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किशोरों से अपेक्षाओं का बोझ कम करने की दरकार

डॉ॰ मनोज कुमार

उङते आसमानों में बाहे फैला कर जीने की बातें करना, मीठे सपनों के आगोश में समाये रहना, पल भर में दुनिया को मुट्ठी में करने की बातें युवाओं के मुख से सुनना…हर किसी को अपने बालपन व किशोरावस्था की दहलीज की यादें दिलाता है। अक्खङ़पन भरे जज्बाती किशोरों ने अब इतनी कम उम्र में ही जवानी के सारे कशमकश को खुद में समेट लिया है। अब हमारे हिन्दुस्तान में भी महज 14 साल की उम्र में परिपक्व होते विचार देखने को मिल रहे हैं, सपनांे को पूरा करने की हद से ज्यादा और क्षमता से अधिक हौसला उनको दिया जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी युवाओं के बदलते मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीरतापूर्वक विचार करने और लोगों को इसके प्रति जागरूक होने का आह्वान किया है।

पटना के युवाओं का बदल रहा मिजाज

मेरे द्वारा विगत एक दशक से अधिक तक युवाओं के कॅरियर पर जो रिसर्च किये गये हैं, उसके नतीजे चौकाने वाले रहे हैं। वास्तव में अब यहाँ के युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य की दुनिया बदल रही है। गुजरे साल मेरे पास ज्यादातर ऐसे केसेज आये जो अब स्कूल से पास कर बारहवीं में एडमिशन ले रहे थे। राजधानी होने की वजह से दूर-दराज के युवा यहाँ विभिन्न संकाय में पढ़ रहे हैं। नये जगह में नये लोगो से घुलने की जद्दोजहद इनकी जिंदगी में तनाव का विष घोल रहा है। कुछ मामलों में मैने पाया कि घर छोङ़ यहाँ रहनेवालों में भावनात्मक अभिव्यक्ति की कमी देखी जिससे उनमें अकेलापन और सोशल साइट पर ज्यादा समय गुजारने की मानसिकता बनी।

शारीरिक और मानसिक बदलाव भी

मुझसे पटना के सबसे महंगे संस्थानों में पढनेवाले आर्थिक-सामाजिक परिपूर्ण युवाओं से लेकर गरीब, बेसहारा, अनाथ, बेबस और लाचार युवाओं के अलावा आपराधिक गतिविधियों में शामिल युवा भी मिलते रहे हैं। सभी केसेज में मुझे यह समानता दिखी कि सभी अपने-अपने शारिरिक और मानसिक परिवर्तनों को नहीं समझते। लङ़का हो या लङ़कियां, अपने भीतर आये बदलाव से सहमे रहते हैं। अजीब-अजीब हरकतें कर अपने शरीर के बदलाव का पता लगाते हैं। छुप-छुपकर अपनी मानसिक समस्याएं व कुंठा-निराशा को सोशल साइटस पर शेयर करते हैं।

वर्चुअल दुनिया छीन रहा अल्लहङ़पन

दो तरह के युवाओं की टोली मिली। गैजेटस का इस्तेमाल और इन्टरनेट की दुनिया में रहने वाले आगे बढ़ते मिले। अपने तनाव व अकेलेपन से निजात पाने के लिए वर्चुअल रहनेवाले युवाओं में मानसिक समस्याएं बनी रही। डिप्रेशन, ओसीडी और न जाने कितनी मानसिक बीमारी की आगोश में वे जीते मिले।

14 की उम्र में मानसिक रोगी बन रहे युवा

मेरे पास आनेवाले युवाओं में 14 साल से 29 आयुवर्ग के युवा अवसाद पीङि़त निकले। डिप्रेशन मे जीवन की इहलीला समाप्त करना और विभिन्न प्रकार के नशे का सेवन इनकी मानसिक अस्वस्थता का द्योतक है। युवाओं में कम उम्र में मानसिक परिपक्वता उनमें विपरीत लिंग के प्रति आकर्षित कर रहा है। शारीरिक संबंधो में इजाफा होना या इसके प्रति उतावलपन देखा गया भले ही वो प्रेम के मूल्य को न समझें। माता-पिता से बातचीत न होना और अपनी बात मनवाने के लिए अङ़ना भी युवाओं में खराब मानसिकता का परिचायक रहा। कम उम्र में बाईक चलाना और फास्ट-फूड खाकर दिन काटना युवाओं की फेहरिष्त में शामिल रहा।

मनोसामाजिक सपोर्ट की दरकार

युवाओं के मनोविज्ञान को समझना अब जरूरी हो गया है। प्रशिक्षित प्रोफेशनल इस दशा से इन्हें उबार सकते हैं। समाज की जिम्मेदारी अब ज्यादा बड़ी हो गयी है। उन्हें भी इनको समझना होगा। सरकारी स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ का दायरा बढ़ाकर युवाओं के सपने टूटने से बचाने का बीड़ा उठाना एक सशक्त कदम होगा।

(लेखक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक हैं)

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