वरिष्ठ पत्रकार एवं सभ्यता अध्ययन केन्द्र के निदेशक हैं रवि शंकर। कोविड-19 से जुड़े तमाम पक्षों को उन्होंने चार आलेखों में समेटा है। चौथा एवं इस सीरीज का आखिरी लेख प्रस्तुत है…
नई दिल्ली/ एसबीएम
आयुर्वेद ही है समाधान। भले ही यह दावा थोड़ा अतिशयोक्तिपूर्ण जान पड़े, परंतु यही सच है। कोविड-19 के संक्रमण को रोकने से लेकर उसका इलाज करने में केवल आयुर्वेद ही सक्षम है। आयुर्वेद की ऋतुचर्या का पालन और उसके आहार-विहार का पालन करने से केवल कोरोना ही नहीं, लगभग सभी रोगों का बचाव और इलाज दोनों ही संभव है। परंतु समस्या यह है कि आधुनिक शिक्षा में केवल यूरोपीय शिक्षा ही दी जाती है और इस कारण आज के पढ़े-लिखे लोग केवल यूरोपीय पद्धतियों पर ही अंध आस्था रखते हैं।
दूसरा आलेखःः तो क्या सच में लाइलाज है कोविड-19
भारत का पूरा प्रशासनिक तंत्र ऐसे ही लोगों से भरा हुआ है। इसलिए प्रधानमंत्री मोदी की इच्छा के बाद भी आयुष मंत्रालय वह काम नहीं कर पा रहा है, जो उसे करना चाहिए। उदाहरण के लिए, कम से कम छह-सात वैद्यों को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ, जिन्होंने कैंसर के रोगियों को ठीक किया है और वह भी ऐसे रोगी, जिन्हें आधुनिकतम अस्पतालों ने लाइलाज बता दिया था। परंतु आयुष मंत्रालय के अस्पतालों के वैद्यों से पूछा जाये तो कहेंगे कि आयुर्वेद कैंसर का इलाज नहीं कर सकता, केवल सहयोग कर सकता है। वे ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि यूरोप ने इतना आज मान लिया है। एलोपैथ के चिकित्सक यह मान चुके हैं कि कीमियोथेरेपी और रेडियोथेरेपी जैसे प्राणघातक प्रक्रियाओं के कारण रोगी को जो कष्ट होता है, उसे केवल आयुर्वेद कम कर पाता है। उन चिकित्सा पद्धतियों के कारण रोगी का पूरा पाचन संस्थान समाप्त हो जाता है, उसे केवल आयुर्वेद फिर से सशक्त बना पाता है।
पहला आलेखःकोविड-19 से बड़ा है इसका का भय
तो स्थिति यह है कि सरकारी विभाग यूरोपीय मानसिकता के लोगों से भरा होने के कारण आयुर्वेद को एलोपैथ की दासी मात्र समझता है, जैसे कि वह हिंदी को अंग्रेजी की दासी मानता है। भारत की हर वस्तु, चाहे वह भाषा के रूप में हिंदी हो, चिकित्सा पद्धति के रूप में आयुर्वेद हो, कृषि पद्धति के रूप में प्राकृतिक कृषि हो, भारत का प्रशासन तंत्र उसे यूरोपीय वस्तु यानी भाषा के रूप में अंग्रेजी, चिकित्सा पद्धति के रूप में एलोपैथ और कृषि पद्धति के रूप में रासायनिक कृषि से हेय और निम्न मानता और देखता है। यह मानसिकता ही आज पूरे देश को नजरबंद रखने का मुख्य कारण है, कोरोना नहीं।
तीसरा आलेखःकोविड-19 के प्रभाव-प्रसार का भौगिलिक संबंध
इस लॉकडाउन का समय कोविड-19 के बहाने देश के लिए श्रेष्ठ चिकित्सा पद्धति पर चिंतन करने का है। आधुनिक मत में पिछले तीन हजार वर्षों से इस देश में आयुर्वेद और अन्यान्य देसी पद्धतियां ही चिकित्सा के लिए उपलब्ध रही हैं, परंतु देश कभी महामारियों की चपेट में नहीं आया। वहीं, एलोपैथ के पदार्पण के साथ ही यहां पहली बार महामारियां फैलने लगीं। क्या यह एक तथ्य इस पर विचार करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि भारत की बहुपरीक्षित चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद पर अधिक ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है, बजाय कि केवल एलोपैथ पर सरकारी निर्भरता को बढ़ाने के?
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इस लॉक डाउन के काल में, जब पूरा देश अपने स्थान पर रुका हुआ है, आइये हम विचार करें कि आखिर कैसे यह देश पिछले कुछ हजार वर्षों से स्वस्थ रह रहा था और आज उसे स्वस्थ रखने के लिए हमें क्या करना चाहिए। क्या आज फिर से हमें आयुर्वेद के आहार-विहार को फिर से व्यापक बनाने की आवश्यकता नहीं है? क्या सरकारें यह सुनिश्चित नहीं कर सकतीं कि ट्रेन जैसी सार्वजनिक सुविधाओं में परोसे जाने वाले भोजन में इस आहार-विहार का पालन किया जाए? रात को दही और भोजनोपरांत आइसक्रीम परोसे जाने की अवैज्ञानिक प्रथाएं क्या बंद नहीं की जा सकतीं? क्या हमें आयुर्वेद को मुख्य चिकित्सा पद्धति और एलोपैथ को वैकल्पिक पद्धति के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिए? यही वे प्रश्न हैं, जो इस लॉकडाउन में चिंतनीय हैं।
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नोटः हमने रवि शंकर जी के चार आलेखों के माध्यम से कोविड-19 से जुड़े तमाम पक्षों को सामने रखने का प्रयास किया है। आगे भी आप लोगों के बीच इनके आलेखों को लेकर आएंगे। आपको अगर रवि शंकर जी के सुझाव तार्किक लग रहे हों, तो इसे खुद तो पढ़ें ही साथ-साथ इसे अपने तमाम-मित्रो एवं शुभचिंतकों तक पहुंचाएं ताकि कोविड-19 से जुड़े इन पक्षों की जानकारी उन्हें भी हो सके।- संपादक