार-बार यह कहते रहे हैं कि इन विषयों को टैबू न बनाया जाए। इन विषयों पर खुल कर चर्चा की जाए।
इसी संदर्भ को ध्यान में रखते हुए 15 मई, 2020 को ब्रेन बिहैवियर फाउंडेशन ऑफ इंडिया (BBRFI) ने एक वेबिनार का आयोजन किया। जिसका विषय था ‘सोशल मीडिया के दौर में यौन शिक्षा एवं जागरूकता का महत्व’। इस विषय पर बातचीत करने के लिए पैनल में अलग-अलग क्षेत्र के विशेषज्ञ उपस्थित थे। पैनल डिस्कशन का संचालन वरिष्ठ चिकित्सक व बीबीआरएफआई की चेयरपर्सन डॉ. मीना मिश्रा कर रही थी।

क्या है सेक्सुवल जागरूकता?

बीबीआरएफआई की चेयरपर्सन डॉ. मीना मिश्रा ने स्वस्थ भारत मीडिया से बातचीत करते हुए कहा कि सेक्सुवालिटी का संबंध सिर्फ आपके शारीरिक बनावट से नहीं है बल्कि इसका दायरा बहुत व्यापक है। उन्होंने कहा कि जब हम सेक्सुवालिटी टर्म का उपयोग कर रहे होते हैं तब इसका मतलब आपके इमोशनल संबंध, सामाजिक संबंध एवं आपके मनोवैज्ञानक व्यवहार से भी होता है। सेक्सुवल जानकारी के अभाव या अर्ध-जानकारी के कारण मानव कई प्रकार के मानसिक विकारों से घिरा रहता है। उन सबको दूर करने के लिए इसके बारे में जागरूक होना जरूरी है। उन्होंने कहा कि यहीं कारण है कि उनकी संस्था ने इस विषय पर वेबिनार का आयोजन किया।

सेक्सुवालिटी को बड़े फलक पर समझना जरूरीशिक्षा-संस्थानों के माध्यम से जागरूकता फैलाई जा सकती है

पैनल-चर्चा में अपनी बात रखते हुए यौन मामलो के जानकार एवं डॉ. पंकज वर्मा (राजस्थान हॉस्पिटल जयपुर) ने कहा कि, ज्यादातर लोगों में सेक्सुवल समस्या कम एवं साइक्लोजॉकिल समस्या ज्यादा होती है। अपने चिकित्सकीय अनुभव के आधार पर उन्होंने कहा कि यौन-स्वच्छता की जानकारी नहीं होने के कारण 60-70 फीसद महिलाएं ल्यूकोरिया से ग्रसित हो जाती हैं। उन्होंने कहा कि सेक्सुवल शिक्षा घर से ही मिलनी शुरू हो जानी चाहिए। स्कूल में प्राथमिक स्तर से ही इसके बारे में अवगत कराया जाना चाहिए। फिर स्कूलों में भी सेक्सियोलॉजिस्ट का सेमिनार होना चाहिए। ताकि छात्र सेक्सुवालिटी से संबंधी टैब्यू से बाहर निकल सकें।

सेक्सुवालिटी शब्द की व्यापकता को समझें

सोशल मीडिया के रोल को डिफाइन करते हुए दिल्ली विश्वविद्याल के अदिती महाविद्याल में सहायक प्रोफेसर के रूप में कार्यरत शिक्षाविद डॉ.पुनीता गुप्ता ने कहा कि, सोशल मीडिया पर जो सूचनाएं दी जा रही हैं वह सेंसर नहीं है। कुत्सित मानसिकता वाली सूचनाएं भी फैलाई जा रही हैं। युवा पीढ़ी का व्यवहार इन सूचनाओं के कारण भी प्रभावित होता है। वे नए-नए शब्द का प्रयोग सीखते हैं, इसका उनकी पूरी पर्सनालिटी पर असर पड़ता है। इस उम्र के बच्चों में चाहे वह लड़की हो या लड़का सेक्स-दर्शन (फिलॉसफी ऑफ सेक्स) को जानने की उत्सुकता होती है। उन्हें जब घर और परिवार में ठीक से सूचना नहीं मिल पाती है तब वे इंटरनेट का सहारा लेते हैं। अपनी जिज्ञासा के अनुसार की-वर्ड सर्च करते हैं। जहां पर उन्हें सूचनाओं का एक अथाह समुद्र मिलता है। उस समुद्र में वे ठीक से तैर नहीं पाते और कई बार बुरी तरह फंस जाते हैं।
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उन्होंने कहा कि यदि हम उन्हें सही मैनर में हेल्थी तरीके से सेक्सुवालिटी की समझ विकिसित करने में मदद करें तो बहुत हद तक समस्या का समाधान किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि हम प्रीवेंशन से आगे बढ़कर अवैरनेस एवं एलर्टनेस पर बात करें। गुड-बैड टच से आगे बढ़ना पड़ेगा। डे-टुडे लाइफ में इन विषयों पर बात करना होगा। अपने बच्चों एवं शिक्षार्थियों के साथ इमोशनल इंवेस्टमेंट को बढ़ाना पड़ेगा। सामान्यतः 15 वर्ष तक शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षार्थी रहते हैं। ऐसे में इन संस्थानों को रेफरल प्वांट बनना ही पड़ेगा।
ऐसे समय में जब रिल लाइफ रीयल लाइफ बनती जा रही है सेक्सुवल जागरूकता में शिक्षा संस्थानों का रोल बहुत अहम हो जाता है। सेक्सुवालिटी एक बीग टर्म है। इसको सिर्फ सेक्स तक सीमित नहीं किया जा सकता है। लेकिन दुर्भाग्य से लोगों के बीच में सेक्सुवालिटी शब्द के आते ही उन्हें सिर्फ सेक्स समझ में आता है। जबकि यह शब्द पूरे पर्सनालिटी को डिफाइन करता है। शारीरिक मनोविज्ञान को डिफाइन करता है। उन्होंने कहा कि पहली कक्षा से पांचवी कक्षा तक के बच्चों को भी उनके आयु के अनुसार इसकी जानकारी देने की जरूरत है। साथ ही इससे ऊपर के बच्चों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है।

पैरेंट्स को जागरूक करना जरूरी

सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. विजय पांडेय ने कहा कि सोशल मीडिया एक तरह से दुधारी तलवार हैं। जहां सूचनाएं हैं लेकिन गाइडेड नहीं हैं। उन्होंने आगे बताया कि कई मामलों में लड़कियों को अपनी मां से यौनिकता संबंधी सूचनाएं प्राप्त हो जाती है लेकिन लड़कों को नहीं मिल पाती है। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि पैरेंट्स को सबसे पहले सेक्सुवालिटी के बारे में जागरूक किया जाए। उन्होंने कहा कि अभी भी बहुत से पैरेंट्स हैं जिनके मन से सेक्सुवालिटी संबंधी टैब्यू बचपन से चला आ रहा है। उसे उन्होंने दूर करने का कोई यत्न नहीं किया है। ऐसे में ये पैरेंट्स अपने बच्चों को ठीक से गाइड करने की जगह उन्हें थप्पड़ मारना, उनके सवालों से मुंह मोड़ना ज्यादा श्रेयस्कर समझते हैं। इस समझ को बदलने के लिए जरूरी है कि पैरेंट्स को भी जागरूक किया जाए।

सेक्सुवल हेल्थ पर चुप्पी तोड़नी होगी

क्लिनीकल साइक्लोजिस्ट प्रियंका पांडेय ने कहा कि, सेक्सुअल हेल्थ पर चुप्पी तोड़नी होगी। सेक्स हेल्थ को लेकर यूथ में बात करना जरूरी है। हेल्थ के लिए एक प्रोपर पैरेंटिंग भी जरूरी है। साथ ही सेक्स को लेकर शिक्षा भी जरूरी है। अकादमिक रूप से कैसे बच्चों सेक्सुवालिटी के बारे में बताया जाए यह भी सोचना जरूरी है। साथ ही उन्होंने पैरेंट्स के लिए कहा कि उन्हें सेक्सुवालिटी के बारे बच्चों द्वारा पूछे गए सवाल पर सकारात्मक जवाब देना चाहिए। पैरेंट्स को यह कहना चाहिए कि इस सवाल का जवाब वे किसी एक्सपर्ट्स से पूछ कर देंगे। उन्होंने कहा कि इस तरह की चर्चा घर से ही शुरू होनी चाहिए।

बच्चों में मनोवैज्ञानिक विकार का मूल कारण पैरेंट्स खुद हैं

संस्कार इंटरनेशनल स्कूल इलाहाबाद की प्रिंसिपल अमृता अग्रवाल ने कहा कि, फर्स्ट जेनेरेशन लर्नर है। आज के दौर में बच्चे बॉडी शेमिंग के गिरफ्त में हैं। खुद को अच्छा दिखाने के लिए तरह-तरह के प्रयत्न करते हैं। कई बार तो लड़कों को जो अच्छा लगता है वैसा व्यवहार करने का यत्न लड़किया करती हैं। साथ ही आज के यूथ को सोशल मीडिया में उन्हें प्रसिद्ध होने की बीमारी लग गया है। वे अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स पर लाइक और शेयर के भ्रमजाल में फंसे हुए हैं। इन सब से उन्हें निकालना होगा। आज जो भी मनोवैज्ञानिक समस्याएं बच्चों में आ रही हैं उसका कारण बच्चे नहीं है बल्कि खुद बड़े हैं। बड़े बच्चों के यौन-संबंधी सवालों का जवाब खुद नहीं देते हैं। ज्यादातर मामलों में बच्चे भी अपने पैरेंट्स से इन बातों पर बात करने में घबराते हैं। ऐसे में माता-पिता को अपने बच्चों को उम्र के हिसाब से उनके मन में उठने वाले सवालों का सही जवाब ढूंढ़ के खुद देना चाहिए।

पैरेंट्स के ऊपर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है

अंत में इस पैनल को संचालित कर रहीं डॉ. मीना मिश्रा ने इस विषय पर और कार्य किए जाने वेबिनार, सेमिनार कराएं जाने पर बल देते हुए इस चर्चा के समापन की घोषणा करने के पूर्व कहा कि सोशल मीडिया अब जीवन का हिस्सा हैं और उसे रहना है। हमें इसके उपयोग की कला को सिखना होगा। पैरेंट्स को अपने बच्चों को मोबाइल देते समय इसके सही इस्तेमाल के बारे में भी बताना होगा। बच्चों की सोशल मीडिया एक्टीविटी एवं अन्य क्रियाकलापों को जो पैरेट्स दोस्ताना तरीके से सूक्ष्म परीक्षण करते रहते हैं, उन बच्चों में क्रिमनल माइंड सेट नहीं उभर पाता है। इस बात की पुष्टि कई शोध-पत्र करते रहे हैं। इसके अलावा स्कूलों को भी इस तरह की जागरूकता के लिए आगे आना पड़ेगा। देश के अलग-अलग हिस्सो से तकरीबन 100 से ज्यादा प्रतिभागी शामिल हुए जिसमें लड़कियों की संख्या ज्यादा थी।
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सेक्सुवल जागरूकता पर आलेख आमंत्रित

स्वस्थ भारत मीडिया स्वास्थ्य विषयों को जनता के बीच में ले जाने का काम करता रहा है। यदि कोई मनोचिकित्सक, सेक्सियोलॉजिस्ट लोगों को जागरूक करने के लिए सामान्य भाषा में अपना आलेख प्रकाशित कराना चाहता हैं तो उसका स्वागत है। आप अपना आलेख यूनीकोड (मंगल) या कूर्ति देव फांट में टाइप कराकर हमें ईमेल करें। हिन्दी और अंग्रेजी किसी भी भाषा में आप अपना आलेख, रिसर्च फाइंडिंग्स प्रेषित कर सकते हैं। अपना पासपोर्ट साइज तस्वीर भी प्रेषित करें।
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