स्वस्थ भारत मीडिया
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स्वास्थ्य की कसौटी से कोसो दूर है भारत

India is far away from the criterion of health
आशुतोष कुमार सिंह

मोदी सरकार-2 का पहला बजट देश के सामने है। वित्त मंत्री ने ‘दशक की परिकल्पना’ के 10 बिन्दुओं में स्वास्थ्य को भी शामिल किया है। किसी भी देश का ‘स्वास्थ्य बजट’ वहां की स्वास्थ्य व्यवस्था की रीढ़ होता है। यहीं कारण है कि भारत सरकार भी अपने स्वास्थ्य बजट को उत्तरोत्तर बढ़ाती जा रही है। रोगों के भार को कम करने के लिए बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था की जरूरत होती है। इस बार के बजट में स्वास्थ्य के मद में 62,659.12 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है जो कि इसके पूर्व यानी 2018-19 के बजट से 19 फीसद ज्यादा है। जबकि 2017-18 के मुकाबले 31 फीसद ज्यादा है। वाबजूद इसके हम वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य पर किए जाने वाले खर्च के मामले में बहुत पीछे चल रहे हैं।

भारत में कुल जीडीपी में महज 1.4 फीसद स्वास्थ्य सेवा पर खर्च किया जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में 170 देशों में से भारत 112वें स्थान पर है। हम अपने पड़ोसी देश नेपाल (2.3), श्रीलंका (2.0) एवं चीन (3.00) से भी पीछे हैं। हालांकि नई स्वास्थ्य नीति में यह संकल्प लिया गया है कि भारत स्वास्थ्य के मद में अपनी जीडीपी का 2.5 फीसद खर्च करेगा। स्वास्थ्य बजट में यह बढ़ोतरी उसी दिशा की ओर बढ़ती हुई प्रतीत हो रही है। 2017-18 में 47,352.51 करोड़ रुपये, 2018-19 में 52,800 करोड़ रुपये और अब 62,659.12 करोड़ रुपये। विगत तीन वर्षों में तकरीबन 15 हजार करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी स्वास्थ्य बजट में हुई है। इस गति को प्रथमदृष्टया देखने पर सकारात्मक कहा जा सकता है लेकिन स्वास्थ्य व्यवस्था की वास्तविक स्थिति बहुत ही दयनीय है। हाल ही में बिहार में चमकी बुखार से हुए नौनिहालों की मौत पर जब सुप्रीम कोर्ट ने जवाब मांगा तो सरकार ने कहा कि उसके यहां 57 फीसद चिकित्सकों की कमी है। इसका अर्थ यह लगाया जाए की स्वास्थ्य के क्षेत्र में मानव संसाधन की कमी की वजह से हम अपने नौनिहालों को नहीं बचा पा रहे हैं। 

स्वास्थ्य क्षेत्र में काम कर रहे मानव संसाधन की स्थिति

स्वास्थ्य की वास्तविक स्थिति को समझने के लिए यह समझना जरूरी है कि सरकार अंतिम जन तक स्वास्थ्य पहुंचाने के लिए किस तरह से काम कर रही है। इस बात को समझने का सबसे उत्तम उपाय यह है कि हम स्वास्थ्य क्षेत्र में काम कर रहे मानव संसाधन की मौजूदा स्थिति का जायजा लें। इस आलोक में परिवार कल्याण एवं स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी के 31 मार्च 2017 तक के आंकड़ों को देखे तो मालूम चलता है कि भारत में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर 27,124 ऐलोपैथिक चिकित्सक तैनात हैं। गर 10 शीर्ष राज्य एवं केन्द्रशासित प्रदेशों का आंकड़ा देखें, जहां सबसे ज्यादा चिकित्सक तैनात हैं तो उनमें क्रमशः महाराष्ट्र, तमिलनाडु, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, कर्नाटक, बिहार, आंध्रप्रदेश, गुजरात, केरल एवं असम आते हैं। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा 2,929, तमिलनाडु में 2,759, राजस्थान में 2,382, उत्तरप्रदेश में 2,209, कर्नाटक में 2,136, बिहार में 1,786, आंध्रप्रदेश में 1,644, गुजरात में 1,229, केरल में 1,169 एवं असम में 1,148 एलैपैथिक चिकित्सक काम कर रहे हैं।

 जीडीएमओ की स्थिति

इसी कड़ी में जीडीएमओ की तैनाती के संदर्भ में बात करें तो 31 मार्च 2017 तक सरकारी आंकड़ों के हिसाब से देश के सामुदायिक केन्द्रों पर 14,350 एलोपैथिक जेनरल ड्यूटी मेडिकल ऑफिसर तैनात किए जा चुके थे। सामुदायिक केन्द्रों पर जिन पांच राज्यों में जीडीएमओ के पद पर सबसे ज्यादा तैनाती हुई है, वे राज्य हैं क्रमशः तमिलनाडु, राजस्थान, केरल, गुजरात और पश्चिम बंगाल। तमिलनाडु में 2,547,राजस्थान में 1,045, केरल में 1,019, गुजरात में 966 और पश्चिम बंगाल में 871 जीडीएमओ की तैनाती हुई है जो की देश में कुल तैनाती के 44.93 फीसद है।

फिजिशियन की तैनाती

31 मार्च 2017 तक भारत में सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर 864 फिजिशियन तैनात थे। तैनाती के मापदंड पर शीर्ष पांच राज्यों की बात की जाए तो राजस्थान में सबसे ज्यादा 189, कर्नाटक में 106, उत्तरप्रदेश में 103, ओडिसा में 58 एवं आंध्रप्रदेश में 56 फिजिशियनों की तैनाती हुई है।

पुरूष स्वास्थ्य कार्यकर्ता की तैनाती 

31 मार्च 2017 तक भारत में कुल 56,263 पुरूष स्वास्थ्य कार्यकर्ता उप स्वास्थ्य केन्द्र पर कार्यरत थे। जिसमें गुजरात में 7,888, महाराष्ट्र में 4,570, छत्तीसगढ में 3,856, उत्तरप्रदेश में 3,885 और मध्यप्रदेश में 3,707 पुरूष स्वास्थ्य कार्यकर्ता उप स्वास्थ्य केन्द्र पर काम कर रहे हैं। इन प्रमुख 5 राज्यों में भारत में कुल पुरूष स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के मुकाबले 42.04 फीसद स्वास्थ्य कार्यकर्ता काम कर रहे हैं। इसी तरह ओडिसा में 3,617, केरल में 3,401, कर्नाटक में 3,252, आंध्रप्रदेश में 2,964 एवं असम में 2,783 पुरूष स्वास्थ्य कार्यकर्ता काम कर रहे हैं। उपरोक्त शीर्ष 10 राज्यों के उप स्वास्थ्य केन्द्रों पर इसी श्रेणी के कुल स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के 70.87 फीसद लोग काम कर रहे हैं।

स्वास्थ्य उपकेन्द्रों में महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं/ एएनएम की तैनाती

     ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी के 31 मार्च 2017 तक के आंकड़ों के अनुसार भारत में 1,98,356 महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता अथवा एएनएम की तैनाती की जा चुकी थी। यदि उन पांच राज्यों की चर्चा करें जहां उपकेन्द्रों पर सबसे ज्यादा महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की तैनाती की गई है तो वे हैं उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, राजस्थान एवं आंध्रप्रदेश। 28,250 महिलाएं सिर्फ उत्तरप्रदेश में जबकि बिहार में 20,151, पश्चिम बंगाल में 18,253, राजस्थान में 14,271 एवं आंध्रप्रदेश में 12,073 महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की तैनाती हुई है। देखा जाए तो शीर्ष के इन पांच राज्यों में देश के कुल महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की तुलना में 46.88 फीसद महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता काम कर रही हैं।

 फार्मासिस्टों की स्थिति

राज्य एवं केन्द्रशासित प्रदेशों के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र एवं सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर कार्यरत फार्मासिस्टों की संख्या 31 मार्च 2017 तक 25,193 है। शीर्ष के पांच राज्यों जहां पर सबसे ज्यादा फार्मासिस्ट पदस्थापित हैं वे हैं उत्तरप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, ओडिसा एवं मध्यप्रदेश। इन पांच राज्यों में सबसे ज्यादा 2,883 यानी 11.44 फीसद फार्मासिस्ट अकेले यूपी में हैं। कर्नाटक में 2,523, महाराष्ट्र में 2,082, ओडिसा में 1,691 एवं मध्यप्रदेश में 1,687 फार्मासिस्ट 31 मार्च 2017 तक काम कर रहे थे। इस तरह देखा जाए तो पूरे देश में जितना फार्मासिस्ट प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र एवं सामुदायिक केन्द्र पर तैनात किए गए हैं उसका 43.13 फीसद सिर्फ उपरोक्त पांच राज्यों में हैं।

स्वास्थ्य बने जन-विषय

उपरोक्त आंकड़ों को देखकर यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था मानव संसाधन की कमी से जुझ रही है। बीमारी का बोझ उठाने में वर्तमान व्यवस्था पूरी तरह तैयार नहीं दिख रही है। विगत कुछ वर्षों में स्वच्छ भारत अभियान, पोषण अभियान, आयुष्मान भारत योजना, प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना जैसे सरकारी पहलों के माध्यम से देश की स्वास्थ्य व्यवस्था को बेहतर करने की कोशिश की गई है। इसी कड़ी में मेडिकल कॉउंसिल ऑफ इंडिया की जगह नेशनल मेडिकल कमिशन बिल संसद में विचाराधीन चल रहा है। नई स्वास्थ्य नीति-2017 लागू है। मानसिक स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार की श्रेणी में रखा गया है। यानी कई स्तर पर काम चल रहा है। इन सबके बावजूद यदि हम स्वस्थ भारत के संकल्प को जल्द पूर्ण करना चाहते हैं और देश को आर्थिक महाशक्ति बनाना चाहते हैं तो निम्न बिन्दुओं पर विचार जरूरी है। 

स्वास्थ्य शिक्षा की पढ़ाई एक विषय के रूप में शुरू हो

किसी भी देश की मजबूती में वहां की स्वास्थ्य एवं शिक्षा-नीति का अहम योगदान रहा है। ऐसे में मैं चाहता हूं कि देश में प्राथमिक स्तर पर स्वास्थ्य की पढ़ाई शुरू हो। सामान्य ज्ञान के रूप में खुद को सेहतमंद बनाएं रखने के लिए जो जरूरी है, उन तमाम बिन्दुओं के बारे में छात्रों को शुरू से ही अवगत कराया जाए। बचावात्मक स्वास्थ्य (प्रीवेंटिव हेल्थ) की ओर यह एक क्रांतिकारी कदम हो सकता है।

 पैथी और बीमारी को लेकर स्पष्ट गाइडलाइन बने

देश की स्वास्थ्य व्यवस्था अभी भी अंग्रेजी पैथी के इर्द-गीर्द ही घूम रही है। तकरीबन सभी बीमारियों के लिए लोग सीधे अंग्रेजी चिकित्सक के पास पहुंचते हैं। जबकी ऐसी तमाम बीमारियां हैं जिनका इलाज अंग्रेजी चिकित्सकों के पास नहीं होता है। ऐसे में हमें एक सूची जारी करनी चाहिए जिससे यह स्पष्ट हो कि किस बीमारी का ईलाज आयुष में बेहतर है औऱ किस बीमारी का ईलाज एलोपैथ में बेहतर है। इससे देश की जनता में बीमारी और ईलाज को लेकर जो भ्रम की स्थिति है वह दूर हो जाएगी और उनकी गाढ़ी कमाई की लूट भी नहीं हो सकेगी।

स्वास्थ्य संबंधी जानकारी हेतु एक सिंगल विंडो सूचना केन्द्र बने

अक्सर यह देखने को मिलता है कि स्वास्थ्य को लेकर इतने विभाग, इतने संस्थान काम कर रहे हैं कि सही जानकारी प्राप्त करना एक आम इंसान के लिए बहुत मुश्किल हो जाता है। ऐसे में एक ऐसा सूचना तंत्र विकसित हो जो स्वास्थ्य संबंधित तमाम जानकारियों को एक प्लेटफॉर्म से उपलब्ध कराए।


प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना का विस्तार

लोगों को सस्ती दवाइयां उपलब्ध कराने हेतु प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना को और तीव्रता से विस्तारित किया जाए। इस दिशा में देश के प्रत्येक पंचायत में एक जनऔषधि केन्द्र खुले। इसके लिए अगर उस पंचायत में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है तो वहां पर, नहीं है तो सरकारी स्कूल के प्रांगण में भी इस केन्द्र को खोला जा सकता है, जहां से पूरे पंचायत की कनेक्टीविटी रहती है। जनऔषधि केन्द्र खोलने में सबसे बड़ी बाधा फार्मासिस्टों की अनुपलब्धता को बताया जा रहा है। इसके लिए एक सुझाव यह है कि गर सरकार ‘जन-फार्मासिस्ट’ के नाम से एक नया सर्टिफिकेट कोर्स शुरू करे और तीन महीने जनऔषधि से सबंधित पढ़ाई कराई जाए और 3 महीने प्रैक्टिकल अनुभव के लिए उन छात्रों को किसी जनऔषधि केन्द्र से इंटर्नशीप कराई जाए तो 6 महीने में जनऔषधि केन्द्र चलाने योग्य मैन पावर को हम तैयार कर सकते हैं औऱ इससे रोजगार भी बढ़ेगा। हां, यह जरूर तय करें कि यह सर्टीफिकेट सिर्फ और सिर्फ जनऔषधि केन्द्र खोलने के लिए ही इस्तेमाल हो, इसकी वैद्यता बाकी कामों के लिए न हो।


आयुष्मान भारत का विस्तार हो

 मेरी समझ से देश की स्वास्थ्य व्यवस्था को नागरिकों के उम्र के हिसाब से तीन भागों में विभक्त करना चाहिए। 0-25 वर्ष तक, 26-59 वर्ष तक और 60 से मृत्युपर्यन्त। शुरू के 25 वर्ष और 60 वर्ष के बाद के नागरिकों के स्वास्थ्य की पूरी व्यवस्था निःशुल्क सरकार को करनी चाहिए। और इसके लिए इस आयुवर्ग के लोगों को आयुष्मान भारत योजना के अंतर्गत लाया जा सकता है। 26-59 वर्ष तक के नागरिकों को अनिवार्य रूप से राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत लाना चाहिए। जो कमा रहे हैं उनसे बीमा राशि का प्रीमियम भरवाने चाहिए, जो बेरोजगार है उनकी नौकरी मिलने तक उनका प्रीमियम सरकार को भरना चाहिए। इस सुझाव के पीछे मेरा तर्क सिर्फ इतना है कि यदि देश की उत्पादन शक्ति को बढ़ाना है तो देश के नागरिकों के स्वास्थ्य को सुरक्षित करना ही होगा।

आदर्श स्वास्थ्य व्यवस्था हेतु कुछ अन्य सुझाव

  1. प्रत्येक गांव में सार्वजनिक शौचालय बने।
  2. खेलने योग्य प्लेग्राउंड की व्यवस्था हो।
  3. प्रत्येक स्कूल में योगा शिक्षक के साथ-साथ स्वास्थ्य शिक्षक की बहाली हो।
  4. प्रत्येक पंचायत में जनऔषधि केन्द्र खुले।
  5. प्रत्येक गांव में वाटर फिल्टरिंग प्लांट लगे, जिससे शुद्ध जल की व्यवस्था हो सके।
  6. सभी कच्ची-पक्की सड़कों के बगल में पीपल व नीम के पेड़ लगाने की व्यवस्था के साथ-साथ हर घर-आंगन में तुलसी का पौधा लगाने हेतु नागरिकों को जागरूक करने के लिए कैंपेन किए जाएं।

वैश्विकरण के इस युग में खुद को सेहतमंद बनाए रख पाना आसान नहीं रह गया है। खासतौर से उस समय जब सांस्कृतिक एवं पर्यावरणीय प्रदूषण तेजी से बढ़ सरकार के साथ-साथ हमें भी अपनी सेहत के बारे में सजग एवं प्रयत्नशील रहना होगा। विगत कुछ वर्षों में स्वास्थ्य राजनीतिक विषय बना है। और इस विषय पर सरकारों को फायदे-नुकसान भी हुए हैं। जरूरत इस बात की है कि अब यह जन-विषय बने।

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लेखक परिचयः लेखक स्वस्थ भारत (न्यास) के चेयरमैन हैं। स्वास्थ्य विषयों पर विगत एक दशक से एडवोकेसी का काम कर रहे हैं। देश के विभिन्न स्कूलो, कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों में 300 से ज्यादा स्वास्थ्य संबंधी लेक्चर दे चुके हैं। स्वास्थ्य के प्रति देश को जागरूक करने के लिए दो बार स्वस्थ भारत यात्रा कर चुके हैं। संपर्क- ashutoshinmedia@gmail.comमो. 9891228151

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