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कोविड-19 के प्रभाव-प्रसार का भौगिलिक संबंध

वरिष्ठ पत्रकार एवं सभ्यता अध्ययन केन्द्र के निदेशक हैं रवि शंकर। कोविड-19 से जुड़े तमाम पक्षों को उन्होंने चार आलेखों में समेटा है। प्रस्तुत है तीसरा लेख…

नई दिल्ली / एसबीएम
यदि कोविड-19 लाइलाज नहीं है तो फिर यह इतना खतरनाक क्यों है? यह एक ज्वलंत प्रश्न है। अभी तक जो बात सामने आई है उसमें इसके खतरनाक होने का प्रमुख कारण है इसका तीव्र फैलाव। यह तेजी से फैलता है। कोरोना की पिछली पीढ़ियां सार्स और मर्स कोविड-19 से कहीं अधिक घातक थीं और उनके कारण होने वाली मृत्यु का दर 10 से 25 प्रतिशत तक का था जो कि कोविड-19 के मामले में केवल तीन प्रतिशत का है। परंतु सार्स और मर्स केवल पशुओं से ही फैल सकते थे और इस कारण उनसे कम नुकसान हुआ। कोविड-19 के फैलने के माध्यम कहीं अधिक व्यापक हैं। इसलिए यह अधिक संक्रामक है। संक्रामकता के इस डर ने ही पूरी दुनिया को लॉकडाउन करने के लिए विवश कर दिया है। इसके कारण ही सोशल डिस्टेंसिंग जैसा शब्द फिर से प्रचलन में आ गया है। जिस छुआछूत को भारत में त्याग दिया गया था, प्रकारांतर से उसे ही एक नए रूप में अपनाए जाने की बात की जा रही है।

परंतु प्रश्न उठता है कि क्या यह वास्तव में इतना ही अधिक संक्रामक है? और क्या इसके संक्रमण को रोकने में केवल मास्क और हैंड सैनिटाइजर ही उपयोगी हैं?

यह देखना काफी रोचक है कि पिछले दो महीनों में कोविड-19 का व्याप जिस तेजी से अन्यान्य देशों में में बढ़ा है, भारत में उसकी तुलना में इसका फैलाव लगभग शून्य ही माना जाएगा। 125 करोड़ लोगों के देश में यदि कुछेक हजार लोग कोविड-19 के रोगी हैं, तो यह कोई बड़ी संख्या नहीं है। इस पर दो बातें मुख्यतः कही जाती हैं। पहली बात यह कि लॉकडाउन के कारण इसका संक्रमण रोकना संभव हुआ है। परंतु हम देख चुके हैं कि लॉकडाउन से पहले ही लगभग एक महीने से कोविड-19 का संक्रमण पूरी दुनिया में फैल रहा था और विदेशों से उन दिनों में लगभग 15 लाख लोग भारत आए थे।

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इन 15 लाख लोगों में से कितने कोरोना संक्रमित थे, यह अनुमान और जानकारी किसी के पास नहीं है। साथ ही देश के हरेक व्यक्ति की जाँच करने के लिए आवश्यक जाँच सुविधाएं भी देश में आज नहीं हैं। स्वाभाविक ही है कि केवल संदेहास्पद लोगों की जाँच ही की जा रही है। ऐसे में इसके वास्तविक आंकड़े मिलने असंभव हैं। दूसरी बात, यह कही जा रही है कि ये आंकड़ें झूठे हैं। परंतु यदि ये आंकड़े झूठे हैं तो फिर कोरोना से होने वाली मौतों की संख्या भारत में इतनी कम क्यों है?

देखने और समझने की बात यह है कि दुनिया में महामारियों के फैलने का एक इतिहास उपलब्ध है। इस इतिहास का अध्ययन करने से यह पता चलता है कि 25 अंश ऊपरी अक्षांश के नीचे और 25 अंश निचले अक्षांश से ऊपर यानी लगभग 50 अंश अक्षांश की पट्टी, जिसमें भारत भी आता है, कभी भी महामारियों का प्रकोप नहीं हुआ है।

यह क्षेत्र भौगोलिक रूप से सूर्य के प्रकाश से इतना संपन्न है कि यहाँ के लोगों की रोगप्रतिरोधक क्षमता स्वाभाविक रूप से काफी उच्च हुआ करती है। यह देखना वास्तव में महत्त्वपूर्ण है कि दुनिया में अभी तक फैली लगभग सभी महामारियां 25 अंश ऊपरी अक्षांश से ऊपर तथा 25 अंश निचले अक्षांश से नीचे के इलाकों में ही फैलती रही हैं। इटली, स्पेन आदि सभी भूमध्यसागरीय देश, अमेरिका, चीन, जापान, इरान आदि सभी 25 अंश ऊपरी अक्षांश से ऊपर स्थित हैं। यह एक कारण है कि महामारियों के पिछले 3000 वर्ष के ज्ञात इतिहास में भारत में केवल एक बार महामारी फैली है और उसका कारण भी अंग्रेजों की लूट और उनके द्वारा आयुर्वेद पर लगाया गया प्रतिबंध था। वर्ष 1918 में भारत में फैले फ्लू का प्रभाव क्षेत्र मुख्यतः अंग्रेज शासित राज्य में ही था। शेष पूरा भारत लगभग इससे मुक्त था या फिर वहाँ इसके कारण मौतें नहीं हो रही थीं।

इस सीरीज का  पहला आलेख-कोविड-19 से बड़ा है इसका का भय

इस महत्त्वपूर्ण बिंदु को ध्यान में रख कर विचार करें तो, यह साफ हो जाता है कि चाहे कोविड-19 का कहर दुनिया में बरस रहा हो, भारत में इसके संक्रमण की उतनी आशंका नहीं है, जितनी की बताई जा रही है। इसके अलावा कोरोना ही नहीं, लगभग सभी संक्रामक रोगों से जुड़ा एक महत्त्वपूर्ण बिंदु यह भी है कि भारत में युगो से चली आ रही आयुर्वेदिक परंपरा के कारण ऋतुअनुकूल आहार-विहार लोगों के जीवन में इस प्रकार समाया हुआ है कि किसी भी प्रकार का वायरल संक्रमण भारत में प्रभावी नहीं हो पाता।

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विविध कारणों से, जिनमें यूरोप आदि देशों में जैवविविधता का अभाव, अमेरिका जैसे देशों में आयुर्वेद के ज्ञान का अभाव आदि शामिल है, दुनिया के आज के कोरोना संक्रमित लगभग देशों का आहार-विहार संक्रमण के काफी अनुकूल है। यह तो दुनिया ने आज देख ही लिया है कि चीन का खानपान ही इस नए वायरस के फैलाव का प्रमुख कारण है। इटली जैसे यूरोपीय और अमेरिका जैसे नवयूरोपीय देशों का खानपान भी इससे बेहतर नहीं है।

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आयुर्वेद के अनुसार शरीर में पित्त की अधिकता होने पर ही रोगों का फैलाव प्रारंभ होता है। इस कारण चैत्र का महीना आते ही जाड़े की ऋतु में संचित कफ और पित्त को निकालने के लिए अनेक उपाय भारत में किए जाने लगते हैं। पूरे बिहार-बंगाल में इस समय नीम का भरपूर सेवन किया जाता है। लगभग सभी वैद्य इस काल में ठंडे पदार्थों का सेवन करने से मना करते हैं, यहाँ तक कि पानी भी हल्का गुनगुना करके ही पीने की सलाह देते हैं। किसी भी प्रकार का गरिष्ठ भोजन करने से मना किया जाता है। मांसाहार सर्वाधिक गरिष्ठ भोजन होता है।

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इसके अतिरिक्त यही काल है, जब आयुर्वेद के अनुसार वमन, बस्ती आदि प्रक्रियाओं द्वारा शरीर से कफ और पित्त को निकालने के उपाय भी किये जाते हैं। इतने उपायों को करने के कारण किसी भी प्रकार के वायरस या बैक्टीरियल संक्रमण का प्रतिरोध आसानी से किया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि इस काल में लोगों को संक्रमण होता ही नहीं है। यदि सामान्य दिनों में भी इस कालखंड में फ्लू, जुकाम, सर्दी, बुखार आदि होने की दर का आकलन किया जाए, तो वह कोरोना की तुलना में कम नहीं होगा, परंतु ये सभी संक्रमण उपरोक्त आहार-विहार के कारण सरलता से नियंत्रित हो जाते हैं, महामारी में नहीं बदलते। इसलिए कोविड-19 के संक्रमण से बचने में भी हैंड सैनिटाइजर और मास्क से अधिक उपयोगी आहार-विहार में परिवर्तन करना है। परंतु हैंड सैनिटाइजर और मास्क बाजार में बिकते हैं, इसलिए उनका प्रचार करना अधिक सरल और लाभकारी प्रतीत होता है।
एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य विश्व के नक्शे को देखने से पता चलता है। मलेरिया प्रभावित विश्व और कोविड-19 प्रभावित विश्व के नक्शे को देखने से पता चलता है कि जिन इलाकों में मलेरिया का प्रभाव अधिक है, वहाँ कोविड-19 का प्रभाव शून्य के समान ही है और जिन इलाकों में मलेरिया का प्रभाव शून्य है, वहाँ कोविड-19 का प्रभाव चरम पर है। दूसरी ओर, मलेरिया की दवा को आधुनिक चिकित्सा विज्ञानियों ने कोविड-19 के इलाज में प्रभावी पाया है। भारत मलेरिया के प्रभाव का क्षेत्र है, इसलिए भी कोविड-19 का प्रभाव यहाँ कम रहने की ही संभावना है।
 

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