बंगालः ममता पर भारी निर्ममता
आशुतोष कुमार सिंह
हाल के दिनों में डॉक्टरों पर भीड़ के हमले बढ़े हैं। नया मामला पश्चिम बंगाल से सामने आया है। वहां के डॉक्टरों को भीड़ ने इसलिए निशाना बनाया क्योंकि एक बुजुर्ग को वे मरने से नहीं बचा सके। उसके बाद ट्रक भर के भीड़ आई और डॉक्टरों पर टूट पड़ी। जिसमें दो डॉक्टर बुरी तरह जख्मी हो गए। एक की हालत अभी भी नाजुक बताई जा रही है। इस घटना के विरोध में बंगाल के डॉक्टर हड़ताल पर चले गए। अपनी सुरक्षा एवं दोषियों को सजा देने की मांग करने लगे। उनकी सही मांग को मानने की जगह सूबे की मुखिया ममता बनर्जी ने निर्ममता के साथ चिकित्सकों को धमकाने की कोशिश की और यहां तक कह दिया कि जिस तरह पुलिस और आर्मी को हड़ताल करने का हक नहीं है उसी तरह डॉक्टरों को भी हड़ताल करने का हक़ नहीं है। जो हड़ताल करेगा उनसे सख्ती से निपटा जायेगा।
सूबे की मुखिया की इस मूर्खतापूर्ण बात ने आग में घी डालने का काम किया। देखते-देखते हजारों चिकित्सकों ने अपना त्याग-पत्र देना शुरू कर दिया। दूसरी तरह सूबे की निर्मम ममता ने इस पूरे मामले को राजनीतिक रंग देने का काम किया। ममता ने पहले कहा कि यह बीजेपी प्रायोजित हड़ताल है। फिर कहा कि यह सबकुछ बाहरी लोग कर रहे हैं। फिर कहा कि जो बांग्ला बोलेगा वहीं बंगाल में रहेगा।
बंगाल जैसे सांस्कृतिक विरासत वाले राज्य की मुखिया के मुंह से इस तरह के जहरीले शब्द का निकलना न सिर्फ बंगाल के लिए बल्की पूरे मुल्क के लिए चिंता का विषय बन गया है। उनकी राजनीतिक महत्वकांक्षा के आगे आज देश भर में मरीज परेशान हो रहे हैं। लेकिन ममता की कठोरता बढ़ती ही जा रही है। ममता की यह तानाशाही लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता है।
राजनीतिक मंच पर या राजनीतिक बदले के लिए ममता ने जो कुछ भी किया उससे सहमत-असहमत होने की गुंजाइश हो सकती है लेकिन चिकित्सकों को अपने राजनीति में घसीटना और उन्हें किसी पार्टी, पंथ या संप्रदाय के भाव से देखना स्वस्थ भारत की परिकल्पना के विरूद्ध है। हालांकि 7 दिनों तक ममता की निर्ममता के आगे पूरा देश स्वास्थ्य अव्यवस्था से जुझता रहा। अब जाकर ममता ने चिकित्सकों से बातचीत की हैं और उनकी सभी शर्तों के माना है। ममता के इस फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए।
स्वास्थ्य एक धर्मनिर्पेक्ष, पंथनिर्पेक्ष, जातिनिर्पेक्ष विषय है। इस विषय पर जब राजनीति होने लगे और डॉक्टरों को बाहरी-भीतरी के भाव से देखा जाने लगे तो समझ लीजिए की समाज मानसिक बीमारी की ओर बढ़ रहा है। बंगाल से डॉक्टरों का जो स्वर उठा है आज पूरे देश में फैल गया है। और इसका देश के स्वास्थ्य व्यवस्था पर गहरा असर पड़ने वाला है।
देश के लोगों में आम धारणा है कि डॉक्टर लूटते हैं। डॉक्टर ठीक से इलाज नहीं करते। कुछ एक मामलों में यह बात सही है लेकिन जब हम सार्वभौमिकता में बात करते हैं तो यह बात बिल्कुल भी सही नहीं है। एक डॉक्टर को डॉक्टर बनने में कितनी कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है, इसका अंदाजा आम आदमी नहीं लगा पाता है। करोड़ों रुपये की फी चुकता करने और अपने जीवन के 10-12 साल देने के बाद एक चिकित्सक समाज में पैदा होता है। और यह समाज उस चिकित्सक को भगवान का दर्जा देकर यह कहता है कि चिकित्सक बीना फीस लिए समाज का ईलाज कर दे। लेकिन समाज यह नहीं सोचता कि जिसने अपने जीवन का 10-12 साल इस कौशल को प्राप्त करने के लिए लगाया है और करोड़ों रुपये खर्च किया है वो समाज का इलाज निःशुल्क कैसे कर सकता है? एमबीबीएस की डिग्री प्राप्त कर प्रैक्टिस करने के लिए जब कोई चिकित्सक समाज में आता है तब उसके सामने अपनी रोजी-रोटी का भी सवाल होता है और साथ ही उस पूंजी की रिकवरी का भी प्रश्न जो या तो उसने अपनी जमीन बेच कर लगाई होती है या लोन लेकर। यहां पर एक प्रश्न चिकित्सक बनने की प्रक्रिया की भी है। आखिर चिकित्सक बनाने वाला तंत्र इतना महंगा क्यों है? अगर चिकित्सक बनाने का खर्च कम हो जाए और किसी को चिकित्सक बनने के लिए आर्थिक रूप से विपन्न न होना पड़े तो निश्चित रूप से जो चिकित्सक बनेंगे वे कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को ज्यादा समझ पाएंगे।
यहां पर एक बात और समझने की है कि समाज के सभी लोग अपने-अपने क्षेत्र में भ्रष्टआचरण को बढ़ावा दे रहे हैं और डॉक्टर को भगवान का मुखौटा पहनाकर उससे सदआचरण की अपेक्षा रखते हैं। समाज जब कहता है कि चिकित्सक को इलाज का खर्च कम करना चाहिए, उसी समय समाज का यह भी दायित्व बनता है कि वो सरकार से कहे कि वो चिकित्सक बनने की प्रक्रिया को सस्ता करे। डोनेशन लेकर प्रवेश देने वाले निजी मेडिकल कॉलेजों से कहें कि वो कम खर्चे में चिकित्सा की पढाई कराएं या सरकार से कहें कि चिकित्सक बनने में आने वाला खर्च वो पूरी तरह खुद वहन करें। लेकिन ऐसा करना हमारे समाज को अच्छा नहीं लगेगा। सच्चाई तो यह है कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हमारा समाज एक-दूसरे को भ्रष्टाचारी बता कर खुद को सदविचारी स्थापित करने में जुटा हुआ है।
एक डॉक्टर की व्यथा को समझना हो तो आप किसी भी सरकारी अस्पताल में जाकर देखिए एक डॉक्टर को कितने मरीजों को देखना पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि 1000 की आबादी पर एक फिजिशियन होना चाहिए लेकिन अपने देश में 1700 लोगों पर एक डॉक्टर हैं। डॉक्टरों पर काम का दबाव दुगुना है।किसी मरीज की चिकित्सा करने के लिए एक डॉक्टर को मानसिक सुकुन की जरूरत होती है लेकिन जब समाज उस डॉक्टर को एक विलेन के रूप में निरूपित करने लगता है तो डॉक्टर कोई भी रिश्क लेने के पहले 100 बार सोचता है।
बंगाल में जिस तरह की घटनाएं हुई हैं उस तरह की घटनाएं आए दिन देखने-सुनने को मिलती है। इसके पूर्व के मामलों में शासन चिकित्सकों की सुरक्षा का आश्वासन देता हुआ नज़र आता रहा है लेकिन इस बार बंगाल सरकार चिकित्सकों को जनता के बीच में खलनायक बनाकर पेश करने की कोशिश कर रही है। शायद यही कारण है इंडियन मेडिकल एसोसिएशन सहित देश के तमाम चिकित्सा प्रकोष्ठ इस बार बंगाल में डॉक्टरों पर हुई हिंसा के खिलाफ सड़कों पर हैं। इस बावत देश के स्वास्थ्य मंत्री से भी डॉक्टरों का प्रतिनिधिमंडल मिला है। स्वास्थ्य मंत्री ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को चिट्ठी लिखकर डॉक्टरों की मांग पर ध्यान देने को कहा है। साथ ही उन्होंने कहा कि पूरे देश में स्वास्थ्य की स्थिति गड़बड़ हो रही है। हालांकि स्वास्थ्य मंत्री ने चिकित्सकों से अपील की है कि वे अपना हड़ताल वापस लें और अन्य प्रतीकात्मक माध्यम से विरोध करें ताकि आम लोगों को ईलाज में दिक्कत न आए।
स्वस्थ भारत यात्रा-2 के दौरान इसी साल मार्च में कोलकाता जाना हुआ था। वहां पर केन्द्र सरकार द्वारा चलाए जा रहे किसी भी स्वास्थ्य योजना को लागू कर पाना मुश्किल था। लोगों को सस्ती दवा दिलाने वाली योजना प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना के अंतर्गत खुल रहे जनऔषधि केन्द्रों में तोड़-फोड़ की जा रही थी। स्टोर पर प्रधानमंत्री की तस्वीर लगाने से रोका जा रहा था मानो बंगाल देश के प्रधानमंत्री को अपना प्रधानमंत्री नहीं मानता हो। इतना ही नहीं मुझे आयुष्मान भारत एवं जनऔषधि विषय पर अपना लेक्चर देना था कोई भी स्कूल कॉलेज ममता सरकार के डर के कारण इस लेक्चर को कराने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे। कोलकाता में जहां हमारी टीम ठहरी थी वहां पर स्थानीय 10-12 लोग आकर पूरी इन्क्वायरी कर के गए कि आखिर हम कोलकाता में क्यों आए हैं? इसी तरह सिलीगुड़ी में भी प्रशासन के लोग हमारे संपर्क में रहे ताकि कोई अनहोनी न हो जाए। कहने का मतलब यह है कि आखिर में बंगाल की ममता सरकार किस तरह का बंगाल बनाना चाहती है!क्या वह राज ठाकरे की नक्शेकदम पर चलना चाहती हैं? क्या वे भाषाई विद्वेश फैलाना चाहती हैं? बंगाल के सौहार्द को बिगाड़ने से हो सकता है कि उनका कुछ राजनीतिक हित सध जाए लेकिन वे इसी बंगाल के रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर सहित उन तमाम देवात्माओं को जिन्होंने बंगाल को एक विचारवान एवं समरस राज्य बनाया है, को क्या जवाब देंगी?
बहरहाल चिकित्सकों के खिलाफ बढ़ रही हिंसा की घटनाएं स्वस्थ समाज के लिए चिंतनीय प्रश्न है। इस विषय पर समाज को और सरकार दोनों को गहन चिंतन-मनन करने की जरूरत है। ऐसा न हो कि लोगों की जान बचाने वाला तबका लोगों का जानी-दुश्मन बन जाए!
परिचयः लेखक स्वस्थ भारत (न्यास) के चेयरमैन हैं। दो बार स्वस्थ भारत यात्रा कर चुके हैं। स्वास्थ्य विषयों पर देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे हैं।