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कोरोना प्रभावः मौलिकता की और लौटता मानव

कोरोना वायरस  के कारण मनुष्य  मौलिकता की ओर लौटने पर मजबूर होगा।भौतिकता बनाम प्रकृति के जंग में प्रकृति आधारित जीवन शैली को समधानपरक एवं कारगर बता रही हैं अंतरराष्ट्रीय लाइफकोच अभिलाषा द्विवेदी

 
पिछले महीने 24 तारीख की देर शाम जब देश में कोरोना के कारण लॉकडाउन लगाने का एलान किया गया, तो शायद ही यह उम्मीद रही होगी कि इस एक महीने में जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में प्रत्येक स्तर पर इस कदर बदलाव आएंगे। आंकड़े बताते हैं कि यदि यह कदम नहीं उठाया जाता, तो आज की तुलना में संक्रमित मरीजों की संख्या 41 फीसदी अधिक होती। 15 अप्रैल तक करीब 8.2 लाख संक्रमित मामले देश में हो सकते थे, जो फिलहाल 25 हजार के आसपास हैं, जिनकी देखभाल के लिए हमारे पास पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं हैं।

कोरोना-काल ने सिखाया है कि हर छोटी-बड़ी शारीरिक समस्या के लिए आधुनिक चिकित्सा विज्ञान पर पूरी तरह निर्भर रहने की जरूरत नहीं है। हमारा ‘किचन भी क्लिनिक’ है और ‘आहार औषधि’।

इस बंदी के दौरान भारतीय संस्कृति का मूल गुण अध्यात्म चिंतन मानसिक विकारों से लोगों का बचाव कर रहा है। ध्यान-योग-प्राणायाम जैसी आत्म को संयमित करने वाली विधियां, साथ ही छोटी-मोटी बीमारियों के लिए घरेलू उपचार वाली औषधियां बहुत कारगर साबित हो रही हैं। इसने सिखाया है कि हर छोटी-बड़ी शारीरिक समस्या के लिए आधुनिक चिकित्सा विज्ञान पर पूरी तरह निर्भर रहने की जरूरत नहीं है। हमारा ‘किचन भी क्लिनिक’ है और ‘आहार औषधि’।

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मौलिकता की ओर लौटता मानव

अभी दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज ने लॉकडाउन में 1009 लोगों के जरिए एक शोध किया, जिसमें यह जानने की कोशिश की कि बंदी के दौरान लोगों की मानिसक सोच पर किस तरह का असर पड़ा। दिल्ली, हरियाणा, चंडीगढ़, राजस्थान, बिहार, कर्नाटक, असम और महाराष्ट्र के 17-83 साल के लोगों ने इस सर्वे में भाग लिया। नतीजा बताता है कि 96.5 फीसदी लोगों ने खाना न बर्बाद करने की बात को सबसे ज्यादा तरजीह दी, जबकि 72.2 फीसदी ने कहा कि वे आने वाले समय में किसी भी लक्जरी सामान पर खर्च कम करेंगे। 91 फीसदी ने माना कि वे अब अपने स्वास्थ्य और सफाई का ज्यादा ध्यान देंगे। 45.6 फीसदी लोगों ने पर्यावरण के प्रति संवेदशनीलता बरतने की बात कही। और 31.8 फीसदी लोगों ने कहा कि वे अपने परिवार के साथ ज्यादा समय बिताएंगे। जाहिर है, लॉकडाउन के चलते मानव व्यवहार में काफी बदलाव देखे जा रहे हैं।

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इस तर्क को क्या कहा जाए?

एक तरफ भौतिकतावादियों का तर्क है कि किसी वायरस या महामारी के कारण पूरी दुनिया को इस तरह घरों में कैद नहीं किया जा सकता। हालांकि वे अभी तक कोरोना का तोड़ नहीं ढूंढ़ पाए हैं। जबकि दूसरी तरफ, पर्यावरणविद और प्रकृति प्रेमियों का मानना है कि लॉकडाउन का दुनिया में सकारात्मक प्रभाव देखा गया है और अब ठोस नीति बनाकर स्वेच्छा से अलग-अलग शहरों में साल में एकाध बार कुछ दिनों के लिए लॉकडाउन करके प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने पर विचार होना चाहिए। निश्चय ही, इस लॉकडाउन में आम दिनों में होने वाली तमाम ऑटो इम्यून बीमारियों में कमी दर्ज की गई है। मानव जीवन और प्रकृति के लिए यह अच्छा संकेत है। यह प्रकृति संरक्षण का सबसे प्रभावी तरीका भी साबित हो रहा है।

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प्रकृति का एंटीवायरस तो नहीं है कोरोना

हमें यह कदाचित नहीं भूलना चाहिए कि कोरोना जैसे वायरस का हमला भी तो प्रकृति का संतुलन बिगड़ने से हुआ है। आधुनिकता की अंधी दौड़ में आज पूरी दुनिया ने प्रकृति का बेशुमार दोहन किया है। ओजोन परत में छेद होने, ग्लेशियरों के पिघलने, वनों को अनवरत काटने, वन्य जीव-जंतुओं के क्षेत्रों में मानव का अतिक्रमण, नदियों, भूगर्भीय जल, खनिज, पहाड़ों आदि का अत्यधिक दोहन आदि इंसानी कृत्य ही तो हैं। हम अपनी तुलना प्रकृति की दृष्टि में खतरनाक वायरस से कर सकते हैं, तो क्या प्रकृति ने हमें सबक सिखाने के लिए अपना एंटी वायरस बनाया है? इस विषय पर भी गंभीरता से सोचने की जरूरत है।

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स्वास्थ्य ही धन है

रही बात सामाजिक जन-स्वास्थ्य की, तो इस एक माह में लोगों का जीवन के प्रति नजरिया बदला है। जहां जनसंख्या घनत्व अधिक है, उन शहरों में वायरस का प्रसार अधिक हो रहा है। गांव और छोटे शहर अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं। अब एकाकी भौतिक विकास से लोगों का कुछ हद तक मोह भंग हुआ है। यह विश्वास बढ़ा है कि प्रकृति परम शक्ति है। प्राकृतिक जीवनशैली, जीवन के उद्देश्य, आवश्यकता और पश्चिम के अंधाधुंध अनुकरण के दुष्परिणाम की विवेचना कर पाने में भारतीय समर्थ हो गए हैं। यह तुलनात्मक अध्ययन का समय रहा, जहां समग्र विकास बनाम भौतिक विकास के लाभ-हानि को समझकर जीवन के सार, स्वास्थ्य और प्रकृति-सापेक्ष जीवन का महत्व समझा जाने लगा है। एक अन्य बड़ी बात, जो लोगों ने व्यावहारिक रूप से समझी है, वह यह कि ‘स्वास्थ्य ही धन है’।

इस लॉक डाउन के काल में, जब पूरा देश अपने स्थान पर रुका हुआ है। लोग विचार कर रहे हैं कि आखिर यह देश पूर्व में कई हजार वर्षों से स्वस्थ रहता था। और आज जब आधुनिक चिकित्सा विज्ञान इस स्वास्थ्य आपातकाल में अभी तक नाकाफ़ी साबित हो रहा है, ऐसे में स्वस्थ रहने के लिए हमें क्या करना चाहिए।

हमारे अपने शरीर को भी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शोधन के लिए स्व लॉक डाउन की भी आवश्यकता समय समय पर पड़ती है। तो भौतिक धन से कहीं बड़ा स्वास्थ्य धन बचाए रखने के लिए लोग स्वत: सारे काम छोड़कर घरों में बंद होने को तैयार हैं। इस लॉक डाउन के काल में, जब पूरा देश अपने स्थान पर रुका हुआ है। लोग विचार कर रहे हैं कि आखिर यह देश पूर्व में कई हजार वर्षों से स्वस्थ रहता था। और आज जब आधुनिक चिकित्सा विज्ञान इस स्वास्थ्य आपातकाल में अभी तक नाकाफ़ी साबित हो रहा है, ऐसे में स्वस्थ रहने के लिए हमें क्या करना चाहिए। क्या आज फिर से हमें आयुर्वेद के आहार-विहार को व्यवहार में लाने की आवश्यकता है?

लोगों ने स्वतः भारतीय घरों में परंपरागत रूप से विशेष आस्थाओं में निषिद्ध भोजन रुचियों को छोड़ दिया है। ऐसे में एक बड़ा प्रश्न उभर रहा है कि क्या हम प्रकृति सापेक्ष, प्राकृतिक तत्वों से शरीर व चित्त को ठीक रखने वाली पद्धति को वैकल्पिक और बाहरी केमिकल्स से शरीर के लक्षण प्रबंधन को मुख्य चिकित्सा पद्धति क्यों मानते हैं?

मनुष्य भी प्रकृति का संघटक है। जो स्वतः खुद को ठीक करता है। कई बार हमारे अपने शरीर को भी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शोधन के लिए स्व लॉक डाउन की भी आवश्यकता समय समय पर पड़ती है। तो भौतिक धन से कहीं बड़ा स्वास्थ्य धन बचाए रखने के लिए लोग स्वत: सारे काम छोड़कर घरों में बंद होने को तैयार हैं।

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