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स्वास्थ्य संकट पर रिपोर्टिंग करती पत्रकारिता को टेटेनस हो गया है, टेटभैक का इंजेक्शन चाहिए

Ravish Kumar के फेसबुक वाल से साभार 

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने घोषणा की है कि मुज़फ़्फ़रपुर के श्री कृष्ण मेडिकल कालेज अस्पताल में एक साल के भीतर 1500 बेड जोड़े जाएंगे। जिसे बढ़ा कर 2500 बेड का कर दिया जाएगा। अस्पताल 49 साल पुराना है। इस वक्त 610 बेड है।

उसी अस्पताल के कैंपस में एक सुपर स्पेशियालिटी अस्पताल बन रहा है जो शायद तैयार होने के करीब है। जिसमें 300 बेड होगा। अगर इसे 610 में जोड़ लें तो जल्दी ही 910 बेड बन कर तैयार हो जाएगा। उसके बाद 600 अतिरिक्त बेड इस अस्पताल में बनाने के लिए कम से कम दो अस्पताल बनाने होंगे। फिर 2500 का टारगेट पूरा करने के लिए दो और बनाने होंगे। वैसे हमें नहीं मालूम कि मुख्यमंत्री ने साल भर के भीतर 1500 बेड बनाने का एलान किया है उसमें पहले से बन रहे 300 बेड के अस्पताल का हिसाब शामिल है या नहीं।

एक सुपर स्पेशियालिटी अस्पताल के लिए एक बेड की लागत 85 लाख से 1 करोड़ आती है। इस लागत में इमारत और उसमें होने वाली हर चीज़ और डाक्टर की लागत शामिल होती है। अगर 1500 बेड बनेगा तो नीतीश कुमार सरकार को एक साल के भीतर 1500 करोड़ ख़र्च करने होंगे।

2017-18 में बिहार सरकार का बजट ही 7002 करोड़ का था। जो 2016-17 की तुलना में 1000 करोड़ कम हो गया था। अस्पतालों के निर्माण का बजट करीब 800 करोड़ था। क्या बिहार से बीमारियां भाग गईं थीं जो हेल्थ का बजट 1000 करोड़ कम किया गया? ये जानकारी पॉलिसी रिसर्च स्टडीज़ की साइट से हमने ली है।

अगर एक यात्रा में नीतीश कुमार अख़बारों में हेडलाइन के लिए 1500 से 2500 करोड़ के बजट के अस्पताल का एलान कर गए तो यह भी बता देते कि पैसा कहां से आएगा। इस बजट में तो पूरे बिहार का बजट ही समाप्त हो जाएगा। 130 बच्चों की मौत की संख्या छोटी करने के लिए 2500 बिस्तरों का एलान घिनौना लगता है। शातिर दिमाग़ का खेल लगता है। सबको पता है कि पत्रकार पूछेंगे नहीं कि पैसा कहां से आएगा। एक ही कैंपस में 5 अस्पताल का एलान क्यों कर गए? 2500 बिस्तर का मतलब आप 500 बेड के हिसाब से देखें तो 5 अस्पताल बन सकते हैं। क्या इन 5 अस्पतालों को आप आस-पास के ज़िले में नहीं बांट सकते थे? जिससे सबको मुज़फ़्फ़रपुर आने की ज़रूरत न होती और लोगों की जान बचती?

610 बेड के अस्पताल के लिए तो अभी डॉक्टर नहीं हैं। यही नहीं 49 साल पुराने श्री कृष्ण मेडिकल कालेज अस्पताल में पिडियाट्रिक की पोस्ट ग्रेजुएट पढ़ाई नहीं होती है। अगर यहां पीजी की दस सीट भी होती तो कम से कम 40 जूनियर या सीनियर रेज़िडेंट तो होते ही। बिहार के प्राइवेट कालेज में जो बाद में खुले हैं वहां पीजी की सारी सीटें हैं क्योंकि उनसे करोड़ रुपये की सालाना फीस ली जाती है।

आम तौर पर तीन बेड पर एक डॉक्टर होना चाहिए। अगर 1500 बेड की बात कर रहे हैं तो करीब 200-300 डॉक्टर तो चाहिए ही।बेड बनाकर फोटो खींचाना है या मरीज़ों का उपचार भी करना है। जिस मेडिकल कालेज की बात कर गए हैं वहां मेडिकल की पढ़ाई की मात्र 100 सीट है। 2014 में हर्षवर्धन 250 सीट करने की बात कर गए थे। यहां सीट दे देंगे तो प्राइवेट मेडिकल कालेजों के लिए शिकार कहां से मिलेंगे। गेम समझिए। इसलिए नीतीश कुमार की घोषणा शर्मनाक और मज़ाक है। अस्पताल बनेगा उसकी घोषणा पर मत जाइये। देश में बहुत से अस्पताल बन कर तैयार हैं मगर चल नहीं रहे हैं। गली-गली में खुलने वाले एम्स की भी ऐसी ही हालत है।

2018 में बिहार सरकार ने एक और कमाल का फैसला किया। पटना मेडिकल कालेज में 1700 बेड हैं। इसे बढ़ाकर 5462 कर दिया जाएगा। ऐसा करने से यह दुनिया का सबसे बड़ा अस्पताल बन जाएगा। इसके लिए 5500 करोड़ का बजट रखा गया। चार-पांच साल में बनकर तैयार हो जाएगा। यह बना तो बेलग्रेड के सबसे बड़े अस्पताल से आगे निकल जाएगा। ज़रूर कोई अफसर रहा होगा जो बी से बेलग्रेड और बी से बिहार समझा गया होगा और सबको मज़ा आया होगा। इसी बेड को अगर आप पूरे बिहार में बांट देते तो कई ज़िलों में एक एक अस्पताल और बन जाते। इसके लिए पटना मेडिकल कालेज की पुरानी ऐतिहासिक इमारतें ढहा दी जाएंगी।

पटना में पीएमसीच के अलावा इंदिरा गांधी मेडिकल कालेज भी है जिसे एम्स कहते हैं। यह आज तक दिल्ली के एम्स का विकल्प नहीं बन सका है। यहां भी नीतीश कुमार ने इसी जून महीने में 500 बेड का उद्घाटन किया था। पटना के लिए पीएमसीएच और एम्स काफी है। रिकार्ड बनाने से अच्छा होता 5462 बेड को पूरे बिहार में बांट देते तो किसी को सहरसा और आरा से पटना नहीं आना पड़ता। लेकिन अस्पताल भी अब 300 फीट की मूर्ति की सनक की तरह बनने लगे हैं।

फिर भी आप यह सवाल पूछ सकते हैं कि 5462 बेड के अस्पताल के लिए 1500 डाक्टर कहां से लाओगे। पीएमसीच में ही 40 परसेंट डाक्टर कम हैं। बिहार में 5000 डाक्टरों की कमी है। क्या इसके लिए नीतीश कुमार सरकारी कालेजों में मेडिकल की सीट बढ़वाने वाले हैं या प्राइवेट मेडिकल कालेज खोल कर कमाने की तैयारी हो रहा है। डॉक्टर सरकारी मेडिकल कालेज क्यों ज्वाइन करेगा। एक एक करोड़ की फीस देकर एम बी बी एस करेगा और दो दो करोड़ में पीजी तो वह सरकारी कालेज में क्यों जाएगा। अपने पैसे को वसूल कहां से करेगा। आप जानते हैं कि जो भी नीट से पास करता है उसे मजबूरन इन प्राइवेट कालेज में जाना पड़ता है। ग़ुलामी का यह अलग चक्र है जिसे समाज ने सहर्ष स्वीकार किया है। प्राइवेट कालेजों का शुक्रिया कि एक करोड़ ही पांच साल का ले रहे हैं वर्ना यह जनता सरकार से सवाल किए बग़ैर पांच करोड़ भी दे सकती थी।

श्री कृष्ण मेडिकल कालेज में जो डाक्टर साढ़े चार साल की पढ़ाई के बाद इंटर्नशिप कर रहे हैं उन्हें ढाई महीने से सैलरी नहीं मिली है। 15000 रुपये मिलते हैं। हो सकता है पूरे बिहार के इंटर्न की यही हालत हो। ज़ाहिर है बिहार सरकार के पास पैसे नहीं होंगे। तो फिर फिलहाल आप सभी जनता 2500 बिस्तर की घोषणा से काम चलाइये।

हरियाणा के झज्जर में नेशनल कैंसर इस्टिट्यूट NCI बन रहा है। इसकी योजना मनमोहन सरकार में बनी थी। मगर चुनाव के समय ही ख़्याल आया और जनवरी 2014 में मनमोहन सिंह ने इसकी आधारशिला रखी। अगले एक साल तक कुछ नहीं हुआ। 2015 के आखिर में स्वास्थ्य मंत्री के तौर पर जे पी नड्डा भूमि पूजन करते हैं। आधारशिला और भूमिपूजन में आप अंतर कर सकते हैं। 23 अक्तूबर 2016 को जे पी नड्डा ट्वीट करते हैं कि 2018 में अस्पताल चालू हो जाएगा। 710 बेड के इस अस्पताल को एम्स की निगरानी में बनवाया जा रहा है जिसे प्रधानमंत्री कार्यालय भी मॉनिटर करता है। जब दिसंबर 2018 में इस अस्पताल की ओ पी डी चालू की गई तो 710 बेड का कहीं अता-पता नहीं था। फरवरी 2019 में प्रधानमंत्री मोदी जब इसका उद्घाटन करते हैं तो 20 बेड ही तैयार था। आज भी बेड 20 के ही आस-पास हैं। चुनाव करीब था, हेडलाइन लूटनी थी तो एलान हो गया।

जब यह अस्पताल तीन साल में 20 बेड से आगे नहीं जा सका, 710 बेड नहीं बना सका, कैंसर के कितने ही मरीज़ उपचार के ख़र्चे और कर्ज़े में डूब कर मर जाते हैं, तब नीतीश कुमार 2500 बेड बनवा देंगे। 1500 बेड एक साल में बनवा देंगे। चार साल में पटना में 5462 बेड का अस्पताल बनवा देंगे। पूरे राज्य का स्वास्थ्य बजट इन दो घोषणाओं को पूरा करने में ही खप जाएगा।

आप इन जानकारियों का क्या कर सकते हैं? इसे लेकर टीवी एंकरिंग क्या ही करेंगे। पत्रकारिता को टेटेनेस हो गया है। टेटभैक का इंजेक्शन भी काम नहीं करेगा। बेहतर है इन तथ्यों को भावुक वाक्य विन्यासों में मिलाकर चीखें। पुकारें लोगों को। स्क्रीन पर दरीदें वगैरह लिखें। मुज़्फ़्फ़रपुर की जनता या बिहार की जनता जब एक कैंपस में 30 से अधिक बच्चियों के साथ हुए बलात्कार पर सड़क पर नहीं आई तो 130 बच्चों की मौत पर क्यों आएगी? हम मौत को भावुकता और आक्रोश में बदल रहे हैं वो भी एक दो लोगों से आगे नहीं बढ़ पा रही है। क्या तथ्यों पर आधारित ये सवाल कुछ बदलाव कर सकते हैं? इसका जवाब मुझे नहीं मालूम। तब तक आप चीखते रहें।

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